चुनौतियों का डटकर सामना करने और परेशानियों को हराकर आगे बढ़ने का नाम है मृणाल भोसले
राष्ट्रीय बॉक्सिंग प्रतियोगिता में जीता कांस्य...ओलंपिक में भारत के लिए पदक जीतने का रखते हैं सपना..12 साल की उम्र से कर रहे हैं बॉक्सिंग
जो लोग अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए चुनौतियों का डटकर सामना करना सीख जाते हैं उनसे मंजिल भी ज्यादा देर तक दूर नहीं रह सकती। मृणाल भोसले को जनवरी, 2015 जिंदगी भर याद रहेगा। जब उन्होने नागपुर में हुई राष्ट्रीय बॉक्सिंग प्रतियोगिता में कांस्य पदक जीता था। वो भी उस स्थिति में जब वो अपनी चोटों से उबर रहे थे, हादसे के कारण करियर में लंबा ब्रेक आ गया था, ट्रेनिंग की सुविधाएं उनको ना के बराबर मिली थी और वित्तीय स्थिती भी डांवाडोल थी, लेकिन मृणाल ने इन सब परेशानियों को किनारे रखते हुए ये मुकाम हासिल किया।
पदक जीतने के बाद मृणाल को सरकारी नौकरी देने का वादा किया गया था लेकिन वो वादा हवा के झोंके के साथ कही गुम हो गया। आज मृणाल अपने दैनिक जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मृणाल के परिवार में छह सदस्य हैं। उनके पिता सेना की एक वर्कशॉप में मजदूर हैं और उनकी मां घरों में काम करती है। उनकी दो बड़ी बहने हैं जिनमें से एक की शादी हो गई है और दूसरी बहन की हाल ही में पुलिस में नौकरी लगी है। इतना सब होने के बावजूद मृणाल ने अपने सपने का पीछा नहीं छोड़ा है। उनका सपना है ओलंपिक में भारत के लिए पदक जीतना।
मृणाल के मुताबिक जब वो छोटे थे तो स्कूल के बाद वो खाली रहते थे तब उनके माता-पिता ने उनसे कहा कि वो अपना ध्यान खेल या दूसरे क्षेत्र में लगाये। तो उन्होने खेल को चुना, लेकिन उनका परिवार खेल में इस्तेमाल होने वाले मंहगे सामान को नहीं खरीद सकते थे। इसी दौरान मृणाल के एक जानकार ने उनको बॉक्सिंग करते हुए देखा तो उन्होने उसे इस खेल में अपना करियर बनाने की सलाह दी। क्योंकि इसमें खर्चा कम और अच्छा करियर भी था। 12 साल की उम्र से मृणाल अपने इस खेल में जुट गए। शुरूआती दिनों से ही मृणाल अभ्यास सत्र में हिस्सा लेते और खिलाड़ियों से मेलजोल बढ़ाते। जहां पर उनको महसूस हुआ कि इस खेल में अच्छा खासा नाम कमाया जा सकता है।
अब उनके सामने मंजिल तक पहुंचने के लिए सीधा रास्ता था। इसके लिए वो रात दिन खूब अभ्यास करते, लेकिन साल 2008 में एक सड़क हादसे में उनके पैर में चोट लग गई इस कारण उनका कुछ समय के लिए इस खेल से नाता टूट गया। साल 2010 में जब वो वापस रिंग में लौटे तो जूनियर स्तर में अपनी उम्र की सीमा को पार कर चुके थे। अब उनको अपना भविष्य अंधकारमय दिखने लगा। तभी उनकी मुलाकात 2010 के कॉमनवेल्थ खेलों में स्वर्ण पदक विजेता मनोज कुमार और देश के लिए बॉक्सिंग में पहला पदक लाने वाले विजेंदर सिंह से हुई। इन लोगों ने मृणाल को ना सिर्फ खेलने की प्रेरणा दी बल्कि उसे सही दिशा भी दिखाई। इनसे मिलने के बाद मृणाल ने फैसला लिया वो सीनियर वर्ग में ही सही लेकिन फिर से रिंग में लौटेगा।
मृणाल के मुताबिक उसने पदक पाने के लिए अपना सबकुछ झोंक दिया था उसने ना सिर्फ शारीरिक तौर पर बल्कि मानसिक तौर पर भी तय कर लिया था कि वो यहां से मेडल लेकर ही लौटेगा। उनको मालूम था कि अगर वो यहां जीते तो उनको सरकारी नौकरी मिल सकती है। जो उनके जीवन में वित्तीय स्थिरता ला सकती है। उन्होने रेलवे की टीम को भी देखा था जो घंटो अभ्यास में जुटे रहते थे और यही चीज मृणाल अपने साथ जोड़ना चाहते थे। इससे पहले जब भी मृणाल किसी सरकारी नौकर के लिए आवेदन करते तो उनको बोला जाता कि उनकी उम्र ज्यादा है, लेकिन अब पदक जीतने के बाद उम्मीद बंधी है कि उनको सरकारी नौकरी मिल जाएगी। हालांकि अब भी वो नौकरी की तलाश में हैं। मृणाल अपनी स्नातक की डिग्री पाने के करीब है क्योंकि वो जानता है कि किसी भी नौकरी के लिए ये जरूरी है। मृणाल के मुताबिक जब भी परीक्षाएं होती हैं तो उस वक्त कोई ना कोई टूर्नामेंट चल रहा होता है ऐसे में वो परीक्षाएं नहीं दे पाता। मृणाल की तारीफ उसके सीनियर भी करते हैं बावजूद इसके वो पढ़ाई के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहता। उसकी तमन्ना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलने की है।
मृणाल मानते हैं कि देश में क्रिकेट की तरह और खेलों को बढ़ावा नहीं मिला। उनके मुताबिक आईपीएल बहुत बड़ा है जहां काफी पैसा है। यहां पर मौका मिलता है युवा प्रतिभाओं को, लेकिन जो लोग टीम बनाते हैं वो खेलते नहीं हैं बल्कि पैसा कमाते हैं। ऐसा बॉक्सिंग में दिखाई नही देता। मृणाल का कहना है कि बॉक्सिंग में ज्यादातर गरीब लोग आते हैं लेकिन इनमें से ज्यादातर को इसलिए ये खेल छोड़ देना पड़ता है क्योंकि लंबे वक्त तक खेलने के लिए उनके पास पैसा नहीं होता। मृणाल का कहना है कि सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए और ऐसे गरीब खिलाड़ियों की आर्थिक मदद करनी चाहिए। उनके मुताबिक देश में टेलेंट की कमी नहीं है। जो अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत के लिए पदक जीत सकते हैं।
मृणाल का कहना है कि जो भी खिलाड़ी इस खेल को बीच में छोड़ देते हैं, उसकी तीन वजहें हैं पहली सुविधाओं का अभाव, वित्तीय स्थिरता और चोट लगने के बाद इलाज का खर्च। मृणाल का कहना है कि उनके कंधों में चोट लग गई थी बावजूद उन्होने अपने सपने को नहीं छोड़ा क्योंकि ये सपना उन्होने तब देखा था जब उनके कोच का निधन हो गया था। इसके बाद उन्होने अपने सीनियर से बॉक्सिंग के गुर सिखे। आज मृणाल अपने बचे हुए वक्त में छोटे बच्चों को कोचिंग देते हैं। आज मृणाल को ना सिर्फ महाराष्ट्र में बल्कि देश भर मे लोग जानते हैं। अब वो चाहते हैं कि जो काम मनोज कुमार ने उनके लिए किया वैसा ही कुछ वो दूसरों के लिए करें।
भविष्य में मृणाल चाहते हैं कि वो जहां पर कोचिंग ले रहे हैं वहां पर दूसरों को भी कोचिंग दें क्योंकि उनके कोच का यही सपना था। मृणाल को इंतजार है अपने सपनों को पूरा करने के लिए किसी प्रायोजक का। फिलहाल मिलाप नाम की संस्था मृणाल के खर्चों को पूरा करने के लिए पैसा जुटा रही है।