किसी महिला की 'कल्पना' की ये सबसे ऊंची उड़ान है
कामयाब इंसान की कहानियाँ अमूमन हर किसी को आकर्षित करती हैं। इन कहानियों के ज़रिये लोग कामयाबी के मन्त्र जानने की कोशिश करते हैं। वैसे भी दुनिया में लोगों को सीख देने वाली कामयाबी की कई सारी कहानियाँ है। देश और दुनिया में कामयाबी की नयी-नयी कहानियाँ हर दिन लिखी जा रही हैं और इन कहानियों से कई सारे लोग बहुत कुछ सीख-समझ रहे हैं। लेकिन, कामयाबी की हर कहानी अमिट और अमर नहीं होती। कई कहानियों की प्रासंगिकता और लोकप्रियता समय के साथ ख़त्म हो जाती है। बहुत ही कम कहानियाँ कालजयी होती हैं। उन्हीं कहानियों की उम्र लम्बी होती है जो अपने आप में बिलकुल अलग होती हैं, कई मायनों में सबसे अलग। किसी कहानी की प्रासंगिकता और सार्वकालिकता इस बात पर भी निर्भर करती हैं कि वह कितने लोगों पर कितना प्रभाव छोड़ पाती है, ज्यादा लोग और ज्यादा प्रभाव का सीधा मतलब है उस कहानी की प्रासंगिकता, उम्र और लोकप्रियता का ज्यादा होना। कल्पना सरोज एक ऐसी ही सख्शियत हैं जिनकी कामयाबी की कहानी कई सारे लोगों के मन-मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ने की ताकत रखती है। कल्पना सरोज भारत की बेहद कामयाब महिला उद्यमी और उद्योगपति हैं। उनकी कहानी निराली है, अनूठी है। कहानी में कई ऐसी घटनाएं हैं जो मानवीय कल्पना से परे जान पड़ती हैं। कामयाबी की इस बेमिसाल कहानी में फर्श से अर्श का सफर है। ये कहानी कौड़ियों से करोड़पति बनने वाली गाँव की एक महिला की है। कहानी में कई उतार-चढ़ाव हैं, संघर्ष है, निराशा और मायूसी है, नाकामियाँ भी हैं, लेकिन इन सब के बाद नायाब कामयाबी है। कल्पना सरोज की कहानी यानी गोबर के उपले बेचने वाली एक दलित लड़की के आगे चलकर मशहूर करोड़पति कारोबारी बनने की अनोखी दास्ताँ है। एक गरीब और कमज़ोर महिला जिसके पास मुंबई में रहने के लिए मकान नहीं था उसी महिला के बिल्डर बनने और मायानगरी मुंबई में लोगों के लिए मकान बनाकर बेचने वाली अमीर और ताकतवर महिला बनने की भी ये कहानी है। ये कहानी ग्रामीण परिवेश से आने वाली एक ऐसी दलित महिला की है जिसके खानदान में किसी ने कारोबार नहीं किया, लेकिन इस महिला ने देश के मशहूर उद्योगपति रामजी हंसराज कमानी की एक कंपनी को न सिर्फ करोड़ों रुपयों के घाटे से उबारा बल्कि उसे मुनाफनुमा बनाकर उसकी मालकिन भी बनीं।कल्पना सरोज ने अपने जीवन में छुआछूत, गरीबी, बाल-विवाह, ससुराल वालों के हाथों शोषण, अपमान, निंदा, तिरस्कार, धमकियां, दुर्घटनाएं, दुःख-दर्द - ये सब कुछ अनुभव किया है। कल्पना सरोज ने तो एक समय विकट और विपरीत परिस्थितियों से तंग आकर खुदखुशी करने की कोशिश की, लेकिन उनकी जान बचा ली गयी। कई लोगों लोगों को कल्पना सरोज की कहानी फ़िल्मी कहानी जैसी लगती है। लेकिन इस बात में किसी को भी दो राय नहीं कि साहस, मेहनत, ईमानदारी के दम पर सारी विप्पत्तियों और विपरीत परिस्थितियों से लड़ते हुए असाधारण कामयाबी और ऊंचा मुकाम हासिल करने की ये कहानी लोगों को प्रेरणा देने वाली है। कल्पना सरोज की कहानी जहाँ भारतीय समाज की जाति व्यवस्था पर एक तीखा प्रहार करती हैं वहीं जाति के नाम पर लोगों को बांटने वाली राजनीति और सामजिक व्यवस्था को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने और कामयाब होने के लिए लोगों को प्रेरित/प्रोत्साहित करती है। कल्पना सरोज की कहानी इस वजह से भी काफी महत्त्व रखती है क्योंकि वे दलित समुदाय से हैं, महिला हैं, फिर भी उन्होंने अपने जीवन में वो सब हासिल किया जिसे पाना संपन्न और ताकतवर लोगों के लिए भी नामुमकिन जान पड़ता है। देश में बहुत ही कम महिलाएं उद्योगपति बनती हैं और दलित समुदाय से किसी महिला का उद्योगपति बनने का उदहारण ढूंढें नहीं मिलता, ऐसे हालात में कल्पना सरोज की कहानी अद्वितीय और अद्भुत बन जाती है।
कल्पना सरोज का जन्म महाराष्ट्र के अकोला जिले के रोपड़खेड़ा गाँव में हुआ। पिता महादेव पुलिस में हवालदार थे। माँ गृहिणी थीं। महादेव की छह संतानें थीं- तीन बेटियाँ और तीन बेटे। भाई-बहनों में कल्पना सबसे बड़ी थीं, और पिता की लाड़ली भी। कल्पना के दादा खेत में मजदूरी किया करते थे। उन्होंने ज़मीदारों के यहाँ नौकरी भी की। वे चाहते थे कि उनके बच्चे उनकी तरह मजदूरी न करें; इसी वजह से उन्होंने अपने बच्चों को स्कूल भेजा। महादेव भी स्कूल गए, उन्होंने सातवीं तक पढ़ाई की। बड़ी मशक्कत के बाद महादेव को पुलिस में नौकरी मिल गयी और वे हवालदार बन गए। महादेव पुलिस में थे इसी वजह से रहने के लिए उन्हें पुलिस लाइन में सरकारी क्वॉर्टर मिला। बावजूद इसके कल्पना और उनका परिवार छुआछूत और जातिगत भेदभाव का शिकार हुआ। कल्पना बताती हैं, "पुलिस लाइन में भी कुछ लोग ऐसे थे जो कि पिछड़ी जाति के लोगों को बहुत ही हीन-दृष्टि से देखते थे। ये लोग अपने बच्चों को दलित परिवार के बच्चों के साथ खेलने-कूदने नहीं देते थे। दलित बच्चों के साथ उठने-बैठने की भी मनाही थी। इन उच्च जाति के घरों में पिछड़ी जाति के लोगों को आने भी नहीं दिया था।"
आस-पड़ोस में ही नहीं बल्कि स्कूल में भी कल्पना दलित होने की वजह से छुआछूत और जातिगत भेदभाव का शिकार रहीं। दूसरे बच्चों के मुकाबले कल्पना काफी होशियार थीं, तेज़-तर्रार थीं। पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ खेल-कूद, नाचने -गाने और दूसरी सभी सांस्कृतिक गतिविधियों में भी उनकी खूब दिलचस्पी थी। लेकिन, उन्हें प्रोत्साहित करना तो दूर स्कूल के टीचर उन्हें मौका भी नहीं देते थे थे। दलित होने की वजह से उन्हें ऊंची जाति के बच्चों के साथ खेलने-कूदने और नाचने-गाने का मौका ही नहीं दिया जाता था। कल्पना अपनी टीचरों से बहुत गुज़ारिश करतीं, बस एक बार मौका देने की गुहार लगतीं, लेकिन ऊंच-नीच की भावना टीचरों के मन-मस्तिष्क पर इस तरह से हावी थी कि उन्होंने कल्पना की एक न सुनीं। कुछ न कुछ बहाने बनाकर टीचर कल्पना को खेल-कूद और नाच-जाने की प्रतियोगिताओं में हिस्सा नहीं लेने देते थे। कल्पना ने बताया, “टीचर मुझसे कहती – तुम नहीं कर पाओगी, या वो कहती – तुम अच्छा नहीं कर पाओगी। उन्होंने स्कूल में मुझे कभी भी कुछ करने का मौका ही नहीं दिया।”
कल्पना के मुताबिक, उनका परिवार पुलिस लाइन के सरकारी मकान में रहता था इसी वजह से हालात कुछ हद तक ठीक थे। उन दिनों गाँवों-देहातों में हालात और भी बुरे थे। दलितों के साथ बहुत ही बुरी तरह से व्यवहार किया जाता था। उनका शोषण होता और उन्हें अपमानित किया जाता। ऊंची जाति के लोग दलितों की परछाई भी अपने ऊपर पड़ने नहीं देते थे।
एक बार कल्पना को अपने दादा के साथ गाँव जाने का मौका मिला। वैसे तो दादा भी उन्हीं के साथ रहते थे, लेकिन कभी-कबार अपने गाँव भी जाते थे। स्कूल की छुट्टियां होने पर दादा एक बार कल्पना को अपने साथ गाँव ले गए। गाँव में लोगों ने जिस तरह से उनके दादा के साथ व्यवहार किया उसका कल्पना के बाल-मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। कल्पना के कहा, “दादाजी को उन लोगों ने अपने घर में भी आने नहीं दिया। टूटे हुए बर्तन में पीने के लिए पानी दिया और अलग से रखे गए कुल्हड़ में चाय पिलाई। जिस तरह से उन लोगों ने दादाजी के साथ बातचीत की और बर्ताव किया, उसे देखकर मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने दादाजी से इस भेदभाव का कारण पूछा। तब मुझे दादाजी ने बताया कि हम नीची जाति के हैं और इसी वजह से ऊंची जाति के लोग हमारे साथ ऐसा व्यवहार करते हैं।” कल्पना को जल्द ही अहसास हो गया कि लोग जाति के नाम पर भेदभाव करते हैं। गावों में दलितों के लिए अलग बस्तियां होती हैं। कई लोग ऐसे हैं जो दलित और दूसरी पिछड़ी जाति के लोगों को अछूत समझते हैं और उन्हें छूना भी पाप मानते हैं। कल्पना का बाल-मन ये समझ ही नहीं पा रहा था कि आखिर सभी इंसान ही हैं फिर ऐसा भेद-भाव क्यों? वे ये समझ नहीं पा रही थीं कि अगर दूसरे बच्चे उनके साथ खेलें तो उनका क्या बुरा हो जाएगा? वे ये भी जानता चाहती थीं कि अगर वो किसी दूसरे के घर के चूल्हे-चौके में चली भी गयीं तो इससे उनका क्या नुक्सान होगा? उम्र छोटी थी, नजरिया आम बच्चों जैसा था, मस्तिष्क भी परिपक्व नहीं था, बहुत कुछ और भी देखना और समझना बाकी था, इसी वजह से कल्पना उस समय के सामाजिक ताने-बाने और परिस्थितियों को नहीं समझ पायीं।
कल्पना बचपन में न सिर्फ छुआछूत और जातिवाद का शिकार रहीं बल्कि उन्होंने गरीबी के थपेड़े भी खूब खाए। भले ही कल्पना के पिता पुलिस में नौकरी करते थे, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति मज़बूत नहीं थी। कल्पना का परिवार काफी बड़ा था। घर में माता-पिता, दादा-चाचा के अलावा तीन भाई और दो बहनें रहती थीं। इन सभी के पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी पिता महादेव पर ही थी। घर में कमाने वाले वे अकेले थे। इतने बड़े परिवार का गुज़ारा पिता के मामूली वेतन पर होना बेहद कठिन था। कल्पना ने बताया, “उन दिनों मेरे पिताजी की पगार तीन सौ रुपये महीना थी। परिवार बड़ा था। चाचा की पढ़ाई की ज़िम्मेदारी पिताजी पर ही थी। बुआ भी अक्सर घर आती थीं। घर चलाना आसान नहीं था। ऐसी हालत में मुझे लगा कि पिताजी का हाथ बंटाना चाहिए।” उम्र छोटी थी, लेकिन कल्पना ने बड़ा फैसला लिया था। परिवार की आर्थिक मदद करने के मकसद से कल्पना ने बचपन से ही काम करना शुरु कर दिया। स्कूल से छुट्टी होते ही कल्पना नजदीक के जंगल में जातीं और वहां से लकड़ी चुनकर लातीं। ये लकड़ी या तो घर के काम आती या फिर उसे बेचकर कल्पना पैसे जुटातीं। कल्पना ने बचपन से ही खेतों में काम करना भी सीख लिया था। पैसे कमाने के मकसद से वे खेत जातीं और खेतों में घांस काटने, मूंगफली तोड़ने, कपास चुनने का काम भी करने लगीं। बचपन में कल्पना ने गोबर के उपले बनाकर भी खूब बेचे। कल्पना कहती हैं, “इस तरह के काम से मुझे कभी आठ आने मिलते तो कभी बारह आने। इन पैसों से मैं अपनी ज़रूरतें पूरी कर लेती थी। बचपन से ही पढ़ने का शौक था और पढ़ने-लिखने के लिए ज़रूरी किताबें मैं अपनी इसी कमाई से खरीद लेती थी।”
बचपन में कल्पना अपने हमउम्र के बच्चों की नायिका भी थीं। जैसे-जैसे वे चीज़ों और हालातों को समझने लगी थीं, वैसे-वैसे वे विचारों से परिपक्व होने लगी थीं- अपनी जिम्मेदारियों को समझने लगी थीं। स्कूल से छुट्टी होती ही वे अपनी हमउम्र की लड़कियों को लेकर गोबर चुनने निकल जाती थीं। वे कहती हैं, “मैंने अपनी सहेलियों को बताया कि अगर हम गोबर चुनेंगे और उनके उपले बनाकर बेचेंगे तो इससे हमारे परिवारवालों को फायदा होगा। हम अपने परिवार की मदद कर पायेंगे। मेरी बात मान लेने वाली सहेलियां मेरे साथ आ जाती थीं और हम स्कूल से छुट्टी होते ही गोबर के लिए निकल पड़ते थे। हम तय कर लेते थे कि ये मेरी गाय है; वो तेरी भैंस है और फिर अपनी-अपनी वाली के पीछे लग जाते थे। लेकिन मेरी कुछ सहेलियों को मेरे साथ उपलों का काम करने के लिए अपनी माँ से मार भी खानी पड़ी थी। कुछ सहेलियों की माँ ये कहती थीं कि उपलियाँ बनाना हमारा काम नहीं है, जिसका काम है उन्हें करने दो और तुम ये काम कभी मत करो। जो लडकियां माँ की इच्छा के खिलाफ काम करती थीं उनकी पिटाई होती थी।"
अपने बचपन की खट्टी-मीठी यादें हमारे साथ साझा करते हुए कल्पना सरोज ने ये भी कहा, “उन दिनों पांच पैसे में एक डबल रोटी मिलती थी। मैं अपनी कमाई के पैसों से डबल रोटी खरीदती थी और हम सब बहनें मिलकर उसे खाती थीं।” बचपन में कल्पना को पेड़ों पर चढ़ने और फल तोड़ने का बहुत शौक था। वे अक्सर बेर, इमली और पेरू तोड़ने चली जातीं। कल्पना ने कहा, “बेरी के पेड़ काँटों वाले होते हैं फिर भी मैं बहुत ऊपर चढ़ जाती थी। इमली भी खूब तोड़कर खाते थे। बहुत मज़ा आता था। स्कूल में जब आधे दिन के बाद छुट्टी हो जाती थी तो मैं अक्सर बेर या इमली तोड़ने चली जाती थी।” कल्पना ने ये भी कहा, “सारी चीज़ें अच्छी लगती थीं क्योंकि बचपन तो होता ही अच्छा है, उसमें गरीबी-अमीरी का फर्क नहीं होता, बस मस्ती होती है।”
दूसरे बच्चों की तरह कल्पना के भी बचपन में अपने सपने थे। बचपन में कल्पना सेना या पुलिस में भर्ती होने के सपने देखा करती थीं। पिता पुलिस में थे इस वजह से स्वाभाविक भी था कि वे उनसे प्रभावित थीं और खूब पढ़-लिखकर पुलिस अफसर बनना चाहती थीं। वे बताती हैं, “मैंने ‘हकीकत’ फिल्म देखी थी। इस फिल्म का असर मुझपर कुछ इस तरह से पड़ा था कि मैं भी बॉर्डर पर जाकर दुश्मनों को मारना चाहती थी।” लेकिन कल्पना का ये सपना सच न हो सका। उनके दूसरे सपने भी चकनाचूर हो गए। महज़ 12 साल की उम्र में उनकी शादी कर दी गयी। कल्पना ने बताया, “मैं बहुत रोई थी, गिड़गिड़ाई थी, माँ-बाबा सभी को यही कह रही थी कि मुझे अभी शादी नहीं करनी है, मुझे खूब पढ़ना है।” लेकिन, इन बातों का परिवारवालों पर कोई असर नहीं हुआ और उन्होंने कल्पना की शादी कर दी। वैसे कल्पना के पिता भी नहीं चाहते थे कि कल्पना की शादी इतनी छोटी उम्र में कर दी जाय, लेकिन कल्पना की माँ और उनके मामा की जिद थी कि कल्पना की शादी कर दी जाय। कल्पना ने बताया, “मेरे मामा कहते थे कि लड़की ज़हर की पुड़िया होती है, उसे घर में ज्यादा दिन तक नहीं रखना चाहिए, इसे जल्दी निपटा दो। लड़की पढ़-लिखकर भी क्या करेगी, उसे आगे तो अपने ससुराल में चूल्हा-चौका ही तो संभालना है?”
कल्पना जब पांचवीं में थी तभी से उनके लिए रिश्ते आने लगे थे, लेकिन पिता ने शादी नहीं की। लेकिन जब कल्पना सातवीं में थीं तब मामा उनके लिये एक रिश्ता लेकर आये। मामा ने इस बार कुछ ऐसा जाल बुना था कि कल्पना के पिता उसमें फंस गए। कल्पना के मुताबिक, "मामा मुंबई का एक रिश्ता लेकर आये थे। उन दिनों गाँव के लोगों के लिए मुंबई का मतलब अमेरिका जैसा था। मामा ने खूब ज़बरदस्ती की, पिता भी ना नहीं कर सके, वे इस बार टाल नहीं पाये। मेरे रोने-धोने का भी कोई असर नहीं हुआ। मेरी शादी कर दी गयी। उस समय मैं शादी का मतलब भी नहीं समझती थी, मेरी उम्र सिर्फ बारह साल की थी।” यानी कल्पना का बाल-विवाह हुआ था। उस समय भी बारह साल की उम्र में लड़की का विवाह करना गैर-कानूनी था। अपराधी पिता भी थे जो कि खुद पुलिसकर्मी थे, लेकिन सामाजिक बंधन और दबाव उनपर भी कुछ ऐसा था कि उन्होंने कानून की परवाह नहीं की और अपनी बेटी का ब्याह करवा दिया। अगर मामला थाने में दर्ज होता तो कल्पना के पिता और पति – दोनों की गिरफ्तारी होती और दोनों जेल जाते।
बारह साल की कल्पना का विवाह उनसे दस साल बड़े एक आदमी से किया गया था। शादी की वजह से कल्पना को स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी, उनके कई सारे सपने हमेशा के लिए ख़त्म हो गए। शादी के तुरंत बाद कल्पना का पति उन्हें अपने साथ मुंबई ले गया।
मुंबई में कल्पना को बहुत सारी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। ससुरालवालों ने कल्पना को बहुत प्रताड़ित किया। मुंबई की जो तस्वीर कल्पना को दिखाई गई थी असलियत उससे कहीं अलग थी। कल्पना ने बताया,“मुझे लगा था कि ससुराल में मुझे प्यार मिलेगा, लोग मुझे अपनाएंगे, इज्ज़त देंगे। लेकिन, ससुराल में सब कुछ अलग था। मुझे लगा कि मैं अच्छी जगह रहूँगीं, मुंबई में बहुत अच्छी जगह मेरा ससुराल होगा। लेकिन मुंबई में मेरा ससुराल झुग्गी बस्ती में था। बस एक कमरा था और सभी उसी में रहते थे – ससुर, जेठ-जेठानी, उनके बच्चे, देवर सभी। मैं बहुत अच्छी जगह रहती थी, पुलिस क्वाटर थे, साफ़ सफाई थी ... यहाँ झोपड़ियां थीं, गन्दगी थी, बदबू थी।” कल्पना के लिए सिर्फ माहौल ही खराब नहीं था,ससुरालवाले भी खराब ही निकले। ससुरालवालों की असलीयत कल्पना को कुछ ही दिनों में पता चल गयी। जेठ और जेठानी ने उनके साथ बदसलूकी करना शुरू कर दिया। छोटी-छोटी बातों पर जेठ-जेठानी कल्पना को मारने-पीटने लगे। अपशब्द कहना तो आम बात हो गयी थी। जेठ-जेठानी का सलूक इतना बुरा होता कि वो कल्पना के बाल पकड़कर नोचते और उसे बुरी तरह मारपीट कर ज़ख़्मी कर देते। कई बार तो कल्पना के बाल पकड़कर सिर को दीवार से पीटा जाता। कल्पना को खाने के लिए भी समय पर भोजन नहीं दिया जाता, उन्हें परेशान करने लिए भूखा रखा जाता। सुबह-शाम ताने मारे जाते, गालियाँ दी जातीं। कल्पना कहती हैं, “वे बहुत बुरे दिन थे। मैं उन्हें याद करना नहीं चाहती। जब कभी उन दिनों की याद आती है तो आँखों से आंसू निकल आते हैं। वो दौर नासूर बन चुका है मेरे दिल में, कुरेदते हैं जो बहुत पीड़ा होती है। मुझे मुंबई आने के बाद ही पता चला कि ससुराल के लोग दूसरों के यहाँ झूठे बर्तन और गंदे कपड़े साफ़ करते हैं। जैसे ही मैं वहां पहुँची नयी बहु होने की वजह से सारे काम मुझे ही सौंप दिए गए। मुझे हर दिन सुबह चार बजे उठना होता, घर की साफ़-सफाई करनी होती, सभी बारह लोगों का खाना बनाना होता, फिर बर्तन-कपड़े साफ़ करने होते, सभी काम मुझे ही करने पड़ते। मेरे काम में छोटी-छोटी गलतियां निकालकर मुझे मुक्का मारा जाता, लात मारी जाती, कभी कहा जाता इसमें नमक कम हो गया है, कभी कहते इसमें मिर्ची ज्यादा हो गयी है, बस कुछ कहना होता और वो कहकर मुझे मारते-पीटते। अपने पिता के यहाँ मैं बालों में तेल लगती थी और जब यहाँ एक दिन तेल लगाने लगी तब जेठ ने कहा – बन संवर कर कहा जाना है और फिर मुझे मारा-पीटा। मेरे ससुरालवाले मुझे गालियाँ देते, ऐसी बातें कहते जो मैं सुना भी नहीं सकती।”
कल्पना के लिए वो दिन पीड़ा, अपमान, शोषण और दुःख से भरे थे। कल्पना चाहती थीं कि उनके पिता और दूसरे घरवालों को उनकी हालत के बारे में जानकारी मिले, लेकिन ससुरालवाले उन्हें चिट्टी भिजवाने ही नहीं देते थे। शादी के करीब छह महीने बाद पिता महादेव अपनी बड़ी बेटी कल्पना का हालचाल जानने के लिए मुंबई आये। पिता ने जब कल्पना को देखा तो पहले वे उन्हें पहचान ही नहीं पाए, वजह साफ़ थी – कल्पना की हालत बिगड़ चुकी थी। दिन-रात की मेहनत ने उनका हुलिया बिगाड़ दिया था। कल्पना कहती हैं, “मैं चंचल थी, हंसती-खेलती थी, अपने पिता की पहली संतान थी इसी वजह से वे मुझे बहुत चाहते थे। जब बाबा ने मुझे उस हालत में देखा तो वो बहुत परेशान हुए।”बेटी की दुर्दशा देखकर पिता को बहुत दुःख और दर्द हुआ। वे दंग रह गये, उन्हें बहुत अफ़सोस हुआ कि वे अपनी बेटी का हाल जानने पहले क्यों नहीं आये, मौके पर ही उन्होंने फैसला किया कि वे कल्पना को ससुराल में नहीं रहने देंगे। ससुरालवालों ने कल्पना को पिता के साथ भेजने से साफ़ मना कर दिया। काफी विवाद और झगड़ा हुआ। पिता वहां से चले गए, लेकिन जल्द ही वापस लौटे। इस बार जब पिता वापस लौटे तो वे पुलिस की वर्दी में थे। इस बार ससुरालवाले उन्हें रोक नहीं पाए। पिता महादेव कल्पना को लेकर अपने गाँव वापस आ गये।
कल्पना को लगा कि गाँव लौटने के बाद जीवन में खुशियाँ वापस लौट आयेंगी, उन्हें दुःख और पीड़ा से मुक्ति मिलेगी, अपनों से प्यार और इज्ज़त मिलेगी, लेकिन इस बार भी बिलकुल उलट हुआ। गाँव के लोगों और रिश्तेदारों ने कल्पना को ताने मारना शुरु कर दिया। ससुराल को छोड़ने और घऱ वापस आने के उनके फैसले को लेकर थू-थू होने लगी। कल्पना के माँ-बाप को भी इसके लिये उलहाने दिये जाने लगे। अपनों से सहानुभूति या प्रेम मिलने के बजाय नफरत मिलने के कारण कल्पना अवसाद से ग्रसित हो गयीं। कल्पना ने बताया, "मैंने सोचा था कि पिता के घर लौटने के बाद मुझे सुकून मिलेगा। लेकिन, यहाँ भी ताने ही मिले। मैंने देखा कि लोगों की नज़रों में नफरत थी और जुबां पर सवाल थे। तरह-तरह के लोग तरह-तरह की बातें करने लगे थे। आस पड़ोस के लोग और रिश्तेदार भी मुझे ही दोष देते थे। लोग कहते थे – ‘शादी के बाद लड़की को ससुराल में सब कुछ सहना ही पड़ता है,सभी तो सहते ही हैं। जब एक बार लड़की शादी कर अब ससुराल चली जाती है तब उसकी अर्थी ही वहां से निकलती है।‘ लोग इस तरह की बातें करते थे, हर एक की नज़र में मैं ही गलत थी, मैं ही बुरी थी। मुझे लगा कि लोगों की इन बातों से मेरे माँ और बाबा को बहुत तकलीफ हो रही है, मुझसे सहा नहीं गया। मुझमें इस तरह की बातों को सुनने और सहने की हिम्मत नहीं रही और मैंने मरने का फैसला कर लिया।”
कल्पना ने बाज़ार से खटमल मारने वाली दवाई की तीन बोतलें लीं और अपनी बुआ के घर गयीं। बुआ अकेली रहती थीं, और कल्पना को लगा कि बुआ के घर पर उन्हें न कोई देखेगा और न ही कोई रोकेगा। जब घर पर बुआ नहीं थीं तब कल्पना ने तीनों बोतल ज़हर पी लिया।बुआ जब घर लौटीं तब उन्होंने देखा कि कल्पना के मूंह से झाग निकल रही और और वे अपने हाथ-पाँव ज़मीन पर रगड़ रही हैं। बुआ ने तुरंत आस-पड़ोस के लोगों को बुलाया और कल्पना को इलाज के लिए पास ही के सरकारी अस्पताल ले जाया गया। अस्पताल में डॉक्टरों ने भी साफ-साफ़ कह दिया कि कल्पना की हालत बेहद नाज़ुक है और उनका बचना बेहद मुश्किल। डाक्टरों ने सलाह दी कि कल्पना को अकोला के जिला अस्पताल ले जाना चाहिए। जिला अस्पताल में सुविधायें बेहतर हैं और शायद वहां के अनुभवी डाक्टरों की कोशिश की वजह से कल्पना की जान बच सकती है। लेकिन, कल्पना के गाँव के थाना प्रभारी ने कहा कि अगर कल्पना को जिला अस्पताल ले जाया जाता है तो पुलिस में मामला दर्ज होगा और मामला दर्ज होने पर न सिर्फ परिवार की बदनामी होगी बल्कि पुलिस का भी नाम खराब होगा क्योंकि कल्पना एक पुलिसकर्मी की बेटी है। थाना प्रभारी ने गाँव के अस्पताल के डाक्टरों से वहीं पर अपनी ओर से पूरी कोशिशें करने का अनुरोध किया। जैसा कि कई लोग कहते/मानते हैं - होई है वहीं जो राम रचि रखा। ईश्वर की मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। कल्पना में जीवन शेष था, डॉक्टरों के अनुमान को झुठलाते हुए कल्पना की जान बच गई।
कल्पना की जान तो बच गयी, लेकिन लोगों के जिन तानों और बातों, जीवन की मुसीबतों से घबराकर उन्होंने खुदखुशी करने की सोची थी उन सभी ने अब भी पीछा नहीं छोड़ा। कल्पना कहती हैं, “मुझे बचना था और मैं बच गयी, लेकिन मुसीबतें वैसी ही रहीं। लोगों में हमदर्दी नहीं थी। लोग अब भी तरह-तरह की बातें कह रहे थे, लोग उलटे मुझसे सवाल पूछ रहे थे। एक सवाल ये सवाल ये भी था कि यदि मेरी जान चली जाती तो मेरे माँ-बाप की इज्ज़त का क्या होता..? कुछ लोग तो ये भी कह रहे थे कि मैंने कुछ गलत किया था इसी वजह से मरने की कोशिश की थी। सभी की नज़र में मैं ही बुरी थी। तभी मैंने ठान लिया कि मैं अब कभी भी अपने जीवन में मरने की बात नहीं करूंगी। मौत की बात नहीं करूंगी। मौत का नाम भी नहीं लूंगी। मैंने फैसला कर लिया कि मैं ज़िंदगी में कुछ करके दिखाऊंगी, मरना तो एक दिन सभी को है, मरने से पहले मैं कुछ बड़ा काम करूंगी।" अपने इस फैसले के बाद कल्पना को अहसास हुआ कि गाँव में तो सिर्फ खेतों का काम ही है। कल्पना अब खेतों में काम नहीं करना चाहती थीं। काम करने के लिये वे मुंबई जाना चाहती थीं, लेकिन ख़ुदकुशी की कोशिश के बाद माँ उन्हें भेजने को तैयार नहीं थी। लेकिन, कल्पना ने माँ को धमकी दी कि अगर उन्हें मुंबई नहीं भेजा गया तो इस बार वे रेलगाड़ी के नीचे आकर खुदखुशी कर लेंगी। ये बात सुनकर माँ घबरा गयीं और उन्हें आखिरकार बेटी की जिद के आगे झुकना ही पड़ा।
कल्पना मुंबई में अपने चाचा के पास आ गयीं। माँ उन्हें खुद छोड़ने आयी थीं। कल्पना ने बताया, “मेरे चाचा दादर में बापट मार्ग पर रहते थे। वे पापड़ बेचने का काम किया करते थे। उनके पास रहने की जगह भी ठीक नहीं थी, उनकी आँखों की रोशनी भी कमज़ोर थी। वो मुझे अपने पास रखने से घबरा रहे थे, तब माँ ने उनसे कहा था कि मेरी हालत अभी ठीक नहीं है और मुझ पर कोई भूत सवार है और जब ये भूत उतर जाएगा तब मैं आकर इसे वापस गाँव ले जाऊंगी। माँ की गुज़ारिश पर उन्होंने मुझे अपने यहाँ रख लिया।” चाचा कल्पना को लेकर बहुत चिंतित थे और उन्हें लगा कि जब वो काम पर जाते हैं तब उनकी गैर-मौजूदगी में कल्पना के साथ कोई अप्रिय घटना हो गयी तो वे अपने भाई और दूसरे रिश्तेदारों को मूंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। ऐसे में उन्होंने कल्पना के रहने का इंतजाम अपने परिचित एक गुजराती परिवार में कर दिया। उस गुजराती परिवार के मुखिया की तीन बेटियाँ थीं और उन्होंने कल्पना को अपनी चौथी बेटी कहकर अपने घर में जगह दी। उस परिवार में कल्पना को काफी स्नेह ओर अपनापन मिला।
कल्पना सिलाई-कढाई के काम में पारंगत थी। उस गुजराती परिवार के पड़ोस में रहने वाले एक शख्स की होजरी कंपनी थी। कल्पना ने उस शख्स से काम के लिये मदद करने का आग्रह किया। वे कल्पना को अपनी होजरी कंपनी में ले गये और मशीन पर काम करने को कहा। बड़ी कंपनी के माहौल और मशीनों को देखकर कल्पना इतनी डर गई कि उनका आत्मविश्वास डगमगा गया। कई महिलाओं और पुरुषों को एक साथ काम करते हुए देखना भी उनके लिए नया अनुभव था। घबराहट और शरमाहट की वजह से नौकरी हाथ से निकल ही गई थी। लेकिन, कल्पना के बार-बार अनुरोध करने पर उन्हें धागा काटने का काम सौंपा गया था, जोकि हेल्पर का काम था। इस काम के लिए कल्पना को हर दिन दो रुपये मिलते थे, यानी उनकी महीने भर की पगार साठ रुपये थी। धागा काटने के दौरान कल्पना ने सोचा कि जब उन्हें सिलाई का काम अच्छी तरह आता है तो फिर काम करने से डर कैसा। लंच ब्रेक, टी ब्रेक के दौरान जब सब कर्मचारी मशीनों से दूर चले जाते थे उस समय कल्पना ने मशीन पर काम करना शुरु किया और जल्द ही मशीन की कार्यप्रणाली से अवगत हो गई। डर को दूर भगाने के बाद कल्पना ने कंपनी मालिक से उन्हें सिलाई का काम देने का अनुरोध किया। अनुरोध स्वीकार लिया गया और कल्पना अब मशीन पर सिलाई का काम करने लगीं। उनकी पगार भी 60 रुपये से बढ़ाकर 225 रूपये प्रतिमाह कर दी गयी। कल्पना बताती हैं, “जब सिलाई की पगार मिली तब वो पहली बार था जब मैंने सौ का नोट छूकर देखा था। इससे पहले सौ का नोट छूने का मौका ही नहीं मिला था।”
अपनी तनख्वाह कल्पना उस गुजराती परिवार को देना चाहती थीं जहाँ वे रहा करती थीं, लेकिन परिवार के मुखिया ने ये कहकर रुपये लेने से मना कर दिया कि – हमारे यहाँ बेटियों से रुपये नहीं लिए जाते, बेटियों को दिए जाते हैं। परिवार के मुखिया ने कल्पना को कमाई के सारे रुपये जमा करवाने का सुझाव दिया और ऐसे कल्पना के रूपए जमा होने लगे।
इसी बीच कल्पना के परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। किन्हीं कारणों से पिता की पुलिसिया नौकरी चली गई। सरकारी मकान छूट गया। रहने और खाने की दिक्कत खड़ी हो गई। माँ को भी खेतों में जाकर मजदूरी करने के लिए मजबूर होना पड़ा। ऐसे में कल्पना ने अपने परिवार को मुंबई बुलाने का फैसला किया। मुंबई जैसे महानगर में सस्ता मकान मिलना मुश्किल था इसलिये कल्पना ने उपनगर कल्याण में 400 रुपये डिपॉजिट कर 40 रुपये के किराए वाले एक मकान का इंतजाम किया। कल्पना गुजराती परिवार को अलविदा कहकर दादर से कल्याण चली आयीं। कल्पना को वो दिन अब भी अच्छी तरह से याद है जब उस गुजराती परिवार के मुखिया ने उन्हें टिन की वो पेटी दी थी जिसमें कल्पना की कमाई के रुपये बचाकर सुरक्षित रखे गए थे। उस परिवार को याद करते हुए कल्पना ने कहा, “ दुनिया में अच्छे लोग भी हैं।”
कल्याण के मकान में कल्पना और उसके परिवार की जिंदगी ठीक-ठाक चलने लगी थी। कल्पना को लगने लगा था कि यही उनकी असली ज़िंदगी है, जहाँ सारा परिवार एक साथ रह रहा है। वे कहती हैं, “सब साथ थे इस बात की खुशी थी, हालत उतनी ज्यादा ठीक भी नहीं थी।किसी दिन एक टाइम का खाना मिलता था, एक टाइम का नहीं, फिर भी ज़िंदगी से शिकायत नहीं थी। संघर्ष था तो सिर्फ खाने का इंतज़ाम करने का। न कोई बड़ा सपना था; न ही कोई बड़ी तमन्ना। लगता था ऐसी ही आगे की ज़िंदगी भी निकल जाएगी।”
लेकिन, इस बीच एक ऐसी घटना हुई जिसने कल्पना की ज़िंदगी को पूरी तरह से बदल दिया। उनके जीवन को एक नया मकसद और एक नया लक्ष्य दिया। कल्पना की छोटी बहन गंभीर रूप से बीमार पड़ गई। कल्पना ने अपने शक्ति के मुताबिक उसका इलाज भी कराया, लेकिन बहन की जिंदगी बच न सकी। अंतिम समय में वह कल्पना से उसे बचाने की गुहार लगाती रही लेकिन कल्पना कुछ न कर सकीं। बहन की मौत से विचलित कल्पना को ख़ुद के आर्थिक रूप से संपन्न न होने पर बडी कोफ्त हुई। उन्होंने तय कर लिया कि वे गंभीरता से व्यापार करेंगी और आर्थिक रूप से संपन्न बनेंगी। कल्पना ने जब अपनी छोटी बहन की मौत वाली घटना सुनाई तो वे बहुत भावुक हो गयीं। आँखों से आंसू रोक पाना उनके लिए मुश्किल हो गया। कल्पना ने बताया, “मेरी बहन सोलह-सत्रह साल की थी। वो बीमार पड़ गयी। इलाज शुरू भी हुआ लेकिन वो ज्यादा बीमार हो गयी। मरते समय उसने मुझसे कहा था – मैं जीना चाहती हूँ, मुझे बचा लो। वो तड़प रही थी, मैं बेबस थी, मजबूर थी, कुछ भी नहीं कर पा रही थी। मेरी बहन को मैं नहीं बचा पायी। मेरी बहन की मौत पर मुझे अहसास हुआ कि अगर पास रुपये नहीं रहे तो मैं अपने परिवार में दूसरों को भी नहीं बचा पाऊँगी। माँ-बाबा, भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी मुझपर ही थी। मैंने ठान लिया कि मैं भी अमीर बनूंगी। खूब धन-दौलत कमाऊंगी।”
कल्पना अब इसी सोच में डूब गयीं कि आखिर रुपये कैसे कमाए जाएँ। वे दिन-रात उन तरकीबों, तौर-तरीकों, कारोबार, नौकारियों के बारे में ही सोचती जिनसे रुपये कमाए जा सकते थे। उन्हीं दिनों कल्पना ने रेडियों पर एक विज्ञापन सुना। ये विज्ञापन बेरोजगारों को क़र्ज़ देने वाली सरकार की एक योजना के संबंध में था। कल्पना ने सोचा कि कोई और तो उन्हें व्यापार के लिये पैसे देने से रहा, तो क्यों ने इस योजना के मार्फ़त व्यापार शुरु किया जाये। लेकिन लोन प्राप्त करना आसान भी नहीं था। सरकारी प्रक्रिया पूरी करना वह भी उस महिला के लिये जो ज्यादा पढ़ी-लिखी भी न हो, तकलीफों से भरा था। सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगा-लगाकर कल्पना की चप्पलें घिस गईं, लेकिन मेहनत का फल मिला और कल्पना का लोन पास हो गया। कल्पना ने फर्नीचर का काम शुरु किया जो ठीक-ठाक चलने लगा। कल्पना ने बताया, “मैं लोन लेकर सिलाई की मशीनें खरीदना चाहती थी। सिलाई का काम जानती थी इस वजह से मैंने शुरू में मशीनें खरीदकर कंपनी शुरू करने की सोची। फिर मन विचार आया क्यों न बुटीक खोला जाय। लेकिन, आखिर में फैसला किया फर्नीचर का कारोबार करने का। मुझे लगा कि बुटीक में मेहनत करने के बाद भी दिन में सिर्फ पांच सौ रुपये ही कमा पाऊँगी, लेकिन अगर बड़ा फर्नीचर बेचूंगी तो एक दिन में एक हज़ार रुपये भी कमा सकती हूँ। इस वजह से मुझे जो पचास हज़ार का क़र्ज़ मिला उससे मैंने फर्नीचर का कारोबार शुरू किया।”
कारोबार शुरू करने के बाद कल्पना सरोज के मन में एक क्रांतिकारी विचार आया। इस क्रांतिकारी विचार के पीछे उनकी वो सोच थी जोकि उन्हें ज़रूरतमंद लोगों की मदद करने के लिए प्रेरित कर रही थी। शुरू से ही कल्पना की सोच केवल स्वयं लाभ लेने की नहीं थी। उन्हें लगा कि जितनी परेशानियों के बाद उन्हें ये लोन प्राप्त हुआ है उतनी दिक्कतें सभी को भला क्यों हो.? क्यों न उनके अनुभव का लाभ उनके जैसे दूसरे लोगों को मिल सके। इसी मकसद से उन्होंने ‘सुशिक्षित बेरोजगार युवा संगठन’ नाम से एक संस्था की शुरूआत की और लोगों की मदद करने लगीं। कल्पना ने बेरोजगार युवाओं के लिए शिविर लगाने शुरू किये, तरह-तरह के कार्यक्रम आयोजित किये। कल्पना ने इन कार्यक्रमों में सरकारी अधिकारियों, बैंक अधिकारियों को बुलवाया और उनके ज़रिये बेरोजगार युवक, युवतियों को सरकार की अलग-अलग योजनाओं के बारे में जानकारियाँ दिलवायीं। इन कार्यक्रमों से कई बेरोजगारों को लाभ मिला। कल्पना की पहल का ही नतीजा था कि कई बेरोजगार युवाओं को सरकार की अलग-अलग एजेंसियों और अलग-अलग बैंकों से क़र्ज़ लेने में आसानी हुई और वे अपना खुद का कारोबार शुरू कर पाए। कल्पना कहती हैं, “मुझे जहाँ क़र्ज़ मिलने में डेढ़ से दो साल लग गए वहीं इन कार्यक्रमों की वजह से बेरोजगार युवाओं को दो से तीन महीने में क़र्ज़ मिलने लगे थे। बेरोजगारों का काम मिला तो उनकी आवारागर्दी कम हुई, क्राइम भी कम हुआ।”
शिक्षित बेरोजगार युवा संगठन की नायिका के रूप में कल्पना की लोकप्रियता लगातार बढ़ती चली गयी। अब उनकी पहचान एक समाज-सेवी के रूप में भी होने लगी। जिन युवाओं को उनकी वजह से क़र्ज़ मिला और वे भी अपना खुद का कारोबार करने लगे उनके घर-परिवार में कल्पना की बहुत इज्ज़त की जाने लगी। जैसे-जैसे कल्पना की ख्याति बढ़ी, वैसे-वैसे ज्यादा से ज्यादा लोग मदद के लिये उनके पास आने लगे। लोगों की मदद करते-करते कुछ ही दिनों में कल्पना सभी के लिए 'कल्पना ताई' हो गयीं। बेरोजगारों की मदद के लिए किये जाने वाले कार्यक्रमों की वजह से सरकारी अधिकारियों से भी कल्पना का समन्वय और ताल-मेल बेहतर होता गया। कारोबार के साथ-साथ कल्पना की ख्याति भी खूब बढ़ी।
इसी दौरान उनके पास एक ऐसा व्यक्ति आया जिसका कल्याण में एक प्लॉट सीलिंग एक्ट के कारण फंसा हुआ था। उस व्यक्ति ने कल्पना से ये प्लॉट खरीदने का अनुरोध किया। उस व्यक्ति को रुपयों की सख्त ज़रुरत थी। सीलिंग एक्ट के कारण कोई भी व्यक्ति वो प्लॉट खरीदने के लिये तैयार नहीं था। प्लॉट मालिक ने कल्पना से इस प्लॉट के ढाई लाई रुपये मांगे और कहा कि ये प्लॉट सोना है लेकिन अपनी मजबूरी के कारण वह इसे मिट्टी के दाम बेच रहा है। कल्पना ने बमुश्किल एक लाख रुपये इधर-उधऱ से जमा किये और उस व्यक्ति को दे दिये। शेष राशि बाद में दिया जाना तय हुआ। अब ये प्लॉट कल्पना की प्रॉपर्टी थी लेकिन इसे सीलिंग एक्ट से मुक्त कराना एक बड़ी चुनौती थी। सीलिंग एक्ट लगा होने की वजह से इस प्लाट पर सिर्फ खेती की जा सकती थी और कोई दूसरा काम नहीं किया जा सकता था। कल्पना को इस काम में भी लंबा समय लगा। करीब दो साल की मेहनत के बाद आखिरकार उनकी फाईल क्लीयर हुई, प्लॉट सीलिंग से मुक्त हुआ। सचमुच कल्पना की खरीदी हुई मिट्टी अब सोना हो गयी थी। ढ़ाई लाख में खरीदा प्लॉट कुछ ही समय में पचास लाख रुपये की कीमत का हो गया।
कल्पना बेशकीमती जमीन की मालकिन तो हो गई थीं लेकिन, जमीन पर निर्माण करने के लिये उनके पास ज़रूरी रकम नहीं थी। वे इस हालत में भी नहीं थीं कि किसी बैंक के लोन ले सकें। ऐसे में कल्पना ने एक सिंधी कारोबारी को अपना पार्टनर बनाया और उसके साथ 35-65 की पार्टनरशिप कर निर्माण के व्यवसाय में अपना पहला कदम रखा और बिल्डर बन गयीं। कल्पना ने उस सिंधी कारोबारी से जो समझौता किया था उसके मुताबिक ज़मीन उनकी रहेगी और निर्माण का काम उनके पार्टनर यानी सिंधी कारोबारी को करना होगा। तय हुआ कि मुनाफे में 35% कल्पना का और 65 % हिस्सा सिंधी कारोबारी का होगा। कल्पना के लिए ये समझौता फायदेमंद साबित हुआ और इसके बाद कल्पना ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
लेकिन, बिल्डर बनने का सफ़र कल्पना के लिए आसान नहीं था। जैसे ही कल्पना ने उस ज़मीन को सीलिंग एक्ट से मुक्त करवा लिया था, जमीन की कीमत अचानक बढ़ गयी थी और अंडरवर्ल्ड की नज़र उस ज़मीन पर पड़ गयी। बदमाशों ने उस ज़मीन को हथियाने की हर मुमकिन कोशिश भी की, लेकिन कल्पना टस से मस नहीं हुईं। चौकाने वाली बात तो ये भी है कि कल्पना की हत्या के लिए सुपारी भी दी गयी। जिस गैंग को सुपारी दी गयी थी उसी गैंग के एक आदमी ने कल्पना को उनकी हत्या की साज़िश के बारे में बता दिया। इसके बाद कल्पना चौकन्नी हो गयीं। उन्होंने पुलिस को उनकी हत्या की साज़िश के बारे में जानकारी दी और मदद माँगी। पुलिस ने कार्यवाही की और सुपारी देने वाले लोग गिरफ्तार हुए। इसके घटना के बाद कल्पना ने आत्म-रक्षा, अपनी सुरक्षा के लिए रिवाल्वर रखने की इज़ाज़त माँगी और उन्हें इसकी इज़ाज़त मिल भी गयी। कल्पना ने कहा, "मैं अपने दुश्मनों से कहती हूँ- मेरी रिवाल्वर में छह गोलियां हैं। आखिरी गोली ख़त्म होने के बाद ही कोई मुझे मार सकता है।” कल्पना की बातों से साफ़ झलकता है कि उनमें विश्वास कूट-कूट कर भरा हुआ है। वे किसी की भी धमकियों से नहीं डरती हैं। हर चुनौती का सामना करने के लिए वे तैयार नज़र आती हैं। साहस ही उनकी सबसे बड़ी ताकत है।
कल्याण की वो ज़मीन कल्पना के लिए वाकई सोना साबित हुई, उसी ज़मीन की वजह से कल्पना करोड़पति बन गयीं। कल्पना कहती हैं, “मैंने मुनाफे के मकसद से या फिर कारोबार के मकसद से वो प्लाट नहीं खरीदा था। मैंने उसे आदमी की मदद करने के लिए वो प्लाट खरीदा था। मुझे मालूम भी नहीं था कि वो ज़मीन एक दिन सोना हो जाएगी। लेकिन, उस प्लाट को सीलिंग एक्ट और रेंट एक्ट से मुक्त कराने के लिए मुझे काफी मेहनत करनी पड़ी। मैंने कई दिनों तक सरकरी दफ्तरों के चक्कर काटे थे। जिस महिला के पास मुंबई में रहने को घर नहीं थे वही महिला अब बिल्डर बन गयी थी और लोगों को मकान बनाकर बेचने लगी थी।”
बिल्डर बनने के बाद कल्पना की कामयाबी की कहानी में नए-नए अध्याय जुड़ते चले गए। उन्होंने तरह-तरह के कारोबार करने शुरू किये। कल्पना ने जल्द ही एक सफल कारोबारी और उद्यमी के रूप में नाम कमाया और अपनी अलग पहचान बना ली। 1999 में उन्होंने अहमदनगर के साँई कृपा शुगर मिल की डील कर ली। बबनराव पाचपुते के सुझाव पर कल्पना सरोज ने कुछ लोगों के साथ मिलकर सुगर मिल शुरू की और कंपनी में डायरेक्टर बनीं।
कल्पना की कहानी में एक बड़ा मोड़ उस समय आया जब बंद पड़ी कमानी टयूब्स कंपनी में काम करने वाले कुछ लोग मदद की गुहार लगाते हुए उनके पास पहुंचे। कल्पना की शोहरत कुछ इस तरह की हो चुकी थी कि कमानी ट्यूब्ज़ के कर्मचारियों/मजदूरों को लगा कि घाटे में चल रही इस बीमारू कंपनी को कल्पना ही ले सकती हैं। मजदूरों ने सुना था कि कल्पना अगर मिट्टी को हाथ लगा दें तो मिट्टी भी सोना बन जाती है। बड़ी उम्मीदों के साथ मजदूर कल्पना के यहाँ पहुंचे थे।
कमानी टयूब्स कोई मामूली कंपनी नहीं थी। कमानी ट्यूब्ज़ की शुरुआत प्रसिद्ध उद्योगपति रामजी हंसराज कमानी ने की थी। रामजी कमानी महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के बहुत ही करीबी थे। कमानी परिवार में उभरे मतभेदों, मालिकों और कर्मचारी संगठनों की बीच तनातनी का कंपनी के कामकाज और कारोबार पर बुरा असर पड़ा था। कमानी ग्रुप की दो अन्य कम्पनियां पहले ही घाटे में जा चुकी थीं। कमानी मेटल्स कर्मचारी यूनियन के अधीन थी और कमानी इंजीनियरिंग लिमिटेड को आरपीजी ग्रुप ने खरीद लिया था। कमानी इंजीनीयरिंग वही कंपनी थी जिसे रामजी हंसराज कमानी ने गांधीजी के कहने पर शुरू किया था। गांधीजी चाहते थे कि भारत में भारत की अपनी कम्पनियां हों, स्वदेशी कम्पनियां देश के लिए काम करें। 1945 में रामजी कमानी ने कमानी इंजीनियरिंग लिमिटेड की शुरूआत की थी। इस कंपनी ने देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इतिहास की किताबें बताती हैं कि इसी कंपनी ने एशिया महाद्वीप में पहली बार बिजली आपूर्ति और विपणन का सामान बनाया था। कमानी की इसी कंपनी ने भारत में रेल के बिजलीकरण में भी बड़ी भूमिका अदा की थी। इतना ही नहीं भाखड़ा नांगल जैसी बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के लिए इसी कंपनी ने इस्पात बनाकर दिया था। 1960 में कमानी परिवार ने मुंबई के कुर्ला इलाके में कमानी टयूब्स की स्थापना की और ये कंपनी ताम्बे के टयूब्स और रोड्स बनाने लगी। शुरूआत में कमानी टयूब्स ने शानदार काम किया, लेकिन 1966 में रामजी कमानी के निधन के बाद स्थिति बदल गयी। रामजी कमानी के वारिस कंपनियों को ठीक तरह ने नहीं संभाल पाए। तीनों कम्पनियां – कमानी इंजीनीयरिंग लिमिटेड, कमानी मेटल्स और कमानी टयूब्स घाटे में आ गयीं। कमानी इंजीनीयरिंग को आरपीजी ग्रुप ने खरीदकर अपना बना लिया, जबकि कमानी टयूब्स का मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा। सर्वोच्च न्यायलय ने सभी पक्षों की बातें/दलीलें सुनने के बाद कंपनी को चलाने की ज़िम्मेदारी मजदूर/कर्मचारी यूनियन को सौंप दी। कल्पना के मुताबिक, आज़ाद भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था जब न्यायालय के किसी कंपनी को चलाने की ज़िम्मेदारी मजदूर यूनियन को सौंपी थी। सर्वोच्च न्यायलय के निर्देशानुसार मज़दूर यूनियन ने कंपनी चलायी। लेकिन, कंपनी कामयाब नहीं रही। कुछ कर्मचारियों ने इस कंपनी को चलाने का भरसक प्रयास किया लेकिन जब फैक्ट्री का बिजली-पानी का कनेक्शन भी काट दिया गया तो फैक्ट्री पूरी तरह से बंद हो गई। 1997 तक कंपनी का घाटा बढ़कर 116 करोड़ हो गया था। 2006 में कल्पना सरोज के हाथों कंपनी की जिम्मेदारी आयी तो दिन फिर गए। कल्पना सरोज ने कमानी टयूब्स को दोबारा मुनाफे में लाने को एक चुनौती के तौर पर लिया। अपने नए विचारों/प्रयोगों , मजदूरों की मेहनत और मदद से कल्पना ने कमानी टयूब्स की काया ही पलट कर रख दी। कमानी टयूब्स को जिस तरह से कल्पना सरोज ने एक बीमारू और घाटे में चल रही कंपनी से मुनाफे वाली कंपनी बनाया , वो आज भारतीय उद्योग जगत में एक मिसाल के तौर पर पेश की जाती है। कल्पना ने बताया, “मैंने मुनाफा कमाने के मकसद से कमानी का मामला संभालने की नहीं सोची थी। मैं बस उन मजदूरों की मदद करना चाहती थी। मुझे बताया गया था कि कई मजदूर बहुत ही बुरी हालत में हैं, उनके घर का चूल्हा भी कई दिनों से नहीं जला है, लोग भूखे-प्यासे मर रहे हैं, मैंने ठान ली थी कि मैं इस मजदूरों की मदद करूंगी। मुझे मालूम नहीं था कि काम सक्सेस होगा या नहीं, मुझे रुपये मिलेंगे या नहीं, मैं बस मजदूरों की मदद करना चाहती थी।”
कल्पना के पास जब ये फैक्ट्री चलाने का प्रस्ताव आया तो उन्होंने इसे एक व्यवसाय के रूप में न लेकर उसे एक समाजिक कार्य के रूप में लेने का फैसला किया, क्योंकि फैक्ट्री से जुडे सैकडों वर्कर फैक्ट्री के बंद होने से भूखे मरने की कगार पर थे, हालाँकि ज्यादातर लोग घाटे में चल रही इस फैक्ट्री को लेने के कल्पना के फैसले को पागलपन करार दे रहे थे। बड़ी बात ये भी कि औद्योगिक एवं वित्तीय पुनर्निर्माण बोर्ड यानी बोर्ड ऑफ़ इंडस्ट्रियल एंड फाइनेंसियल रिकंस्ट्रक्शन (बीआईएफ़आर) की ओर से उसकी नोडल एजेंसी भारतीय औद्योगिक विकास बैंक यानी इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट बैंक ऑफ़ इंडिया (आईडीबीआई) ने विज्ञापन जारी कर कमानी टयूब्स को बेचने की पेशकश की थी। इसी से घबराकर कंपनी के कुछ मजदूर कल्पना सरोज के पास पहुंचे थे। जैसे ही कल्पना ने मदद करने का भरोसा दिया मजदूरों में खुशी की लहर दौड़ गयी। मजदूर एक दिन कल्पना को कंपनी के कारखाना परिसर में ले गए, जहाँ डायरेक्टर्स की मीटिंग चल रही थी। मीटिंग में पहुँची कल्पना को कंपनी चलाने की ज़िम्मेदारी लेने को कहा गया, और कल्पना मान गयीं। अब कंपनी का हर दिन का कामकाज देखने की ज़िम्मेदारी भी कल्पना की थी। ज़िम्मेदारी सँभालते ही कल्पना ने कंपनी के इतिहास, उसके कारोबार, मुनाफे-घाटे, मौजूदा स्थिति, मजदूरों की समस्या, बैंक का क़र्ज़ जैसे मामलों की जानकारियाँ हासिल की। कारोबारी सूझ-बूझ का परिचय देते हुए कल्पना ने दस सदस्यों वाली एक विशेषग्य टीम गठित की, इस टीम में फाइनेंस, मार्केटिंग, इंजीनीयरिंग जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों के एक्सपर्ट थे। कल्पना इस टीम के सुझावों पर काम करने लगीं। कल्पना को उनकी एक्सपर्ट टीम ने बताया कि कमानी टयूब्स पर 116 करोड़ रुपये का क़र्ज़ है और इसमें एक बड़ा हिस्सा ब्याज और जुर्माने/अर्थ-दंड का है। कल्पना ने सोचा कि यदि इस फैक्ट्री को चलाना है तो कम से कम ब्याज और जुर्माने की रकम को माफ करवाया जाना बेहद ज़रूरी है। कल्पना जान गयीं कि बैंक के आला अधिकारी भी क़र्ज़ और जुर्माने की रकम माफ़ नहीं कर सकते हैं, इसी वजह से वे अपनी गुहार लेकर सीधे वित्त मंत्री के पास गईं। कल्पना के मुताबिक, उन्होंने वित्त मंत्री को बताया कि कमानी टयूब्स एक ऐतिहासिक कंपनी है लेकिन फिलहाल उसके पास कुछ है ही नहीं, अगर केंद्र सरकार ब्याज और जुर्माने की रकम माफ़ कर देती है तभी कंपनी ऋणदाताओं का मूलधन लौटाने की कोशिश कर सकती है। और अगर ब्याज और जुर्माना माफ़ न हुआ हुआ तो कोर्ट कम्पनी का दिवाला घोषित करने ही वाला है, और ऐसा हुआ तो बकायेदारों को एक भी रुपया नहीं मिलेगा। वित्त मंत्री ने कल्पना की बातें मान लीं यानी उनकी कोशिशें रंग लाईं और न केवल ब्याज और कर्ज माफ हो गया बल्कि आईडीबीआई बैंक ने मूल राशि का 25 प्रतिशत भी माफ किये जाने का फैसला ले लिया। कमानी ट्यूब्स के लिये ये फैसले संजीवनी की तरह थे। इससे मृत पड़ी कंपनी में प्राण फूंक दिये गये। इसके बाद कल्पना ने न सिर्फ कंपनी के कर्मचारियों का बकाया वेतन लौटाया बल्कि उनकी प्रोविडेंट फण्ड / भविष्य निधि की राशि भी लौटाई। गौरतलब ये भी है कि कल्पना ने अलग-अलग न्यायालयों में लंबित अलग-अलग मामलों को सुलझाने की प्रक्रिया भी शुरू की। कुछ यूनियन लीडरों ने मामलों को उलझाये रखने की भरसक कोशिश की, लेकिन वे कल्पना के इरादों को नहीं डगमगा पाए। एक-एक करते हुए कल्पना ने अपने वकीलों की मदद से सारे कानूनी मामलों को निपटाया।
आईडीबीआई बैंक, जो न्यायलय के निर्देश पर कमानी टयूब्स के पुनर्गठन-प्रक्रिया की निगरानी कर रहा था, ने साल 2006 में कंपनी के लिए निविदाएं आमंत्रित कीं। कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा बनकर कल्पना ने कमानी टयूब्स को खरीद लिया और वे कमानी टयूब्स की चेयरपर्सन बन गयीं। कंपनी की चेयरपर्सन बनने के बाद कल्पना ने नए जोश और उत्साह के साथ काम किया। कर्मचारियों ने भी कल्पना का खूब साथ दिया और इतने उत्साह और जोशोखरोश से काम किया कि घाटे में चल रही कंपनी मुनाफे में आ गयी। महत्वपूर्ण बात ये भी है कि जहाँ न्यायलय ने कल्पना को 7 साल में बैंक का क़र्ज़ चुकाने को कहा था वहीं उन्होंने इस तय अवधि से बहुत पहले ही सारा क़र्ज़ चुका दिया। उन्हें कर्मचारियों का बकाया वेतन अदा करने के लिए तीन साल का समय दिया गया था, लेकिन कल्पना ने ये रकम भी कुछ ही महीनों में अदा कर दी। और तो और, कल्पना ने जब कंपनी संभाली थी तब कर्मचारियों को कई सालों से तनख्वाह नहीं मिली थी, कंपनी पर 116 करोड़ रुपये का क़र्ज़ था, कंपनी की जमीन पर किराएदार कब्जा जमाकर बैठ गए थे, मशीनों के कलपुर्जे या तो जंग खा चुके थे या चोरी हो चुके थे, कंपनी से जुड़े 140 मामले न्यायालयों में लंबित थे। लेकिन, कल्पना ने जिस तरह से साहस, ईमानदारी, मेहनत, लगन और हार न मानने के ज़ज्बे का परिचय देते हुए घाटे में चल रही एक ऐतिहासिक कंपनी को मुनाफे में लाया और उसे पुनर्जीवित किया वो देश और दुनिया के सामने एक अद्भुत मिसाल बनकर खड़ी हो गयी है।
कमानी टयूब्स को पुनर्जीवित करते हुए कल्पना ने कामयाबी की जो कहानी लिखी है उसके इतिहास की किताबों में अपनी जगह हमेशा के लिए पक्की कर ली है। परिस्थितियाँ बिलकुल विपरीत थीं, लेकिन कल्पना ने हिम्मत नहीं हारी, कभी हार नहीं मानी। मेहनत में कोई कसार नहीं छोड़ी, कारोबारी सूझ-बूझ का परिचय दिया, हिम्मत से काम किया और आखिर में जीत गयीं। विपरीत परिस्थतियों से जूझती एक दलित और कम पढ़ी-लिखी महिला ने ये जो कारनामा कर दिखाया है ये बिज़नैस जगत के बड़े-बड़े महारथियों के लिये भी मुमकिन न था। कल्पना कहती हैं, “जब मैंने कमानी की ज़िम्मेदारी लेने का फैसला किया तब कई लोगों ने मुझे पागल कहा। लोग कहते थे ये आग का दरिया है इसे पार करना मुश्किल है। लेकिन, मैं मजदूरों की मदद करना चाहती थी। और मैं मदद करने में कामयाब भी रही, मुझे इस बात की बहुत खुशी है कि मैं कई मजदूरों की ज़िंदगी में खुशियाँ वापस लाने में कामयाब रही।” कल्पना ने ये भी कहा, “शुरू से ही मुझे काम करना अच्छा लगता है, जब काम दूसरों की मदद के लिए हो तो और भी अच्छा लगता है। मुझमें लालच बिलकुल नहीं है, मैंने बचपन से ही मेहनत की है। मेरे पास पाव (डबल रोटी) खरीदने को दस पैसे नहीं थे, लोकल ट्रेन में सफ़र करने के लिए रुपये नहीं थे तो मैं कुर्ला से चेम्बूर पैदल चलकर जाती थी। मैं आज जो भी हूँ अपनी मेहनत की वजह से हूँ, ईमानदारी की वजह से हूँ। मुझमें जब तक जान है मैं काम करती रहूँगी, लोगों की मदद करती रहूँगी।”
कल्पना ने कमानी टयूब्स का नया कारखाना ठाणे जिले के वाडा में शुरू किया। वे अपनी इस कम्पनी के कामकाज और कारोबार को भारत के बाहर विदेश में फैलाने की योजना-परियोजना भी बना चुकी हैं। वे बड़े फक्र के साथ कहती हैं, “एक समय कमानी टयूब्स को खूब नाम था, उसका गौरव था, मैं उसी गौरव वो वापस लाना चाहती हूँ। मैं कमानी टयूब्स को नयी ऊंचाइयों पर ले जाना चाहती हूँ। मैं अपने देश के लिए कुछ करना चाहती हूँ।”एक सवाल के जवाब में कल्पना ने कहा, “पैसा ज़रूरी है, लेकिन सिर्फ पैसा ही ज़िंदगी नहीं है। पैसा नहीं है तो आपको कोई नहीं पूछता है, इसीलिये पैसे कमाना ज़रूरी हैं, लेकिन इंसान होने के नाते ये फ़र्ज़ बनता है कि ज़रूरतमंद इंसान की मदद की जाय, जो इंसान तकलीफ मैं और हम उसकी मदद कर सकते हैं तो हमें उनकी मदद करनी चाहिए। पैसे से बढ़कर इंसानियत है।”
कल्पना ये मानने से बिलकुल नहीं कतरातीं हैं कि भाग्य ने उनका साथ दिया। वे कहती हैं, “मेरे जैसे बहुत कम लोग होते हैं जिनके पास मौके खुद चलकर आते हैं। वो ज़मीन बेचने वाला मेरे पास आया था, मुझे तो उसके बारे में मालूम भी नहीं था, शायद मैं उसके पास कभी जाती भी नहीं। कमानी के मजदूर भी मेरे पास आये थे, मैं उनके पास नहीं गयी थी। लेकिन, हर एक के साथ ऐसा नहीं होता। लोगों को मौकों के इंतज़ार में नहीं बैठे रहना चाहिए। उन्हें खुद मौकों की तलाश करनी चाहिए, मौके बनाने चाहिए।” एक अन्य सवाल के जवाब में इस बेहद कामयाब उद्यमी और उद्योगपति महिला ने कहा, “ अगर आपके मन में कुछ कर गुजरने का ज़ज्बा नहीं है तो आप कुछ नहीं कर सकते। जब आपके मन में कुछ बड़ा करने का ज़ज्बा आ जाता है तो डर अपने आप भाग जाता है। मुझे देखिये, मेरा पास कोई डिग्री नहीं थी, कोई मज़बूत बैकग्राउंड नहीं थी, फिर भी सच्ची लगन और मेहनत से मैं आगे बढ़ पायी। अगर इंसान में मेहनत, हिम्मत, ईमानदारी और विश्वास का ज़ज्बा हो तो ही वो कामयाब होता है।”
कल्पना सरोज बाबासाहेब अम्बेडकर को बहुत मानती हैं। बाबासाहेब के प्रति उनके मन में अटूट श्रद्धा और अमिट भक्ति है। वे कहती हैं, “ मैं आज जो कुछ भी हैं वो बाबासाहेब की वजह से ही हूँ।” लोगों को प्रेरित और प्रोत्साहित करने के मकसद से कल्पना अक्सर बाबासाहेब अम्बेडकर के कथनों को उद्दत्त करती हैं। हमसे बातचीत के दौरान भी उन्होंने कहा – बाबासाहेब कहा करते थे कि अगर मांगने से तुम्हें तुम्हारा हक़ नहीं मिलता है तो उसे छीन के लेने की ताकत तुममें होनी चाहिए , मैं कहती हूँ कि अगर तुममें ये ताकत नहीं है, तुम डरपोक हो और और अगर तुम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते तो तुम्हारा जीवन किसी काम का नहीं है। उठो और अपने हक़ के लिए लड़ो।” एक बड़ी बात ये भी है कि कल्पना सरोज की पहल और उनकी कोशिशों का नतीजा ही था कि भारत सरकार ने लंदन में वो मकान खरीदा जहाँ रहकर बाबासाहेब अम्बेडकर ने दो साल तक पढ़ाई की थी। कल्पना जब भी लंदन जाती थीं, वो इस मकान पर ज़रूर जाती थीं। लंदन की अपनी एक यात्रा के दौरान कल्पना ने देखा कि इस मकान की नीलामी की तैयारी हो रही है और उन्हें इस बात पर बहुत दुःख हुआ। उन्होंने फौरान भारत सरकार को सतर्क किया और सरकार से उस मकान को खरीदने की गुहार लगाई। सरकार भी हरकत में आयी और उस मकान का मालिकाना हक़ अपने नाम करवाने की कोशिश शुरू की, लेकिन इसी बीच देश में आम चुनाव की घोषणा कर दी गयी और आचार संहिता की वजह से काम बीच में ही रुक गया। लेकिन, चुनाव के बाद जब नयी सरकार बनी तब कल्पना ने नए सिरे से कोशिशें शुरू की। कल्पना ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अम्बेडकर के उस मकान को खरीदने का अनुरोध किया। कल्पना प्रधानमंत्री को मनाने में कामयाब रहीं और सरकार ने संविधान-निर्माता बाबासाहेब अम्बेडकर के लंदन स्थित उस तीन मंजिला मकान का मालिकाना हक हासिल कर लिया। 1921-22 में अम्बेडकर लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ाई के दौरान इसी मकान में रहते थे।
कल्पना सरोज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी बहुत मानती हैं। कल्पना के मुताबिक प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ ही मिनटों में बाबासाहेब अम्बेडकर के लंदन वाले मकान को खरीदने का फैसला ले लिया था। इतना ही नहीं प्रधानमंत्री ने मराठवाडा विद्यापीठ को अम्बेडकर का नाम देने के सालों पुरानी मांग को भी मिनटों में ही मान लिया था। कल्पना कहती हैं, “जिस दिन प्रधानमंत्री ने एक समारोह में मेरी तारीफ़ की थी वो दिन मेरी ज़िंदगी के सबसे खुशनुमा दिनों में से एक है। मैं उस दिन की खुशी को शब्दों में बयाँ नहीं कर सकती।”
लेकिन, कल्पना सरोज को इस बात का बहुत दुःख है कि देश में दलितों और अन्य पिछड़ी जाति के लोगों के प्रति लोगों की मानसिकता नहीं बदली है। उनका कहना है थोड़ा बदलाव आया है लेकिन हालात ज्यादा नहीं सुधारे हैं। उनकी सलाह है कि दलित समुदाय के लोगों को हर क्षेत्र में आगे आना चाहिए और अपने मन के डर को मिटाकर काम करना चाहिए। कल्पना कहती हैं, “मैंने जब शुरुआत की थी तब मौके नहीं थे, अब लोगों के सामने कई मौके हैं, पढ़ाई-लिखाई करने के मौके, नौकरी पाने के मौके, कारोबार चालू करने के मौके हैं। लोगों को इन मौकों का पूरा फायदा उठाना चाहिए। हर इंसान को अपना रास्ता खुद बनाना चाहिए।” बड़ी बात ये भी है कि धन-दौलत और संपत्ति की मालिक बनने और दुनिया-भर में शोहरत हासिल कर लेने के बाद भी कल्पना ने समाज-सेवा में भी कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। वो महिलाओं, आदिवासियों , दलितों , गरीब और ज़रूरतमंद बच्चों की मदद के लिए कई तरह के कार्यक्रम आयोजित करती हैं। हज़ारों ज़रूरतमंद बच्चे और महिलाएं उनकी मदद से चलने वाली संस्थाओं से लाभ उठा चुके हैं।
कल्पना सरोज आज एक नहीं कई तरह के कारोबार कर रही हैं। वे कई कंपनियों की मालिक हैं। कंस्ट्रक्शन, इंफ्रास्ट्रक्चर, टयूब्स, माइनिंग इंडस्ट्री में उनका खूब नाम है। उन्होंने फिल्म-निर्माण, हॉस्पिटैलिटी और टूरिज्म के क्षेत्र में भी पाने पाँव जमा लिए हैं। कृषि और उससे जुड़े व्यवसाय से भी उनका सम्बन्ध बढ़ता जा रहा है। उन्होंने विमानन क्षेत्र में भी नयी ऊंचाईयां छूने की ठान ली है। करोड़ों की संपत्ति उनके नाम है। उनकी गिनती अब भारत की सबसे कामयाब उद्यमियों, कारोबारियों में होने लगी है। समाज-सेवी के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। लोगों के बीच वे अदम्य साहस की प्रतिमूर्ति हैं, ईमानदारी का प्रतीक हैं, इंसानियत के अद्भुत मिसाल हैं। उनकी कहानी से लोगों को सीखने के लिए बहुत कुछ है। उनकी कहानी में संघर्ष है, पीड़ा है, दुःख-दर्द है, शोषण है और इन सब के साथ-साथ कामयाबी हासिल करने के मन्त्र भी हैं। उनकी कहानी निराश मन को प्रेरणा देने का माद्दा रखती हैं। उनकी कामयाबी को कईयों से सलाम किया है। कई संस्थाओं ने उन्हें पुरस्कारों/अवार्डों से सम्मानित किया है। भारत सरकार ने उन्हें "पद्मश्री" भी नवाज़ा हैं। आज सफलता के शिखर पर बैठीं कल्पना के पास वह सबकुछ है जिसकी शायद उन्होंने कभी कल्पना भी न की हो।
(कल्पना सरोज से हमारी ये बेहद ख़ास मुलाकात उल्हासनगर में उनके मकान पर हुई। हर मुद्दे पर उन्होंने खुलकर अपनी राय ज़ाहिर की। अपने जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं के बारे में हमें विस्तार ने बताया। कैमरे पर भी अपनी बातें उन्होंने कहीं। इस बातचीत के दौरान कई बार वो बहुत भावुक भी हुईं, वे अपने आंसू रोक नहीं पायीं। लेकिन, बातचीत के दौरान उन्होंने इस बात का भी आभास करवाया कि वे किसी से डरती नहीं हैं, उन्हें मौत का भी डर नहीं है, मुसीबत चाहे कितनी ही बड़ी क्यों न हो वे उसका मुकाबला करने के लिए तैयार हैं। बातचीत से हमें ये भी अहसास हुआ कि कल्पना ऐसा मौके के इंतज़ार में हैं जहाँ सभी हार मान लें और फिर वो मैदान में उतरें और कामयाबी हासिल कर अपना लोहा मनवायें। उनमें इस बात की इच्छा भी प्रबल दिखी कि वे कुछ इतना बड़ा और साहसी काम करना चाहती हैं जोकि उससे पहले कभी न किया गया हो, कमानी को पुनर्जीवित करने से भी बहुत बड़ा काम।
कल्पना सरोज के करीबी लोगों के मुताबिक, उन्होंने मुंबई में ही एक फर्नीचर कारोबारी से दूसरी शादी की थी। दोनों को दो बच्चे हुए। करीबी लोगों ने ये भी बताया कि कल्पना को अपनी दूसरी शादी के बारे में बातचीत करना पसंद नहीं है।
जब हम इंटरव्यू के लिए कल्पना के मकान पर पहुंचे थे तब उनकी बेटी ने ही हमारा स्वागत किया। बेटी, माँ के सारे कामकाज में उनकी हर मुमकिन मदद करती हैं। बेटी ने ब्रिटेन से होटल मैनेजमेंट का कोर्स किया है और अपने दम पर हॉस्पिटैलिटी इंडस्ट्री में बड़ा नाम कमाना चाहती हैं। कल्पना का बेटा पायलट है और माँ उनकी ऊंची उड़ान से भी बहुत खुश हैं। कल्पना के दामाद भी कारोबार को विस्तार देने में उनकी मदद कर रहे हैं।)