‘गोकूप’, ग्रामीण कलाकारों के उत्पादों को सीधे आप तक पहुंचाने का बेहतरीन ज़रिया
कारीगरों का शोषण कर उन्हें उनके उत्पाद की सही कीमत न देकर मोटा मुनाफा कमाते हैं बिचैलियेकारीगरों और ग्रामीण सहकारी समितियों को सीधे कंप्यूटर और ई-काॅमर्स से रूबरू करवाया सिवा देवीरेड्डी नेकारीगरों की प्रोफाइल तैयार कर उनके उत्पादों कोे बिक्री के लिये वेबसाइट पर कर देते हैं सूचिबद्धफिलहाल 170 कारीगरों के 10 हजार से अधिक उत्पाद बिक्री के लिये वेबसाइट पर है उपलब्ध
आज के समय में जब सारा बाजार डिजिटल होता जा रहा है और आॅफलाइन खुदरा व्यापारी अमेजन और फ्लिपकार्ट जैसी आॅनलाइन माध्यमों पर अपने उत्पाद प्रदर्शित कर मुनाफा कमा रहे हैं ऐसे में ग्रामीण कारीगर और दस्तकार कहीं बहुत पीछे छूट गए महसूस होते हैं। दुनिया में देश का नाम रोशन करने वाली अधिकतर प्रतिभाएं इसी ग्रामीण परिवेश से निकलकर आती हैं जो अधिकतर शिक्षा और विकल्पों की कमी के चलते अपने कार्यों के लिये सराहना और उपयुक्त भुगतान से भी वंचित रहते हैं जिसके वे हकदार होते हैं। बाजार में दलालों और बिचैलियों की भारी मौजूदगी इन कारीगरों की बिगड़ती हुई स्थिति के लिये और भी अधिक जिम्मेदार है। एक तरफ तो ये कारीगर अपने तैयार किये हुए उत्पाद उपभोक्ताओं तक पहुंचाने के लिये इन बिचैलियों और दलालों पर निर्भर है जो इनका शोषण कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ सिवा देवीरेड्डी जैसे लोग भी हैं जो बिना किसी लालच के इनकी मदद करने के प्रयास कर रहे हैं। ‘गोकूप’ (GoCoop) के संस्थापक सिवा देवीरेड्डी इन असल कारीगरों और ग्रामीण सहकारी समितियों को उनके उत्पाद आॅनलाइन बेचने में मदद करते हुए इन्हें दलालों और बिचैलियों के चंगुल से मुक्त करवाने के लिये कड़ी मेहनत कर रहे हैं।
‘गोकूप’ को शुरू करने की वजहों के बारे में बात करते हुए देवीरेड्डी कहते हैं, ‘‘मैं इन ग्रामीण उत्पादकोे का जीवनस्तर सुधारने की दिशा में अपना ध्यान केंद्रित करना चाहता था। इन उत्पादकों के सामने बाजार तक अपनी पहुंच बनाना और बाजार से संबंधित जानकारी को पाना सबसे बड़ी चुनौती होती थी। बाजार में मौजूद सभी विक्रेता इन उत्पादकों का शोषण कर रहे थे और इनसे मात्र 10 रुपये की मामूली कीमत देकर खरीदे गए उत्पादों को वे 30 से 50 रुपये में बेचकर मोटा मुनाफा कमा रहे थे। इस सम्पूर्ण मूल्य चेन में उत्पादों की कीमतों में 3 से 5 गुणा तक का अंतर है और इसमें उत्पादक को मुनाफे एक बहुत छोटा सा हिस्सा ही मिल पाता है। विशेषकर कृषि और शिल्प के क्षेत्र में तो स्थितियां और भी बदतर है क्योंकि ये क्षेत्र बिल्कुल असंगठित हैं जिस वजह से इनसे जुड़े कारीगरों की समस्याएं और भी विकट हो जाती हैं।’’
‘गोकूप’ की नींव रखने से पहले देवीरेड्डी ‘एसेन्चर’ के साथ काम कर रहे थे जहां कई सीएसआर पोजेक्ट्स के नेतृत्व के दौरान ऐसे कारीगरों की स्थिति से इनका सामना हुआ और इन कारीगरों के लिये कुछ करने का विचार इनके दिमाग में आया। दो वर्षों तक इस अवधारणा के पक्ष और विपक्ष के बारे में काफी सोचविचार के बाद आखिरकार उन्होंने अपनी नौकरी छोड़कर इस काम को शुरू कर दिया।
हालांकि उनका यह सफर इतना आसान नहीं था और उन्हें सामने आनी वाली चुनौतियों से निबटने के लिये खुद को तैयार करना था। उनकी प्रारंभिक चुनौती विभिन्न ग्रामीण सहकारी समितियों और ग्रामीण बुनकरों से बातचीत करके उनके काम की जटिलताओं के बारे में जानते हुए उन्हें कंप्यूटर और आॅनलाइन बिक्री की अवधारणा से रूबरू करवाना था। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।
देवीरेड्डी कहते हैं, ‘‘हमनें इन ग्रामीण कामगारों को जागरुक करने के लिये अपना काफी समय और ऊर्जा जागरुकता सत्र आयोजित करने में लगाई। इसी का नतीजा है कि अब हमें निर्माताओं और बुनकरों से इस आॅनलाइन खरीद-बिक्री को लेकर एक अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही है और वे लोग इसे अपना रहे हैं।’’
‘‘इसके अलावा हमारे सामने एक और चुनौती एक ऐसी टीम को तैयार करने की थी जो सामाजिक क्षेत्र के लिये ई-कामर्स को जुनूनी रूप से लागू करने में सक्षम हो। यह वाकई में एक कठिन काम रहा और इस कार्य को लागू करने में अपना सर्वस्व झोंकने वाली टीम को तैयार करना वास्तव में एक बहुत बड़ी चुनौती साबित हुआ। हम पिछले 2 वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद ही एक ऐसी टीम तैयार करने में सफल हो पाए हैं।’’
इनकी टीम देशभर के आंचलिक इलाकों में अपने काम को अंजाम देती है और वहां के लोगों के बीच कंप्यूटर और ई-काॅमर्स के प्रति रुचि पैदा करने के साथ-साथ जागरुकता बैठकों का भी आयोजन करती है। एक बार कारीगर या सहकारी समितियां इनके साथ जुड़ने के लिये तैयार हो जाते हैं तो फिर उनकी एक प्रोफाइल तेयार करते हुए उनके उत्पादों को वेबसाइट पर बिक्री के लिये सूचिबद्ध कर दिया जाता है। किसी भी वस्तु के लिये आॅर्डर मिलने पर वे उत्पादक से संपर्क करते हैं और उत्पाद के निरीक्षण के बाद उसे उपभोक्ता तक पहुंचा दिया जाता है।
फिलहाल इनके 40 प्रतिशत से भी अधिक उपभोक्ता देश के बाहर के हैं और वितरण से संबंधित मुद्दों को लेकर सिर्फ 1 प्रतिशत से भी कम वापसी का ट्रेक रिकार्ड रहा है। ये लोग अपनी वेबसाइट से होने वाले हर सौदे की एवज में कुछ कमीशन लेते हैं और इसके अलावा सदस्यता शुल्क से होने वाली कमाई ही इनका राजस्व का मुख्य स्त्रोत है। फिलहाल इनकी वेबसाइट 170 विक्रेताओं के 10 हजार से भी अधिक उत्पादों को दुनिया के सामने ला रही है।
फिलहाल क्राफ्ट्सविला जैसे अन्य ई-काॅमर्स मंच भी इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं और उम्मीद है कि विस्तार की संभावनाओं को देखते हुए अमेजन और फ्लिपकार्ट जैसे बड़े दिग्गज भी इस बाजार की तरफ अपने कदम बढ़ा दें। हालांकि प्रारंभिक चरणों में ग्रामीण भारत के इदन कारीगरों तक अपनी पहुंच बनाना इन लोगों के लिये थोड़ा मुश्किल हो सकता है। इसके अलावा इसकी भी संभावनाएं हैं कि इन छोटे खिलाडि़यों द्वारा किये जा रहे पर्याप्त व्यापार पर नजर रखते हुए ये बड़े खिलाड़ी कुछ समय बाद इनके अधिग्रहण पर ही विचार करने लगें।