तेलंगाना के इस शख्स को एक करोड़ से अधिक पेड़ लगाने का जुनून
राष्ट्रपति के हाथों हो चुके हैं पुरस्कृत
आज पर्यावरण संरक्षण का भगीरथ प्रयास कर रहे हैं तेलंगाना के बुजुर्ग दरिपल्ली रमैया। लोग उनको ‘ट्री मैन’ कहते हैं। उन्होंने अपना जीवन पूरी तरह वृक्षों के लिए समर्पित कर दिया है। एक करोड़ से अधिक पौधे रोपकर वह अपनी इस वृक्ष-साधना के लिए केंद्र सरकार से पद्मश्री का सम्मान भी पा चुके हैं। कभी लोग उन्हें सनकी-पागल कहते थे, आज उनके सामने श्रद्धा से झुक जाते हैं।
पौध रोपण के लिए मां से संस्कारित दरिपल्ली रमैया जब वक्त के साथ बड़े हुए, स्कूल जाने लगे, पौधों के बीज जुटाने में मां के साथ उनसे छूटने लगा। अब वह स्कूल की किताबों और अपने शिक्षकों पौधों की उपयोगिता के किस्से जानने-सुनने लगे। तभी उन्होंने ठान लिया था कि वह किसी भी कीमत पर पौधों की रक्षा करेंगे।
पर्यावरण संरक्षण को लेकर भारत के प्रयासों को संयुक्त राष्ट्र ने अत्यधिक उत्साहजनक बताया है। ग्लोबल वार्मिंग का मतलब है कि पृथ्वी लगातार गर्म होती जा रही है। वैज्ञानिकों का कहना है कि आने वाले दिनों में सूखा बढ़ेगा, बाढ़ की घटनाएँ बढ़ेंगी, मौसम का मिज़ाज पूरी तरह बदला हुआ दिखेगा। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के कार्यकारी निदेशक इरिक सोलहिम का कहना है कि इसीलिए वर्ष 2018 में विश्व पर्यावरण दिवस (थीम - ‘प्लास्टिक प्रदूषण की समाप्ति’) का वैश्विक मेजबान भारत है। यह बाकी दुनिया के लिए एक सबक भी है। संपूर्ण विश्व की मानवता के लिए पर्यावरण सुरक्षा आज की सबसे बड़ी जरूरत है। पर्यावरण संरक्षण में हरे-भरे वृक्ष आदि काल से हमारे सबसे विश्वसनीय मित्र रहे हैं। वैदिक वाङ्मय में प्रकृति के प्रत्येक अवयव के संरक्षण और सम्वर्धन के निर्देश मिलते हैं।
हमारे ऋषि-मुनि जानते थे कि पृथ्वी का आधार जल और जंगल हैं। इसीलिए उन्होंने पृथ्वी की रक्षा के लिए वृक्ष और जल को महत्वपूर्ण मानते हुए कहा है- 'वृक्षाद् वर्षति पर्जन्य: पर्जन्यादन्न सम्भव:।' भारतीय संस्कृति में प्रकृति पूजा को केंद्रीय मान्यता है। भारत में पेड़-पौधों के साथ मानवीय रिश्ते जोड़े गए हैं। पेड़ की तुलना संतान से की गई है। घर में तुलसी रोपने के उद्देश्य औषधीय है। पीपल को देवता माना जाता है। बिल्व-पत्र और धतूरे से शिव प्रसन्न होते हैं। सरस्वती को पीले फूल, लक्ष्मी को कमल और गुलाब के फूल, गणेश को दूर्वा पसंद है। मकर संक्रान्ति, वसंत पंचमी, महाशिवरात्रि, होली, नवरात्र, गुड़ी पड़वा, वट पूर्णिमा, ओणम्, दीपावली, कार्तिक पूर्णिमा, छठ पूजा, शरद पूर्णिमा, अन्नकूट, देव प्रबोधिनी एकादशी, हरियाली तीज, गंगा दशहरा आदि सभी पर्व प्रकृति संरक्षण का संदेश देते हैं।
आज पर्यावरण संरक्षण में ऐसा ही एक भगीरथ प्रयास कर रहे हैं खमाम (तेलंगाना) के गांव रेड्डीपल्ली के बहत्तर वर्षीय बुजुर्ग दरिपल्ली रमैया। लोग उनको ‘ट्री मैन’ कहने लगे हैं। उन्होंने अपना जीवन पूरी तरह से वृक्षों के संरक्षण में समर्पित कर दिया है। एक करोड़ से अधिक पेड़ लगाकर वह अपनी इस वृक्ष-साधना के लिए केंद्र सरकार से पद्मश्री अवार्ड पा चुके हैं। इसी तरह इस साल शहीदी दिवस पर मेरठ के बेड़ा किशनपुर निवासी दो युवाओं राहुल गोस्वामी और सौरभ नागर ने पर्यावरण संरक्षण के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में एक लाख पौधे बांटने का संकल्प लिया।
वे घूम-घूमकर गुलाब, गुड़हल, पोतल पॉम, सिल्वर यूका, नामबोर, पत्थर चट्टा के पौधे रोपने के साथ ही ग्रामीणों को जागरूक भी कर रहे हैं। ट्री मैन दरिपल्ली रमैया के लिए वृक्षारोपण उनका जुनून बन चुका है। जब वह अपना सारा काम-काज छोड़कर इस दिशा में शुरू-शुरू में पहल कर रहे थे, लोग उन्हें 'सनकी-पागल' कहकर उनकी खिल्ली उड़ाते थे। जब उन्हें पद्मश्री अवार्ड मिला, तब लोगों की आंखें खुलीं और रमैया की वृक्ष-साधना का महत्व समझ में आने लगा। अब तो उनको 'एकेडमी ऑफ यूनिवर्सल ग्लोबल पीस' से डॉक्टरेट की उपाधि भी मिल चुकी है।
ट्री मैन दरिपल्ली रमैया के इस जुनून की अपनी एक अलग व्यथा-कथा है। बचपन में दरिपल्ली अपनी मां के हर काम को बड़े ध्यान से देखा करते थे। मां भी उन्हें पौधारोपण आदि तरह-तरह की सीख दिया करतीं। दरिपल्ली देखते कि मां कैसे फलों, सब्जियों के बीजों को संभाल कर रखती है। वह संस्कार उनके मन पर जड़ें जमा बैठा। इसके बाद उनको पर्यावरण में तेजी से घुलते प्रदूषण के जहर ने अचंभित और क्षुब्ध किया। बाद में उन्हें पता चला कि इससे निपटने में वृक्ष भी एक कारगर शस्त्र हो सकते हैं। वन माफिया के कारनामों ने उन्हें विचलित किया तो उन्होंने सोचा कि क्यों न एकला चलो के अंदाज में वह स्वयं अपना स्वयं का वृक्षारोपण अभियान शुरू कर दें। इसके लिए उन्होंने खुद का एक तरीका सोचा। अपने पॉकेट में बीज और साइकिल पर पौधे लादकर वह वृक्ष-दिग्विजय पर निकल पड़े।
पौध रोपण के लिए वह साइकिल से दूर-दूर तक यात्राएं करने लगे। इस सफर में उन्हें जहां भी खाली जमीन दिख जाए, पौधे रोपकर वहां से आगे बढ़ जाते। सबसे पहले उन्होंने अपने गांव रेड्डीपल्ली के पूर्व और पश्चिम दिशाओं में चार-चार किलो मीटर दूर तक के इलाके को नीम, बेल, पीपल, कदंब आदि के दो-ढाई हजार पौधे रोपकर हराभरा कर डाला। इस दौरान वह सिर्फ पौध रोपण ही नहीं, उनकी देख-भाल रखवाली भी करते रहे। कोई पौधा सूख जाता तो उसकी जगह वही दूसरा पौधा रोप जाते। इन पौधों के प्रति उनका वैसा ही अनुराग होता, जैसा मां का अपनी संतान से, किसान का अपनी फसल से अथवा वैज्ञानिक का अपने अनुसंधान से। यह सब करते-करते आज वह स्वयं में एक वृक्ष-विश्वकोष बन चुके हैं। उनको तरह-तरह की पौध-प्रजातियों एवं उनसे होने वाले लाभ की भी पूरी जानकारी है। वह पेड़-पौधों पर फोकस किताबें पढ़ने के भी शौकीन हैं। आज उनके पास सात-आठ सौ वृक्षों के बीजों का अनूठा संग्रह भी हैं।
ट्री मैन दरिपल्ली रमैया कितनी महत्वपूर्ण साधना कर रहे हैं, इसे ग्लोबल वार्मिंग से होने वाले भविष्य के खतरों को जानकर आसानी से समझा जा सकता है। वैज्ञानिक ग्लोबल वार्मिंग 21वीं सदी का विश्वयुद्ध से भी बड़ा खतरा बता रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के लिये सबसे अधिक जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैस हैं। वैज्ञानिक बताते हैं कि ग्रीन हाउस गैसों का इस्तेमाल सामान्यतः अत्यधिक सर्द इलाकों में उन पौधों को गर्म रखने के लिये किया जाता है जो अत्यधिक सर्द मौसम में खराब हो जाते हैं। ऐसे में इन पौधों को काँच के एक बंद घर में रखा जाता है और काँच के घर में ग्रीन हाउस गैस भर दी जाती है। यह गैस सूरज से आने वाली किरणों की गर्मी सोख लेती है और पौधों को गर्म रखती है। ठीक यही प्रक्रिया पृथ्वी के साथ होती है। सूरज से आने वाली किरणों की गर्मी की कुछ मात्रा को पृथ्वी द्वारा सोख लिया जाता है। इस प्रक्रिया में हमारे पर्यावरण में फैली ग्रीन हाउस गैसों का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
वृक्षारोपण ग्लोबल वार्मिंग के महान समाधानों में से एक हो सकता है। सिंथेसिस की प्रक्रिया के दौरान पेड़ न केवल ऑक्सीजन देते हैं बल्कि कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं, जो कि ग्लोबल वार्मिंग का मुख्य स्रोत है। पौध रोपण के लिए मां से संस्कारित दरिपल्ली रमैया जब वक्त के साथ बड़े हुए, स्कूल जाने लगे, पौधों के बीज जुटाने में मां के साथ उनसे छूटने लगा। अब वह स्कूल की किताबों और अपने शिक्षकों पौधों की उपयोगिता के किस्से जानने-सुनने लगे। तभी उन्होंने ठान लिया था कि वह किसी भी कीमत पर पौधों की रक्षा करेंगे। उन्होंने दसवीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी। कंधे पर थैले में बीच और पौधे लेकर वह जहां-तहां घूमने लगे। बंजर जमीनें पौधों से आबाद करने लगे। चुपचाप एक-अकेले वह ये काम करते गए, बिना किसी की मदद के।
उनके परिचित, दोस्त-मित्र, सगे-संबंधी उनका मजाक बनया करते। पागल कहते लेकिन उनका जुनून और बढ़ता गया। उन्हें खुद पूरी तरह तसल्ली थी कि वह पूरी मानवता को बचाने का एक महान काम कर रहे हैं। इससे अधिक उन्हें कुछ नहीं जानना था, न किसी की ऊलजुलूल बातों पर वह ध्यान देना जरूरी समझते थे। इसी दौरान उनकी शादी हो गई। पत्नी से भी उनके मिशन को मदद मिलने लगी। शादी के सालगिरह पर पौध रोपण का अनुरंजन भी उनका अनूठा प्रयोग रहा। उनकी उम्र बढ़ती गई और पौधरोपण का शौक भी। दरिपल्ली और कुछ नहीं, बस अपने लगाए हर पौधे को पेड़ बनते देखना चाहते थे। अब तक उनका एकला चलो मिशन पचास साल का हो चुका है। वह बूढ़े हो चुके हैं और अब तक एक करोड़ से अधिक पौध रोपकर उनका मिशन जवान हो गया है।
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