'Industree Crafts Foundation', दम तोड़ती हस्तशिल्प कला के लिए वरदान
किसानों, कारीगरों, बुनकरों और शिल्पकारों को उद्यम स्वामियों के रूप में विकसित करने में करते हैं मददनीलम छिब्बर, गीता राम और पूनम बीर कस्तूरी ने वर्ष 1994 में की थी स्थापनासमकालीन हस्तशिल्प उत्पादों की बिक्री करने के उद्देश्य से की थी इंडस्ट्री क्राफ्ट्स फाउंडेशन की स्थापना
Industree Crafts Foundation (इंडस्ट्री क्राफ्ट्स फाउंडेशन) के सीईओ जैकब मैथ्यू कहते हैं, ‘‘नीलम छिब्बर के साथ विवाह के बंधन में बंधने के बाद सामाजिक उद्यमिता के क्षेत्र में मेरी रुची बढ़ी। छिब्बर ने वर्ष 1994 में गीता राम और पूनम बीर कस्तूरी के साथ मिलकर समकालीन हस्तशिल्प उत्पादों की बिक्री करने के उद्देश्य से इंडस्ट्री क्राफ्ट्स की स्थापना की। छिब्बर और कस्तूरी ने इंडस्ट्री क्राफ्ट्स को कारीगरों और परिवारों के असंठित क्षेत्र में काम करने वाले उद्यम के रूप में स्थापित किया। जल्द ही ये इसकी दो अन्य शाखाओं को भी को भी तैयार करने में सफल रहीं। पहली वर्ष 2009 में स्थापित की गई ‘मदर अर्थ’ एक ऐसा नाम है जिससे शायद ही बैंगलोर का कोई निवासी अपरिचित हो और दूसरी है ‘इंडस्ट्री क्राफ्ट्स फाउंडेशन’ जो वर्ष 2000 में स्थापित किया गया इनके संगठन का गैर-लाभकारी साथी है।
इंडस्ट्री फाउंडेशन किसानों, कारीगरों, बुनकरों और शिल्पकारों को उद्यम स्वामियों के रूप में विकसित करने में उनकी मदद के लिये उनके साथ काम करता है। इंडस्ट्री क्राफ्ट्स फाउंडेशन और एक निजी संस्था इंडस्ट्री क्राफ्ट्स प्राइवेट लिमिटेड एक साथ मिलकर अपने कामों को अंजाम देते हैं।
मैथ्यू कहते हैं, ‘‘इस काम को करने के लिये आपको जिस की सबसे अधिक जरूरत होती है वह है धैर्य।’’ भारत की शताब्दियों पुरानी हस्तशिल्प की कला और उसके उद्योग को जानने के अलावा इसके असंगठित क्षेत्र के रूप चिन्हित होने के परिणामों को समझने का धैर्य। 14वीं शताब्दी और उसके बाद के समय के दौरान भारत के दक्षिणी इलाकों और पश्चिमी एशिया के बीच पारस्परिक व्यापारिक संबंध थे। भारत और पश्चिमी एशिया के बीच प्राचीन समय में होने वाले समुद्री लेन-देन के अवशेष तटीय आबादी के आनुवाशिक लक्षणों में आज भी स्पष्ट प्रदर्शित होती है। 14वीं शताब्दी से पहले के समय में भी भारतीय संस्कृति के साथ अरब और फारसी दार्शनिकों के बीच होने वाला बौद्धिक विचार-विमर्श इस्लामिक गोल्डन एज को प्रभावित करने वाला रहा है। खुले दिमाग से देखा जाए तो वैश्विक स्तर पर भारत हमेशा से ही एक अजेय प्रभावक रहा है। 1700 का दशक आते-आते दुनिया की आय (जीडीपी) में भारत की हिस्सेदारी करीब 22.6 प्रतिशत थी। वर्ष 1952 में यह हिस्सेदारी सिमटकर मात्र 3.8 प्रतिशत तक रह गई। आर्थिक क्षेत्र में भारत का गिरता स्तर ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के दौरान भी जारी रहा। मैथ्यू कहते हैं, ‘‘औद्योगिक क्रांति के दौर से पहले सब वस्तुओं का निर्माण हाथ से किया जाता था। एक सवाल जो पूछे जाने की बेहद आवश्यकता है वह यह है कि अगर आप दुनिया की जीडीपी के 22.6 प्रतिशत हिस्से की आपूर्ति कर रहे हैं तोे क्या हमें संगठित होने की जरूरत नहीं थी?’’
वे जारी रखते हुए कहते हैं, ‘‘इस काम के लिये निश्चित तौर पर शिपिंग और लाॅजिस्टिक्स से संबंधित कुछ संगठनों की बेहद आवश्यकता रही होगी और भी वर्तमान समय में मौजूद तकनीकी संसाधनों की गैरमौजूदगी में। मैं इस विचार पर सवाल उठाना चाहूंगा कि यह क्षेत्र असंगठित माना और कहा जाता है। अगर आप यह देखें और जानने का प्रयास करें कि अंग्रेजों के राज के समय क्या हुआ तो आपको मालूम हागा कि उस दौरान उनके द्वारा संगठित उत्पादन को नष्ट करने का पूरा-पूरा प्रयास किया गया।’’ अंग्रेजी सत्ता की विनाशकारी शक्ति के बारे में बताते हुए मैथ्यू वर्ष 1895 के नील विद्रोह का उदाहरण देते हैं। उस समय नील बागानों के मालिकानों ने अंग्रेज सरकार के साथ मिलकर यूरोपीय बाजार में नील की बढ़ती हुई मांग को पूरा करने ता के लिये छोटे किसानों के साथ बहुत कम कीमत के सौदे किये जिसकी वजह से इन किसानों को भारी नुकसान भुगतना पड़ा और उनके खेती छोड़ने की नौबत आ गई।
जैकब अपनी बात को जारी खते हुए आगे कहते हैं, ‘‘आज के समय तक सिर्फ वहीं बचने में कामयाब रहा है जो कुछ घरों से संचालित हो रहा था।’’ यह एक आश्चर्यतनक तथ्य है कि वर्तमान में इंडस्ट्री जिन हथकरघा बुनकरों के साथ काम कर रहा है वे प्रारंभिक दौर में अपने घर से ही काम कर रहे थे। मैथ्यू कहते हैं, ‘‘आज जब हम हथकरघा उद्योग को संगठित समूह में लाने के विचार के बारे में बात करते हैे तो हमारा प्रतिरोध किया जाता है।’’ इसका मुख्य कारण एक हस्तशिल्प कारीगर बने रहने के अर्थशास्त्र में निहित है। ‘‘बुनकर का काम करने वाले अधिकतर पुरुष हैं लेकिन रंगाई, यार्न की छंटाई इत्यादि का काम अधिकतर महिलाओं के हाथों में है। आधे से भी अधिक काम तो महिलाओं के द्वारा किया जाता है और उन्हें उस काम के बदले कुछ भी प्राप्त नहीं होता है।’
मैथ्यू कहते हैं, ‘‘आप एक ऐसी स्थिति में उत्पादित माल के मूल्य का आंकलन कैसे कर सकते हैं जब उसका उत्पादन मूल्य उसे तैयार करने में शामिल लोगों के श्रम का पूरा मूल्य नहीं दे पाने में सक्षम रहा हो और जहां श्रम का एक हिस्सा तो बिल्कुल ही मुफ्त हो? अगर आप इस उद्योग को संगठित और व्यवस्थित कर देते हैं तो बुनकर की पत्नी इत्यादि जैसा प्रत्येक व्यक्ति अपपने काम के बदले भुगतान का अधिकार प्राप्त कर लेगा। इस प्रकार उत्पाद की लागत में भारी उछाल आ जाने की संभावना है। यह बिल्कुल उस प्रकार की समस्या है कि पहले अंडा आया या मुर्गी।’’
मैथ्यू का मानना है कि यहां पर एक बहुत ही प्रासंगिक सवाल उठता है कि इस पूरी व्यवस्था में किसको क्या हासिल होता है? और इसी दौरान ‘बिचैलियों’ से संबंधित सबसे विवादास्पद सवाल सामने आता है। आज के इंटरनेट के युग में जहां उत्पादक और उपभोक्ता आपस में आसानी से संवाद कर संबंध स्थापित कर सकते हैं बिचैलियों को 21वीं सदी का राक्षस समझा जाता है। हालांकि मैथ्यू कहते हैं, ‘‘बिचैलियों की आवश्यकता है। हमें यह स्पष्ट कर देना वाहिये। वास्तव में सवाल यह है कि कितने बिचैलिये और वे कार्यप्रणाली को कितना प्रभावित करने में सक्षम हों?’’ मैथ्यू बिचैलियों की इस समस्या पर गहनता से विचार करने पर इसलिये जोर देते हैं क्योंकि कई बिचैलिये अब फाइनेंसर कई प्रकार से व्यापार पर प्रभाव डालने वाली स्थितियों में हैं। ‘‘जिस क्षण वे पैसा उपलब्ध करवाते हैं उसी क्षण वे नियंत्रण की स्थिति में आ जाते हैे।’’ उदाहरण के लिये मैक्यू के कुछ छात्रों ने कच्छ के छोटे रण में नमक की खेती करने वाले किसानों जिन्हें अगरिया कहा जाता है का अध्ययन करने के लिये एक परियोजना पर काम किया। ‘‘नमक हम लोगों को करीब 10 रुपये प्रतिकिलो के दाम पर उपलब्ध है। कच्छ के छोटे रण में नमक के ऐसे उत्पादक हैं जो अपने नमक को 70 रुपये प्रति टन की दर पर बेचते हैं। ये वे लाोग हैं जिन्हें बेहद कठिन परिस्थितियो में काम करना पड़ता है जब उत्पादन अपने चरम पर होता है तब इन्हें 50 डिग्री के बेहद गर्म तापमान तक में काम करना पड़ता है।’’ फाइनेंसर मूलतः ईंधन, भोजन और खेती के लिये पानी को वित्तपोषित कर इनकी उत्पादन लिागत को कुछ हद तक कम करने में मदद करत है। ‘‘आप और हम इस नमक को खरीदने के लिये जितना पैसा अदा कर रहे हैं और इन किसानों को जो मूल्य मिल रहा है उसमें जमीन-आसमान का अंतर है।’’ बिचैलियों को कम करने का सीधा संबंध इन गरीब किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारने से है।
मैथ्यू को लगता है कि सामाजिक उद्यम के साथ काम करने में सबसे बड़ी दिक्कत उस समस्या से पार पाने की है जिसे आमतौर पर ‘दुष्ट समस्या’ के नाम से जाना जाता है। यह मुख्यतः विभिन्न समस्याओं के लिये एक उचित समाधान खोजने में असर्थता से अधिक कुछ नहीं है जैसे समस्या का स्तर, दूसरी समस्याओं के समाधान के साथ उस समस्या का जुड़ाव और किसी समस्या से खुद ही पार पाने की क्षमता में असमर्थता। ‘‘बहुत बार लोग सामाजिक उद्यमिता के क्षेत्र में ऐसे कूद पड़ते हैं जैसे हथौड़ा कीलों की तलाश में रहता है। वर्तमान में प्रौद्योगिकी बहुत दक्ष है और हो सकता हैै कि उनकी व्यापार की अवधारणा बहुत बेहतरीन हओ लेकिन इसके बावजूद उन्हें उसे लागम करने के लिये इधर-उधर घूमना पड़ता है और जहां वह फिट होता है वहां रुकना होता है।’’
हालांकि मैथ्यू के अनुसार सबसे कठिन समस्या उन शिल्पकारों और कारीगरों को समझने में आती है जिनकी आप मदद करने का प्रयास कर रहे हैं। अंबेडकर ने एक बार कहा था कि भारतीय गांव अपनी ही स्थानीयता और गरीबी की अज्ञानता की एक दुनिया में फंसे हुए हैं।
‘‘हमें लगता है कि शिल्प का खात्मा होने जा रहा है। हमें इन कारीगरों और शिल्पकारों के लिये एक बाजार तैयार करना होगा ताकि ये अपने काम को करते रह सकें। लेकिन जब आप अपने उद्यम में मानवीय आयाम ले आते हैं तो यह लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने के बारे में हो जाता है।’’ और कई बार ये आकांक्षाएं उद्यम के मालिक के चाहने से इतर भी हो जाती हैं। अब से कुछ महीने पहले ही मैथ्यू की मुलाकात मीनाकारी के एक शिल्पकार से हुई। उनकी आकांक्षा? ‘‘मैं क्यों सिर्फ 2 हजार रुपये कमाऊँ? मैं क्यों 10 हजार रुपये नहीं कमा सकता?’’ इस बिंदु पर शायद हर उद्यमी को स्वयं से सिर्फ यही एक सवाल करना चाहिये कि क्या एक दम तोड़ती कला को एक छोटे से समुदाय की व्यक्तिगत आकांक्षाओं की कीमत पर बचाने की आवश्यकता है?