सभी साहित्य प्रेमियों को अखरेगा विष्णु खरे का अचानक चले जाना
हाल के महीनों, वर्षों में एक-एक कर हिंदी के कई विलक्षण कवि-साहित्यकारों का देहावसान, वीरेन डंगवाल, नीलाभ, पंकज सिंह, कुँवर नारायण चन्द्रकान्त देवताले, केदारनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह, और अब विष्णु खरे का भी हमेशा के लिए चले जाना, अवर्णनीय-असहनीय दुख देता है। यह सबसे अलग-दुर्धर्ष, स्वाभिमानी, सचमुच खरे-खुरदरे विष्णु खरे का जाना इस दौर की एक ऐसी शख्सियत की रिक्तता है, जो अपने लेखन से वक्त की नब्ज थामे आजीवन संघर्षरत रहे।
विष्णु खरे ने कविताएँ सिर्फ लिखी ही नहीं, बल्कि अपने बाद में आने वाले कवियों की कई पीढ़ियों को प्रभावित किया है। अकेले मुक्तिबोध ही हैं, जिनसे किसी हद तक उनकी तुलना सम्भव है।
सुप्रसिद्ध कवि एवं पत्रकार और हिंदी एकेडमी के उपाध्यक्ष विष्णु खरे ने बुधवार को दिल्ली के जीबी पंत अस्पताल में अंतिम सांस ली। ब्रेन हेमरेज की वजह से उनका निधन हुआ। ख्यात कवि पंकज चतुर्वेदी कहते हैं, भूलने की बात नहीं कि यह विष्णु खरे का वक्तव्य है- 'रामचन्द्र शुक्ल नहीं, मुक्तिबोध हिंदी के सबसे बड़े आलोचक हैं।' इसकी मुख्य वजह है कि मुक्तिबोध भारत के विशालतर दबे-कुचले, उत्पीड़ित जन-समाज की मुक्ति के विचारक हैं; जबकि शुक्ल अपनी सारी सदिच्छा के बावजूद उसे घिसी-पिटी मर्यादाओं के अनुशासन में जकड़े रहने की शास्त्रानुमोदित रणनीति के सिद्धान्तकार।
विष्णु खरे ने कविताएँ सिर्फ लिखी ही नहीं, बल्कि अपने बाद में आने वाले कवियों की कई पीढ़ियों को प्रभावित किया है। अकेले मुक्तिबोध ही हैं, जिनसे किसी हद तक उनकी तुलना सम्भव है। मुक्तिबोध की तरह ही विष्णु खरे सिर्फ सच का ईमानदारी से पीछा करती कविताओं के कारण ही नहीं, बल्कि अपनी एकदम मौलिक किस्म की टिप्पणियों के लिए भी जाने गए। उन्होंने जितना काम किया, जितनी विधाओं में किया, उसे देखकर आप विस्मय में पड़ जा सकते हैं। वे कबीर, निराला और मुक्तिबोध के बाद हिंदी के आखिरी मूर्तिभंजक थे, जो अपने शब्दों के साथ हमेशा हम लोगों के बीच रहेंगे।यह महज संयोग ही है कि जब उन्हें स्ट्रोक आया, तब वह अकेले थे। विष्णु जी का पूरा परिवार मुंबई में है, लेकिन उन्हें मुंबई कभी रास नहीं आया। वह परिवार के साथ मुंबई चले जरूर गए थे, लेकिन दिल्ली वापस आने का मौका तलाशते रहते थे। उन्होंने अपनी जिंदगी के 50 साल इसी शहर में गुजारे थे। गिरिधर राठी कहते हैं कि खरे हिंदी में शायद इकलौते आदमी थे, जो इतनी भाषाएं जानते थे - चेक, जर्मन, अंग्रेजी, ऊर्दू, हिंदी, मराठी और शायद बांग्ला भी। संगीत में गहरी दिलचस्पी थी। हां, वह स्वभाव से ऐसे व्यक्ति नहीं थे, जो आसानी से हर किसी के साथ घुल-मिल जाए।
जाने-माने लेखक प्रियदर्शन के शब्दों में - 'विष्णु खरे बीहड़ विलक्षण व्यक्तित्व के मालिक थे। हिंदी भाषी समाज की बची-खुची उत्कृष्टता के मानक होते जा रहे थे। वे हिंदी की उन विरल शख्सियतों में रह गए थे, जो एक साथ कई विधाओं और क्षेत्रों में दख़ल रखते थे। वे बिल्कुल नए और युवा लेखकों को भी ध्यान से पढ़ते थे और उन पर अच्छी-बुरी टिप्पणी देने में गुरेज़ नहीं करते थे। अंतरराष्ट्रीय कविता में भी उनकी गति और पकड़ पर्याप्त समृद्ध थी और अलग-अलग भाषाओं के नए-पुराने कवियों से उनका परिचय किसी को आश्चर्य में डाल सकता था। वे खासकर सिनेमा की विषय-वस्तु पर अनूठे ढंग से लिखते थे। हिंदी लेखन और साहित्य की परंपरा पर तो उनकी पकड़ अचूक थी ही। सबसे बड़ी बात- वह संवाद में भरपूर यकीन रखते थे। यह यक़ीन अच्छी-मीठी बातों वाला दिखाऊ यकीन नहीं था, बल्कि बहुत सख़्त असहमतियों को सख़्त ज़ुबान में रख सकने वाला यक़ीन था। वे इस लिहाज से बिल्कुल बेलाग-बेपरवाह कवि-लेखक-पत्रकार थे।'
करीब दो दशक पहले दिल्ली में पत्रकारिता के एक सेमिनार में उन्होंने कई बड़े संपादकों की उपस्थिति में उनकी धज्जियां उड़ाई थीं। ऐसे अवसर अनेक होते थे, जब वे अपनी कटुता को अपने प्रखर हास्यबोध के साथ जोड़ते हुए सामने वाले पर बिल्कुल कशाघात करते थे। इस लिहाज से वे हिंदी के दुर्वासा जैसे थे लेकिन उनका असल मोल उनकी कविता में निहित था। हिंदी की समृद्ध काव्य परंपरा में उनका योगदान बहुत अलग से है। उनकी कुछ कविताएं तो अपने प्रकाशन के साथ ही लगभग क्लासिक हो गईं। 'लालटेन जलाना', 'सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा', 'लड़कियों के बाप' जैसी कविताएं इस श्रेणी में रखी जा सकती हैं। वे लगभग नामुमकिन लगते विषयों पर कविता लिख सकते थे। उनकी एक कविता अज्ञेय से मिलने गए रघुवीर सहाय के बारे में है। खास बात ये है कि वे बिल्कुल अकाव्यात्मक शिल्प में- लगभग अख़बारी ख़बर की तरह- कविता लिखते थे। एक तरह की तनी हुई तटस्थता, निर्लिप्तता और निर्ममता उनका काव्य विधान बनाती थी। जैसे वे कविता नहीं लिख रहे, तथ्य रख रहे हों और अचानक इन तथ्यों के बीच छुपी काव्यात्मकता को वे उजागर कर देते हों।
विष्णु खरे की प्रकाशित प्रमुख कृतियां हैं - मरुप्रदेश और अन्य कविताएँ, विष्णु खरे की कविताएँ, ख़ुद अपनी आँख से, सबकी आवाज़ के पर्दे में, पिछला बाक़ी, काल और अवधि के दरमियान आदि। उन्होंने कई पुस्तकों के हिंदी से अंग्रेजी में और अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किए, जैसे - दि पीपुल एंड दि सैल्फ, डेअर ओक्सेनकरेन, यह चाकू समय, हम सपने देखते हैं, काले वाला, डच उपन्यास 'अगली कहानी' (सेस नोटेबोम), हमला, दो नोबल पुरस्कार विजेता कवि आदि। वह कई प्रतिष्ठित मंचों पर समादृत किए गए, मसलन, फ़िनलैंड का राष्ट्रीय 'नाइट ऑफ द व्हाइट रोज़' सम्मान, शिखर सम्मान, हिन्दी अकादमी सम्मान, रघुवीर सहाय सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान आदि। वह खासकर नवोदित रचनाकारों पर नजर रखते थे। पत्र-पत्रिकाओं या ब्लॉग्स पर कविताएं पढ़कर पसंद आने पर बिना हिचक फोन अथवा मेल करते, बदले में कोई उम्मीद भी नहीं करते। इस जल्दबाजी और सनक में कई बार उन्होंने गलत राहें भी चुनीं। आलोचना करते-करते बहुत दूर तक निकल गये लेकिन किसी फायदे के लिए नहीं, बस सच को कहने की अपनी जिद के चलते ही। उन्हें हिंदी साहित्य जगत कभी नहीं भुला पाएगा। विष्णु खरे की एक बहुख्यात रचना -
कहो तो डरो कि हाय यह क्यों कह दिया
न कहो तो डरो कि पूछेंगे चुप क्यों हो।
सुनो तो डरो कि अपना कान क्यों दिया
न सुनो तो डरो कि सुनना लाजिमी तो नहीं था।
देखो तो डरो कि एक दिन तुम पर भी यह न हो
न देखो तो डरो कि गवाही में बयान क्या दोगे।
सोचो तो डरो कि वह चेहरे पर न झलक आया हो
न सोचो तो डरो कि सोचने को कुछ दे न दें।
पढ़ो तो डरो कि पीछे से झाँकने वाला कौन है
न पढ़ो तो डरो कि तलाशेंगे क्या पढ़ते हो।
लिखो तो डरो कि उसके कई मतलब लग सकते हैं
न लिखो तो डरो कि नई इबारत सिखाई जाएगी।
डरो तो डरो कि कहेंगे डर किस बात का है
न डरो तो डरो कि हुक़्म होगा कि डर।
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