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इस 'असरदार सरदार' की कहानी हर पीढ़ी के लोगों को प्रेरणा देने का दमखम रखती है, करोड़ों का कारोबारी साम्राज्य खड़ा करने वाले जोध सिंह ने बहन के कान की बाली बेचकर शुरू की थी कारोबारी जीवन की शुरूआत ... बुद्धिमत्ता,दृढ़ता, मेहनत और संघर्ष के दम पर हासिल की नायाब कामयाबी

इतिहास की किताबें बताती हैं कि 1947 में भारत के विभाजन के समय जो हिंसा हुई उसमें कई लोगों की जान गयी। हजारों लोगों के घर-बार उजाड़ गए, कई परिवार तबाह हुए। लाखों लोग पाकिस्तान छोड़कर हिंदुस्तान आये और करीब-करीब उतने ही लोग हिंदुस्तान से पाकिस्तान गए। एक ही जगह पर सालों से रहने वाले हजारों लोगों को अपना घर-मकान, जमीन-जायदाद, खेत-संपत्ति सब कुछ छोड़कर हिंदुस्तागन से पाकिस्ताकन और पाकिस्तानन से हिंदुस्ता,न जाना पड़ा। पाकिस्तान से बड़ी संख्या में हिन्दू और सिख हिंदुस्तान आये और हिंदुस्तान से कई सारे मुसलमान पाकिस्तान गए। विभाजन के समय लोगों का जो विस्थापन हुआ वो दुनिया के सबसे बड़े विस्थापनों में एक गिना जाता है। इतना ही नहीं, कई इतिहासकार हिंदुस्तान के विभाजन को दुनिया के इतिहास की सबसे भीषण मानवीय त्रासदी करार देते हैं। इसकी वजह भी साफ़ है, विभाजन के समय जो हिंसा हुई, दंगे हुए, मार-काट हुई, लूट-पाट मची उसमें हजारों लोगों की जान गयी। दंगाइयों और बदमाशों ने महिलाओं और बच्चों को भी नहीं छोड़ा, उनका भी क़त्ल किया। विभाजन अपने पीछे भयानक तबाही का मंजर छोड़ गया था। कई जगह पर लाशों के ढेर लगे थे। कई गलियाँ, खेत और गाँव खून के धब्बों से सन गए थे। परिवार टूट गए थे, लोगों के प्रियजन उनसे बिछड़ गए थे। हिंसा और अफरा-तफरी की वजह से कईयों ने अपने बच्चे खोये थे, तो कई बच्चे अनाथ हुए थे। लाखों परिवारों के लिए विभाजन के वो दिन सबसे खतरनाक और भयवाह थे। विभाजन का इतिहास रक्तरंजित है और अत्याचार, बलात्कार, हिंसा, लूटपाट, अफरातफरी, कत्लेआम जैसी अमानवीय, और जघन्य, घटनाओं से भरा हुआ। इन घटनाओं को झेलने के बाद जो लोग किसी तरह से जान बचाकर पाकिस्तान से हिंदुस्तान आये थे उन लोगों को इस त्रासदी से उभरने और अपने जीवन को फिर से सामान्य बनाने के लिए कई मुसीबतों का सामना करना पड़ा, काफी तकलीफें झेलनी पड़ी। हिंदुस्तान के विभाजन को जिन लोगों ने देखा और सहा उन लोगों में आज भी कई लोग जिन्दा हैं और इन लोगों के दिल में विभाजन के समय की हिंसा से हुआ दुख और दर्द अभी ख़त्म नहीं हुआ है और वो रह-रहकर ताज़ा होता है और परेशान करता है। हिंदुस्तान के विभाजन के दौरान हुई हिंसक घटनाओं और उन घटनाओं का जो प्रभाव लोगों की ज़िंदगी पर पड़ा उस पर हिंदुस्तान और पाकिस्तान में साहित्यकारों ने कई कहानियां, उपन्यास, कविताएँ लिखीं। इतिहासकारों ने किताबें लिखीं, लेख लिखे। फिल्मकारों ने फिल्में बनायीं। इन सब की वजह से हिंदुस्तान के विभाजन के समय की त्रासदी के बारे में मौजूदा पीढ़ी के कई लोग भी जानते हैं। और शायद इन्हीं की वजह से आने वाली पीढ़ियाँ भी विभाजन की त्रासदी को जान और समझ पाएंगी। बड़ी बात ये भी है कि जिन लोगों ने विभाजन की घटनाओं, दुर्घटनाओं, हिंसा को झेलने के बावजूद अलग-अलग क्षेत्रों में, अलग-अलग जगह, अनोखा, अनूठा और बड़ा काम कर नाम कमाया उनकी कहानियाँ अमर हैं। उनका काम अविस्मरणीय है, चिरस्मरणीय है। इन लोगों की कहानियाँ लोगों को सीख देती रहेंगी, अच्छा और बड़ा काम करने के प्रेरित और प्रोत्साहित करती रहेंगी। ऐसी ही एक सच्ची कहानी है सरदार जोध सिंह की। जोध इंदरजीत ग्रुप के संस्थापक और अध्यक्ष सरदार जोध सिंह ने विभाजन की त्रासदी को देखा और झेला है। विभाजन के समय जोध सिंह को अपने परिवारवालों के साथ पाकिस्तान में अपना घर-मकान, खेत-गाँव, ज़मीन-जायजात सब कुछ छोड़कर हिंदुस्तान आना पड़ा। उनके लिए भी पाकिस्तान से हिंदुस्तान का वो सफ़र बेहत खौफनाक था। उन्होंने भी तबाही और बर्बादी का मंज़र देखा था। हिंदुस्तान आने के बाद भी जोध सिंह को कई सारी तकलीफों और मुसीबतों का सामना करना पड़ा था। लेकिन, उन्होंने कभी हार नहीं मानी, मेहनत और ईमानदारी की राह नहीं छोड़ी। अपनी बहन के कान की बाली बेचकर पंजाब के लुधियाना में कारोबार शुरू करने वाले जोध सिंह ने आगे चलकर करोड़ों रुपयों का कारोबारी साम्राज्य खड़ा किया। विस्थापित होकर पाकिस्तान से हिंदुस्तान आये जोध सिंह ने कोलकाता को अपनी कर्म-भूमि बनाया और गाय-भैंस खरीदने-बेचने का कारोबार शुरू किया। ये कारोबार चल पड़ा तो दूध और दूध से जुड़े उत्पाद बेचने शुरू किये। आगे चलकर परिवहन, दूरसंचार, लोहा-इस्पात, शिक्षा, चिकित्सा, विज्ञान-प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में भी कारोबार किया और खूब धन-दौलत और शोहरत कमाई। बच्चे बड़े हुए तो उन्हें अलग-अलग जिम्मेदारियां सौंपी। अपने कारोबारी जीवन में जोध सिंह ने हज़ारों लोगों को रोज़गार दिया और लाखों लोगों के जीवन को सीधे प्रभावित किया। ज़रूरतमंद और गरीब लोगों की मदद करते हुए एक समाज-सेवी के रूप में अपनी बेहद ख़ास पहचान बनाई।

इस 'असरदार सरदार' की कहानी हर पीढ़ी के लोगों को प्रेरणा देने का दमखम रखती है, करोड़ों का कारोबारी साम्राज्य खड़ा करने वाले जोध सिंह ने बहन के कान की बाली बेचकर शुरू की थी कारोबारी जीवन की शुरूआत ... बुद्धिमत्ता,दृढ़ता, मेहनत और संघर्ष के दम पर हासिल की नायाब कामयाबी

Sunday November 13, 2016 , 31 min Read

सरदार जोध सिंह की कहानी आसाधारण कहानी है, उनकी कहानी कामयाबी की गज़ब की कहानी है। उनकी कहानी में विभाजन की त्रासदी है, विस्थापित का दर्द है, शरणार्थी की पीड़ा है, अचानक रातोंरात सब कुछ खोने का दुःख है, फिर से सब कुछ पाने की कोशिश में किया हुआ संघर्ष है, संघर्ष से सफलता है, सफलता भी कोई मामूली सफलता नहीं, ऐतिहासिक सफलता है। इस बात में दो राय नहीं कि सरदार जोध सिंह की कहानी हर पीड़ी के लोगों को प्रेरणा देने का दमखम रखती है। कामयाबी की इस अद्भुत कहानी के नायक जोध सिंह का परिवार विभाजन से पहले पाकिस्तान के एक गाँव में दूध और कपड़ों का कारोबार किया करता था। भारत के विभाजन से पहले परिवार में सुख था, शांति थी। लेकिन, भारत के विभाजन की प्रक्रिया क्या शुरू हुई, परिवार मुसीबतों से घिर गया। परिवारवाले नहीं चाहते थे कि वे अपना गाँव, मकान, ज़मीन-जायजात, दोस्त-रिश्तेदारों को छोड़कर कहीं और जाएँ। लेकिन हालात कुछ इस तरह से बिगड़ने लगे कि जोध सिंह के परिवारवालों को पाकिस्तान छोड़कर भारत आने के लिए मजबूर होना पड़ा।

जोध सिंह के ज़हन में विभाजन के घाव अब भी ताज़ा हैं। उन दिनों की मारकाट-लूटपाट, दंगे-फसाद, हिंसा को वे नहीं भूल पाए हैं। वो यादें आज भी उन्हें बहुत तकलीफ देती हैं। उन्होंने लोगों को अपना घर-द्वार, धन-दौलत सभी कुछ छोड़कर एक मुल्क से दूसरे मुल्क जाते देखा है। गाँव के गाँव लुटते और तबाह होते देखे हैं। कत्ले-आम देखा है और मौत का भयानक मंज़र भी। रूह को हिलाकर रख देने वाली बच्चों और महिलाओं की चीख-पुकार सुनी है। लोगों को दर्द और पीड़ा से कराहते देखा है, एक रोटी के लिए बिलखते, तड़पते देखा है। सुखी और सम्पन्न घर-परिवारों को उजड़ते देखा है, अपनों के बिछड़ने पर लोगों को आंसू बहते और जोर-जोर से रोते देखा है। 

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हमसे बातचीत के दौरान जोध सिंह ने बताया कि जितने हिन्दू और सिख परिवार थे सभी पाकिस्तान छोड़कर हिन्दुस्तान जाने लगे थे। कई लोग पैदल ही निकल पड़े थे तो कुछ लोग गाड़ियों से हिन्दुस्तान जाने लगे थे। कोई अपनी बैल गाड़ी से रवाना हुआ तो कई लोगों ने मिलकर ट्रक का इंतज़ाम किया और उस पर सवार होकर हिन्दुस्तान के लिए रवाना हुए। लेकिन, कई लोगों को बीच में मार कर उनका सारा सामान लूट लेने की खबरें आने लगी थीं। दंगे होना आम बात हो गयी और लोगों को जिन्दा काट दिए जाने की खबरें हर तरफ से सुनाई देने लगी थीं। सिख भी मुसलामानों के हाथों हिंसा का शिकार होने लगे थे। हालात दिन-बी-दिन बिगड़ते जा रहे थे। जोध सिंह को वो दिन अब भी अच्छी तरह से याद है जब उनके गाँव के सभी सिख इक्कठा हुए और सभी ने हालात के मद्देनज़र तुरंत गाँव छोड़कर हिन्दुस्तान चले जाने का फैसला किया। फैसला किया गया कि रात को हिंदुस्तान से एक ट्रक आने वाला है और उसी पर सवार होकर सभी सिख हिंदुस्तान चले जाएंगे। गाँव में लोग ट्रक के आने का इंतज़ार कर रहे थे। रात हो गयी थी और जोध सिंह का परिवार भी हिंदुस्तान जाने की तैयारी कर रहा था। इतने में चार मुसलमान जोध सिंह के घर आ पहुंचे। उन्हें देखकर परिवारवाले घबरा गए, उन्हें लगा कि मारकाट और लूटपाट के मकसद से ही वे मुसलमान वहां आये हैं। जोध सिंह के परिवारवालों के मन की शंका को जानकार उन मुसलामानों ने कहा कि वे उनके हमदर्दी हैं और सिर्फ उनकी मदद करने के मकसद से वहां आये हैं। हमदर्दी वाली बात सुनकर जोध सिंह के पिता ने पूछा कि वे किस तरह से उनकी मदद कर सकते हैं? इस सवाल के जवाब में एक मुसलमान से कहा – यहाँ से अगर आप निकल भी गए तब आगे आपके साथ बुरा हो सकता है, लोग आपकी जान ले सकते हैं, अगर आप हमारी एक बात मान लें तब आप सबकी जान बच सकती है। इस पर जोध सिंह के पिता ने पूछा – कौन-सी बात माननी होगी हमें ? क्या चाहते हैं आप ? इस पर उस मुसलमान से कहा – आप लोग मुसलमान बन जाओ, हम आपके साथ खड़े रहेंगे, कोई आपको कुछ भी नहीं करेगा। अगर कोई आपको मारने भी आया तब हम आपकी हिफाज़त करेंगे और कहेंगे कि आप सभी हमारे दीन में आ गए हैं। अगर आप मुसलमान बन गए तब सब आपके साथ हो जाएंगे। जोध सिंह के पिता को ये बात पसंद नहीं आयी। वे मरने को तैयार थे लेकिन दीन बदलने को नहीं। उन्होंने उन मुसलामानों की मंशा को जानकार उनके सामने एक प्रस्ताव रखा। जोध सिंह के पिता ने उन मुसलामानों से कहा कि अगर वे उन्हें और उनके परिवार को सुरक्षित हिंदुस्तान पहुंचा दें तो वे अपनी सारी सम्पंत्ति उन्हें देने के लिए तैयार हैं। वे सिर्फ अपने साथ बंदूकें और असला ले जाएंगे। मुसलामानों को ये बात रास आ गयी और उन्होंने प्रस्ताव मान लिया। लेकिन, जोध सिंह के पिता ने एक शर्त रखी, उन्होंने मुसलामानों से मस्जिद की तरफ मूंह करके ये कसम खाने को कहा कि उनके परिवार को सुरक्षित हिंदुस्तान पहुंचा पाने की ज़िम्मेदारी उनकी है। उन मुसलामानों को जोध सिंह के परिवार की सारी संपत्ति मिलने वाली थी इसी वजह से उन्होंने खुशी-खुशी कसम खा ली।

जोध सिंह के मुताबिक, जैसे ही उनका परिवार हिंदुस्तान के लिए रवाना हुआ गाँव पर मुसलामानों ने हमला कर दिया। बहुत लोगों का क़त्ल कर दिया गया, कुछ ही लोग अपनी जान बचाकर भागने में कामयाब रहे थे। हिंदुस्तान की जमीन की ओर बढ़ते वक्त मुसलामानों ने जोध सिंह के परिवार पर भी हमले करने की सोची थी, लेकिन जिन चार मुसलामानों ने अल्लाह के नाम पर कसम खाई थी उन लोगों ने हमला होने नहीं दिया। जोध सिंह ने कहा, “उन लोगों ने हमें ईमान दिया था और रास्ते में जो कोई हम पर हमला करने को बढ़ता था ये लोग उनसे कहते थे – ये लोग हमारे अपने लोग हैं , हमने इनको ईमान दिया, इनका कोई कुछ नहीं करेगा।” पाकिस्तान से हिन्दुस्तान जाने के रास्ते में एक बार मंज़र ऐसा दिखा कि जोध सिंह के परिवारवालों को लगा कि अब कोई भी मुसलमानों के हाथों नहीं बच पाएगा। जोध सिंह का परिवार जब एक गाँव से गुज़र रहा था तब वहां वॉलीबॉल खेल रहे कुछ लड़कों ने जोर-जोर से चिल्लाकर पूरा गाँव इक्कठा करवा लिया। सारे गांववालों के आखों में गुस्सा था और सभी जोध सिंह के परिवार को ख़त्म कर देना चाहते थे। पाकिस्तान में हालात इतने बिगड़ चुके थे कि जहाँ कोई सिख या हिन्दू दिखता; उसका क़त्ल कर दिया जाता। जोध सिंह के परिवारवाले भी उन गांववालों को इक्कठे देखकर घबरा गए, उन्हें लगा कि अब बचना मुश्किल है। लेकिन, जिन मुसलामानों ने कसम खाई थी उन्हीं लोगों ने परिवार को बचाया और उस शहर तक पहुंचा दिया जहाँ हिंदुस्तान की फ़ौज हिन्दुस्तानियों को सुरक्षित अपने यहाँ ले जाने आयी थी। जोध सिंह बताते हैं कि जब उनका परिवार हिंदुस्तान की फौज के पास पहुँच गया तब जाकर सभी परिवारवालों ने राहत की सांस ली। हिन्दुस्तानियों को पाकिस्तान से सुरक्षित ले जाने के लिए डोगरा रेजिमेंट आयी हुई थी। डोगरा रेजिमेंट के पास पहुँचते ही कई हिन्दुस्तानियों ने शिकायत की थी कि उनके परिवार की कई लड़कियों को पाकिस्तानियों ने बंधक बनाया हुआ है। इस बात की शिकायत पर डोगरा रेजिमेंट ने ऐलान किया कि अगर चौबीस घंटे के अन्दर लड़कियों वो वापस नहीं भेजा गया तो हिन्दुस्तानी सेना पाकिस्तानी गाँवों पर धावा बोलकर उन्हें तबाह कर देगी और हिन्दुस्तानी लड़कियों को छुड़ा लेगी। इस धमकी का असर देखने को मिला और कई पाकिस्तानियों ने हिन्दुस्तानी लड़कियों को आज़ाद कर दिया और वे अपने परिवार के पास आ गयीं। जोध सिंह के मुताबिक, कई लडकियां आ गयी थीं, लेकिन कुछ लड़कियों के बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं मिली।

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डोगरा रेजिमेंट के पास पहुँचने के बाद भी जोध सिंह और दूसरे परिवारवालों की तकलीफें दूर नहीं हुईं। पाकिस्तान से कई हिन्दू और सिख परिवार डोगरा रेजिमेंट की ट्रकों पर सवार होकर हिंदुस्तान के लिए रवाना हुए थे। सबसे आगे जो गाड़ी थी उसमें रेजिमेंट के आला अफसर राम सिंह डोगरा सवार थे। लेकिन, पाकिस्तानियों के हिंदुस्तानियों को मारने के लिए रास्ते पर बारूद बिछा रखा था और जैसे ही पहली गाड़ी उसपर से गुज़री तब विस्फोट हो गया और राम सिंह डोगरा बुरी तरह से ज़ख़्मी हो गए। विस्फोट में कई डोगरा डोगर इतनी बुरी तरह से ज़ख़्मी हुए थे कि उनका बच पाना मुश्किल था। ऐसी हालत में भी राम सिंह डोगरा ने बड़ी सूझ-बूझ से काम लिया और अपने सैन्य-कौशल का परिचय दिया। राम सिंह डोगरा ने सारे हिंदुस्तानियों से कहा कि आगे के रास्ते में किसी भी पाकिस्तानी को इस बात का पता नहीं चलना चाहिए कि मैं ज़ख़्मी हूँ या मर गया हूँ, अगर पाकिस्तानी ये जान लेंगे कि मैं नहीं हूँ तो वे इस काफिले में किसी को भी जिंदा नहीं छोड़ेंगे। राम सिंह डोगरा के आदेश के मुताबिक डोगरा रेजिमेंट के बाकी बचे सैनिक हिन्दुस्तानियों को लेकर हिंदुस्तान की ओर आगे बढ़े। धीरे-धीरे करते हुए डोगरा रेजिमेंट के हिंदुस्तानी सैनिक और उनके संरक्षण में चल रहे सिख और हिंदू लोग उकाड़ा मंदी पहुंचे। इस शहर का आलम देखकर लोगों की आँखें चकरा गयीं। शहर में हर तरफ लाशें ही लाशें थी। लाशों को ठिकाने लगाने वाला भी कोई नहीं था। उकाड़ा मंदी में खून के गंदे खेल के निशान देखने के बाद डोगरा रेजिमेंट ने हिंदुस्तान की ओर अपनी रफ़्तार तेज की। जैसे ही डोगरा रेजिमेंट के ट्रक अमृतसर पहुंचे लोगों की जान में जान आयी। जोध सिंह के मुताबिक, पाकिस्तान से हिंदुस्तान का वो सफ़र बहुत ही खौफनाक था। मौत का साया साथ चलता रहा था। कभी भी कुछ भी हो सकता था। और सफ़र के दौरान लोगों ने जिस तरह से गाँवों में, सड़कों पर, खेतों में खून बहता देखा था और लाशों के ढेर देखे थे उन दृश्यों से लोगों की रूह कांप गयी थी। दंगाइयों और लुटेरों ने औरतों और मासूम बच्चों को भी नहीं छोड़ा था। 

हिंदुस्तान पहुँचने के बाद भी लोगों की तकलीफें दूर नहीं हुईं थीं। पाकिस्तान की सीमा से सटे हिंदुस्तान के जो छोटे-बड़े शहर थे वहां हर जगह लोगों का हुजूम था। जोध सिंह का परिवार अमृतसर पहुंचा था और अमृतसर में भी पाकिस्तान से आये लाखों लोग जमा थे। इन सभी लोगों ने भारत सरकार और फौज के बनाये शिविरों में पनाह ली थी। कई लोगों को गुरूद्वारे में शरण दी गयी थी। जोध सिंह का परिवार भी गुरूद्वारे में ही रहने लगा। जोध सिंह के परिवार की तरह ही बाकी सारे शरणार्थियों के पास भी कुछ कपड़े, कुछ बर्तन, कुछ जेवर और कुछ नगदी ही थी। पाकिस्तान से ये सारे हिंदू और सिख अपना सब कुछ – खेत, मकान, गाँव, अनाज, जानवर, धन-दौलत सभी छोड़कर आये थे या फिर उनका ये सब लूट लिया गया था। कई लोग ऐसे भी थे जिन्हें जिंदा बचे होने की खुशी भी नहीं थी क्यों उनके अपने प्यारे परिजन मारे जा चुके थे या फिर कहीं खो गए थे। विभाजन ने कई परिवारों से उनका सब कुछ छीन लिया था। रातोंरात सब कुछ लुट गए थे। दिन के उजाले में भी लूट हुई थी। देश का विभाजन तो हुआ ही था कई परिवारों का भी विभाजन हो गया था। अपने या तो छूट गए थे या हमेशा के लिए जुदा हो गए थे। कई लोगों ने अपनी आँखों के सामने अपने माता-पिता, भाई-बहनों और दूसरे परिजनों का क़त्ल होते देखा था।

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हर शरणार्थी मायूस, बेबस, पीड़ित, शोषित, दुखी, हताश नज़र आ रहा था। अपने भविष्य को लेकर सभी परेशान थे। शरणार्थियों को इस बात की भी चिंता थी कि आखिर कब तक सरकार, फ़ौज, मंदिर और गुरूद्वारे उनका भरण-पोषण करेंगे। इसी तरह की चिंता अब जोध सिंह को भी परेशान करने लगी थी। कुछ दिन तक अमृतसर में गुरूद्वारे में रहने के बाद उन्हें अहसास हुआ कि एक न एक दिन तो उन्हें भी गुरूद्वारे से बाहर जाना ही होगा, अपना कोई नया ठिकाना ढूँढना ही होगा, अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए कमाई करनी ही होगी। इसी चिंता ने जोध सिंह को कमाई का जरिया ढूँढने के लिए मजबूर कर दिया। 

जोध सिंह को एक दिन अचानक अमृतसर में उनके गाँव के कुछ लोग नज़र आये। अपने गाँव के लोगों को देखकर जोध सिंह उनकी तरह भागे। गांववालों के पास पहुँचते ही जोध सिंह ने सबसे पहले – ‘सत श्री अकाल’ कहा और उनका अभिवादन किया। इसके बाद जोध सिंह ने पूछा कि गांववाले कहा रह रहे हैं, उनकी गुज़र-बसर कैसे हो रही है? इन सवालों के जवाब में गांववालों ने जोध सिंह को बताया कि उनके गाँव के कई लोग लुधियाना में रह रहे हैं। लुधियाना के पास गाँवों में जो मुसलमान रहते थे वे सभी पाकिस्तान चले गए हैं और उनके मकान और खेत खाली हैं। कई सिख और हिन्दू इन्हीं मकानों में रह रहे हैं और खेतों से जो अनाज और सब्जियां मिल रही हैं उसी से घर-परिवार चला रहे हैं। गांववालों ने ये भी बताया कि पाकिस्तान से आये कई सिख कलकीधन गुरुद्वारा में भी शरण लिए हुए हैं। ये बात जानकर जोध सिंह का मन गदगद हुआ और उन्होंने फट से पूँछ लिया – क्या हम भी लुधियाना आ सकते हैं ? हमारे लिए भी कुछ है क्या वहां पर है – कोई मकान या खेत ? इन सवालों के जवाब में उनके गाँव के एक शख्स ने बताया – वहां लुधियाना के पास अब भी कई मकान खाली हैं, खेत भी खूब सारे हैं – कोई भी आकर वहाँ अपनी जगह पक्की कर सकता है। बस ये बात सुनने की देरी थी, जोध सिंह वापस अमृतसर गुरूद्वारे की ओर दौड़े और अपने परिवारवालों को लुधियाना वाली बात बताई। इसके बाद जोध सिंह अपनी बहन, भाई और दूसरे रिश्तेदारों के साथ लुधियाना चले आये। लुधियाना पहुँचने के बाद जोध सिंह ने अपने गांववालों से पूछा कि उनके परिवार के लिए मकान कहाँ मिलेगा, तब एक शख्स ने बताया कि कई सारे मकान अब भी खाली हैं और जो मकान उन्हें पसंद आये उसे वे अपना बना लें। जोध सिंह और उनके परिवारवालों ने एक साफ़ सुथरा और सुन्दर मकान देखकर उसे अपना बना लिया।

जोध सिंह को मकान तो मिल गया था लेकिन कमाई की चिंता उन्हें अब भी सता रही थी। उन्होंने एक बार फिर लुधियाना में जम चुके अपने गांव के लोगों की ओर रुख किया। इस बार भी गांववालों ने ही जोध सिंह को नया रास्ता दिखाया। गांववालों ने बताया कि वे खेतों में जाते हैं और वहां से आलू लाकर बाज़ार में बेचते हैं और फिलहाल इसी से आमदनी हो रही है। जोध सिंह ने गांववालों से उन्हें भी साथ में खेत ले चलने का अनुरोध किया, जिसे गांववालों ने मान लिया। इसके बाद गांववालों ने जोध सिंह के एक हाथ में हंसिया थमाया और दूसरे में बोरी। खेत से आलू चुनकर लाने के लिए जोध सिंह गांववालों के साथ खेत की ओर चल पड़े। जब जोध सिंह खेत की ओर जा रहे थे तब रास्ते में उन्हें कई मुसलमान दिखाई दिए। ये सभी मुसलमान अपने परिवारवालों के साथ हिंदुस्तान छोड़कर पाकिस्तान जा रहे थे। सभी मुसलमान एक कतार में चल रहे थे। जिस हालत में हिंदुस्तानी पाकिस्तान से आये थे उसी हालत में मुसलमान भी हिंदुस्तान से पाकिस्तान जा रहे थे यानी अपना सब कुछ छोड़-छाड़ के सिर्फ अपने परिवारवालों को साथ लिए नए मुल्क जा रहे थे। सभी निराश, हताश, मायूस, पीड़ित, दुखी थे।

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जोध सिंह ने मुसलमानों की इसी क़तर में एक बूढ़े इंसान को एक भैंस ले जाते हुए देखा। उस बूढ़े इंसान को भैंस को अपने साथ ले जाने में बड़ी तकलीफ हो रही थी। जोध सिंह को इस नज़ारे में एक मौका नज़र आया। वे सीधे उस बूढ़े मुसलमान के पास पहुंचे और बड़े अदब से कहा – बड़े मियाँ, सलाम। इस सलाम का जवाब सलाम में मिला तब जोध सिंह ने उस बूढ़े इंसान से पूछा – बड़े मियाँ ये भैंस बेचोगे? ये सवाल सुनकर उस बूढ़े इंसान की आँखों में एक चमक आ गयी और उसने कहा- हां बेचूंगा। इस पर जोध सिंह ने कहा – मेरे पास सिर्फ चालीस रुपये हैं और क्या आप इसे चालीस रुपये में मुझे देंगे ? बूढ़े इंसान ने कहा – ये भैंस चलती नहीं है, अगर तुम्हें लेना है तो ले लो और मुझे रुपये दे दो। ये बात सुनकर जोध सिंह ने बूढ़े इंसान से कहा – आप यहीं रुकिए मैं रुपये लेकर आता हूँ। इसके बाद जोध सिंह दौड़ते हुए अपने घर गए। घर पर रुपये थे नहीं, उन्होंने अपनी बहन से कान की बाली ली और उसके ले जाकर सुनार को बेच दिया। जोध सिंह ने बताया कि उनकी बहन के कान की वो बाली एक तोले की थी और सुनार ने इसके बदले उन्हें 102 रुपये दिए थे। इन्हीं 102 रुपयों में से 40 रुपये निकालकर जोध सिंह उस बूढ़े इंसान के पास पहुंचे और उन्हें ये रुपये देकर भैंस खरीद ली। जोध सिंह की ज़िंदगी का ये पहला सौदा था और इसी सौदे से वे कारोबारी बन गए। 

जोध सिंह की कारोबारी ज़िंदगी की शुरूआत बेहद दिलचस्प है। बड़ी बात ये है कि जोध सिंह का पारिवार पाकिस्तान में दूध और कपड़ों का कारोबार किया करता था। जोध सिंह का बचपन गायों और भैंसों के बीच में ही बीता था। जोध सिंह दूध के कारोबार को अच्छी तरह से समझते थे। वे गाय, भैंसों की कीमत भी जानते थे। वे इतने माहिर हो चुके थे कि किसी गाय या भैंस को देखकर उनकी उम्र बता देते थे। उम्र और सेहत का मुआयना कर वे गाय और भैंस की कीमत का भी सही आंकलन कर लेते थे। जब उन्होंने उस बूढ़े इंसान के पास वो भैंस देखी तब उन्हें ये अहसास हो गया कि वो आदमी भैंस को अपने साथ ले चलने में मुसीबत झेल रहा है और अगर कोई उसे रुपये दे दे तो वो भैंस बेच देगा। जोध सिंह का अनुमान सही था। जोध सिंह ये भी जानते थे कि भैंस की कीमत 200 रुपये से कम नहीं है और वो बूढ़ा इंसान छोटी-सी कीमत पर भी भैंस बेच देगा, इसी वजह से जोध सिंह ने उन्हें भैंस के बदले 40 रुपये देने की पेशकश की थी। 40 रुपये में भैंस खरीदने के बाद जोध सिंह उसे बेचने के लिए निकल पड़े। रास्ते में उन्होंने देखा कि एक आदमी दूध बेच रहा है और इसे देखकर जोध सिंह को लगा कि ये दूध का कारोबारी है और भैंस खरीद सकता है। इस बार जोध सिंह ने दूध बेच रहे उस इंसान से सीधे बेचने-खरीदने की बात नहीं की। कारोबारी सूझ-बूझ का परिचय देते हुए जोध सिंह ने उस इंसान के कहा – हम पाकिस्तान से आये हैं और इस भैंस को बेचना चाहते हैं, क्या आप बता सकते हैं कि वो अड्डा (बाज़ार) कहाँ है जहाँ गाय-भैंसों का सौदा होता है? ये सवाल सुनकर उस इंसान ने कहा – हम खरीदेंगे इसे। जोध सिंह के कहा – ले लो। दूध के कारोबारी ने अपनी शंका दूर करने के पूछा – ये भैंस चोरी की तो नहीं है? चोरी वाले इस सवाल के जवाब में जोध सिंह ने अपने तेवर बदले और कहा – “हम तो पाकिस्तान से इसे ला रहे हैं और मैंने तुमसे रास्ता पूछा हैं। मैं रास्ता पूछ रहा हूँ और तुम इसे चोरी की बता रहे हो, अगर तुम्हें रास्ता नहीं बताना है तो मत बताओ, मैं किसी और से पूछ लूँगा। मैं दूसरों को बेच दूंगा। वैसे भी चोरी का माल आधे दाम में बिकता है, ये भैंस मेरी अपनी है और मैं इसे पूरे दाम में बेचूंगा।” ये बातें कहकर जोध सिंह वहां से आगे बढ़ गए। जोध सिंह थोड़ी दूर गए ही थे कि वो आदमी साइकिल दौड़ता हुआ उनके पीछे आ गया और भैंस बेचने का अनुरोध करने लगा। जोध सिंह ने 300 रुपये देने और भैंस ले जाने को कहा। इस पर वो आदमी दाम कम करने की गुज़ारिश करने लगा। इस गुज़ारिश पर जोध सिंह ने 20 रुपये कम किये और भैंस की कीमत 280 तय की। लेकिन, सौदा 235 रुपये में तय हुआ। उस इंसान से 235 रुपये लेकर जोध सिंह वहां से लौट आये। अपने कारोबारी जीवन के पहले ही दिन पहले दो सौदों में ही जोध सिंह से करीब 200 रुपये का मुनाफा कमा लिया था। इस मुनाफे से उत्साहित जोध सिंह फिर उसी काफिले के पास पहुंचे जहाँ से उन्होंने भैंस खरीदी थी। इस बार जोध सिंह ने काफिले से एक मुसलमान से 60 रुपये में दो गायें खरीदीं, यानी एक गाय की कीमत 30 रुपये पड़ी। इन गायों को लेकर जोध सिंह इस बार सीधे बाज़ार गए और वहां उन्हें बेचने की कोशिश शुरू की। बाज़ार में कोलकाता के एक कारोबारी ने ये दो गायें खरीद लीं। गायें बेचने के बाद जोध सिंह फिर उसी काफिले की तरफ दौड़े, लेकिन इस बार काफिला उनकी पहुँच से बहुत आगे निकल चुका था। जोध सिंह ने काफी कोशिश की, वे जालंधर तक गए, लेकिन काफिला नहीं मिला। रात हुई तो जोध सिंह घर लौट आये। पहले दिन के मुनाफे से जोध सिंह के परिवार की कई सारी दिक्कतें और किल्लातें दूर हुईं।

जोध सिंह को इस बात की बहुत खुशी थी कि पहले ही दिन उन्होंने मुनाफा कमा लिया था। पहले दिन के कारोबार के अनुभव के आधार पर जोध सिंह ने फैसला कर लिया था कि वे अब कारोबार ही करेंगे और मुमकिन हुआ तो गाय-भैंसों का ही कारोबार करेंगे। ऐसा भी नहीं था कि जोध सिंह ने अपने पहले कारोबार में पूंजी निवेश ही नहीं किया और उन्होंने कोई जोखिम भी नहीं उठाया था। कारोबार शुरू करने के लिए उन्होंने अपनी बहन के कान की बाली बेच दी थे और उन दिनों हालत इतने खराब थे कि कोई भी किसी पर भी विश्वास करने को तैयार ही नहीं था। लेकिन, जोध सिंह ने जोखिम उठाया भी और सूझ-बूझ के साथ भी काम किया।

अपने पहले कारोबारी दिन की कामयाबी से उत्साहित जोध सिंह अब हर दिन बाज़ार जाने लगे। उन्होंने कारोबार की बारीकियों को समझना शुरू किया। बाज़ार में एक दिन उन्हें कोलकाता के उस कारोबारी का नौकर दिखाई दिया जिसने उनसे गायें खरीदी थीं। नौकर से जोध सिंह ने पूछा – जो दो गायें तुम्हारे मालिक ने मुझसे खरीदी थीं वो उसने कितने में बेची होंगीं? नौकर ने कुछ भी बताने से ये कहते हुए मन कर दिया कि अगर उसके मालिक को इस बात का पता चलेगा तो वो उसे नौकरी से निकाल देगा। नौकर की ये बात सुनने के बाद जोध सिंह ने भरोसा दिलाया कि बात सिर्फ उन तक सीमित रहेगी और किसी को ये नहीं पता चलेगा कि उसने उन्हें कुछ बताया है। कुछ देर के बाद नौकर ने सारी जानकारी जोध सिंह को दे दी। नौकर की बातें सुनकर जोध सिंह चौंक गए। तभी उन्होंने एक बड़ा फैसला ले लिया। फैसला था गाय-भैंसों को पंजाब से बंगाल ले जाना और उन्हें कोलकाता के बाज़ार में बेचना। नौकर से जोध सिंह ने जान लिया था कि पंजाब से खरीदी गयी गाय या भैंस को बंगाल में पांच से दस गुना ज्यादा दाम पर बेचा जाता है। इसके बाद दो गाय लेकर जोध सिंह लुधियाना ने कोलकाता के लिए रवाना हुए।

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11 नवम्बर, 1948 को जोध सिंह अपनी दो गायों के साथ कोलकाता पहुंचे। इन गायों को बाज़ार ले जाकर उन्होंने बेच दिया। नौकर से जैसा सुना था वैसे ही हुआ था, पंजाब की गायों और भैसों को बड़ी कीमत पर कोलकाता के बाज़ार में खरीदा और बेचा जाता था। यही सौदेबाजी देखकर जोध सिंह ने एक और बड़ा फैसला कर लिया। उन्होंने कोलकाता में ही बस जाने और वहीं गाय-भैंस का कारोबार करने का निर्णय लिया। जोध सिंह ने कोलकाता में धीरे-धीरे अपने कारोबार को आगे बढ़ाया। उनका छोटा भाई लुधियाना में ही रहा, और वो पंजाब की गायों और भैंसों को जोध सिंह के पास कोलकाता भेजता रहा। जोध सिंह अपने भाई द्वारा भिजवाई गायों और भैंसों को कोलकाता के बाजारों में बेचकर कारोबार करने लगे। आगे चलकर जोध सिंह ने दूध का कारोबार भी शुरू कर दिया। उन्होंने अपना तबेला खोला और गाय-भैंसों का दूध भी बेचने लगे। दूध के बाद दूध से जुड़े उत्पाद भी जोध सिंह बेचने लगे। कुछ ही सालों में जोध सिंह काफी मशहूर और अमीर हो गए। कोलकाता ही नहीं पूरे बंगाल में उनका खूब नाम हो गया। 1976–77 में जोध सिंह बंगाल के सबसे बड़े सरकारी डेरी फार्मों में सबसे ज्यादा दूध की सप्लाई करने वाले कारोबारी बन गए।

जोध सिंह की ख्याति और उनकी लोकप्रियता दिन-ब-दिन बढ़ती चली गयी। उनके पास तबेलों में काम करने वालों की संख्या भी दिन-ब-दिन बढ़ती गयी। कई लोगों को उन्होंने रोज़गार दिया। उसी दौरान एक ऐसी घटना हुई जिसने जोध सिंह को शिक्षा के क्षेत्र में उतरने के लिए प्रेरित किया। जोध सिंह अपने परिवार के साथ कोलकाता में बस गए थे। उन्होंने पंजाब से अपना रिश्ता-नाता नहीं छोड़ा था लेकिन कोलकाता अब उनका अपना शहर हो गया था। बंगाल अब उनका अपना प्रदेश था। जोध सिंह अपनी पत्नी सतनाम कौर, तीन बेटों और दो बेटियों के साथ कोलकाता में ही रहने लगे। 

जोध सिंह ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे, इसी वजह से वे चाहते थे कि उनके सभी बच्चे खूब पढ़े-लिखे, बड़ी-बड़ी डिग्रीयां हासिल करें। जोध सिंह अपने बच्चों को विलायत भिजवाकर पढ़ाने के लिए भी तैयार थे। जोध सिंह को अपने बड़े लड़के तरनजीत सिंह से काफी उम्मीदें थीं। वे तरनजीत को शिक्षा के लिए इंग्लैंड भी भिजवाना चाहते थे। लेकिन, तरनजीत की दिलचस्पी पढ़ाई-लिखाई में कम और खेलकूद में ज्यादा थी।अपने पिता की ही तरह तरनजीत सिंह भी अंग्रेजी में कमज़ोर थे। एक दिन जोध सिंह अपने बेटे का दाखिला कोलकाता के एक इंग्लिश मीडियम स्कूल में करवाने गए। दूसरे स्कूलों के मुकाबले वहां दाखिले की प्रक्रिया अलग थी। दाखिले से पहले स्टूडेंट और उनके माता या पिता का भी इंटरव्यू लिया जाता। इंटरव्यू देने के लिए जोध सिंह अपने बेटे तरनजीत के साथ स्कूल पहुंचे थे। स्कूल की प्रिंसिपल अँगरेज़ मेम थीं। उस अँगरेज़ मेम ने सवाल अंग्रेजी में पूछे, जोध सिंह और उनके बेटे सवाल समझ ही नहीं पाए और इसी वजह से उन्होंने जवाब भी नहीं दिया। प्रिंसिपल ने जोध सिंह के बड़े बेटे तरनजीत को स्कूल में दाखिला देने से साफ़ मना कर दिया। इस घटना से जोध सिंह को काफी दुःख हुआ। जोध सिंह हर हाल में अपने बेटे का दाखिला इसी स्कूल में करवाना चाहते थे। एक मित्र ने उन्हें सरदार दयाल सिंह से मिलने को कहा । सरदार दयाल सिंह भी पंजाबी थे और वे अपने बेटे का दाखिला उसी इंग्लिश मीडियम स्कूल में करवा चुके थे। और तो और, उस इंग्लिश मीडियम स्कूल में उनकी काफी पैठ थी। अपने मित्र की सलाह पर वे सीधे दयाल सिंह के यहाँ पहुंचे और कहा कि वे हर हाल में अपने बेटे का दाखिला उस इंग्लिश मीडियम स्कूल में करवाना चाहते हैं और इनमें उन्हें उनकी मदद चाहिए। दयाल सिंह ने सुझाव दिया कि पहले उन्हें अपने बेटे को अंग्रेजी सिखानी चाहिए। दयाल सिंह के सुझाव पर जोध सिंह ने अपने बेटे तरनजीत को इंग्लिश सिखाने के लिए एक अंग्रेजी महिला को बतौर ट्यूशन टीचर रख लिया। लेकिन, इस दौरान जो परेशानियां जोध सिंह को हुईं उन्हें ध्यान में रखते हुए उन्होंने एक बहुत ही बड़ा फैसला लिया। फैसला था स्कूल खोलने का । जोध सिंह के करीबी लोग बताते हैं कि वे स्कूल खोलने की जिद पर आ गए थे, वे चाहते थे कि जो तकलीफें उन्हें हुईं हैं वैसी तकलीफें दूसरे अभिभावकों को न हों । जोध सिंह अमीर थे, रसूकदार थे, इस वजह से अपने बच्चों का दाखिला अच्छे स्कूल में करवा सकते थे। लेकिन, उनके मन में ख़याल आया कि गरीब लोगों के बच्चों का क्या होगा? वे कहाँ पर अच्छी शिक्षा ले पायेंगे ? इन्हीं ख्यालों ने उन्हें ऐसा स्कूल खोलने ने लिए प्रेरित किया जहाँ ये न देखा जाता है बच्चों के माता-पिता अमीर हैं या गरीब, उन्हें पढ़ना-लिखना आता है या नहीं, ये अंग्रेजी में बोलना जानते है या नहीं। चूँकि इरादा पक्का था जोध सिंह ने अपना खुद का स्कूल खोलने की कोशिश शुरू की। इसी कोशिश के दौरान उन्हें पता चला कि पश्चिम बंगाल राज्य में सिर्फ सरकारी स्कूलों का चलन है और निजी तौर पर स्कूल शुरू करने की इज़ाज़त सरकार नहीं देती है। इस जानकारी के बाद जोध सिंह ने अपना फैसला टाल दिया। और, जब उनके बच्चे बड़े हुए तब जोध सिंह ने उनसे स्कूल शुरू करवाने की कोशिश करने को कहा। लेकिन, उस समय भी राज्य सरकार ने निजी क्षेत्र में स्कूल खोलने की अनुमति नहीं दी थी।

जब पश्चिम बंगाल सरकार ने निजी आईटीआई कॉलेज खोलने की अनुमति दी तब जोध सिंह के बेटे तरनजीत सिंह ने आवेदन किया और कॉलेज खोलने की अनुमति ली। इस तरह से दूध बेचने वाले और गाय-भैंसों का कारोबार करने वाले जोध सिंह ने शिक्षा के क्षेत्र में कदम रखा। ये कोई मामूली शुरुआत नहीं थी। अपने पहले कॉलेज के बाद जोध सिंह और उनके बेटे तरनजीत सिंह ने पश्चिम बंगाल में एक के बाद एक करके कई शिक्षा संस्थान खोले। जोध सिंह और उनके बेटों ने आगे चलकर इंजीनीयरिंग कॉलेज, मेडिकल कॉलेज, डेंटल कॉलेज, फार्मा कॉलेज के अलावा बिज़नेस स्कूल भी शुरू किये। ये सारे शिक्षा संस्थान जेआईएस ग्रुप के बैनर तले चल रहे हैं। बड़ी बात ये है कि जेआईएस ग्रुप के तहत पश्चिम बंगाल और उसके बाहर 25 शिक्षा संस्थान चल रहे हैं और इन संस्थानों में पच्चीस हज़ार से ज्यादा विद्यार्थी अलग-अलग कोर्स की पढ़ाई कर रहे हैं। स्कूल खोलने का जोध सिंह का सपना भी पूरा हुआ। राज्य सरकार ने जैसे ही निजी क्षेत्र में स्कूल खोलने की अनुमति दी, वैसे ही जोध सिंह और उनके बेटों ने स्कूल चलाने की योग्यता भी हासिल कर ली। पूर्वी भारत ही नहीं बल्कि देश के सबसे बड़े शिक्षा संस्थानों में अब जेआईएस ग्रुप की गिनती होती है।

जिस तरह से कम पढ़े लिखे एक इंसान ने इतने सारे शिक्षा संस्थान शुरू किये और उनको कामयाब और लोकप्रिय बनाया वो देश-भर में उद्यमिता, समाज-सेवा और शिक्षा के क्षेत्रों में एक शानदार मिसाल बनकर खड़ी है। अब जोध सिंह के बड़े बेटे तरनजीत सिंह के नेतृत्व में ये सारे शिक्षा संस्थान सफलतापूर्वक काम कर रहे हैं और देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। बड़ी बात ये भी है कि तरनजीत सिंह भी ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं, लेकिन अपनी नेतृत्व-कला, मेहनत, सूझ-बूझ और ईमानदारी के बूते वे अपनी जिम्मेदारियां बखूबी निभा रहे हैं। इससे भी बड़ी बात ये हैं कि सरदार जोध सिंह ने दूध, गाय-भैंस के कारोबार के अलावा न सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र में अपने पाँव जमाये बल्कि ट्रांसपोर्ट, लोजिस्टिक्स, आयरन, स्टील, टेलीकम्यूनिकेशन, रियल एस्टेट, इंफ्रास्ट्रक्चर, एंटरटेनमेंट जैसे क्षेत्रों में भी कामयाबी के झंडे गाढ़े हैं। जोध सिंह की इन सारे क्षेत्रों की सभी कम्पनियां मुनाफे में चल रही हैं और इनका सालों का कारोबार करोड़ों में है।

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एक बेहद कामयाब कारोबारी के तौर पर पूरे पूर्वी भारत में जोध सिंह की एक बेहद ख़ास पहचान है। उनकी लोकप्रियता की एक बड़ी वजह उनकी समाज-सेवा भी है। जोध सिंह ने अपने जीवन में हजारों लोगों को सीधे रोज़गार दिया, कईयों को रोज़गार के मौके दिलाये और दिखाए। जोध सिंह की वजह से लाखों लोगों की ज़िंदगी में खुशियाँ आयीं। उन्होंने गरीबों की भी हर मुमकिन मदद की। चाहे अपने बनाये कारोबारी संस्थानों के ज़रिये हो या अपनी समाज-सेवी संस्थाओं के ज़रिये जोध सिंह ज़रूरतमंदों की मदद करने से पीछे नहीं हटते हैं। उनके बारे में लोग कहते है – जो सरदार जोध सिंह के पास जाता है वो कभी भी मायूस होकर नहीं आता, सरदारजी सभी का ख्याल रखते हैं। लोग उन्हें प्यार और सम्मान से “बाबूजी” कहते हैं। जोध सिंह का व्यक्तित्व काफी बड़ा है और वे सिर्फ अपने परिवार के लिए ही बड़े नहीं बल्कि कोलकाता से सारे सिख समुदाय के लिए भी ‘बड़े’ हैं। सलाह और आशीर्वाद के लिए लोग दूर-दूर से उनके पास आते हैं।

जोध सिंह बंगाल के सिख समाज में कितना बड़ा रुतबा और रसूक रखते हैं ये बताने के लिए उनके करीबी कुछ लोगों ने हमें एक घटना सुनायी। कोलकाता में एक गुरुद्वारे में वर्चस्व को लेकर दो गुटों में झगड़ा हो गया। काफी हंगामा हुआ। लड़ाई हुई, लोग एक दूसरे पर हमले करने लगे। हालत को लगातार बिगड़ता देखकर महिलाएं मदद की गुहार लगते हुए जोध सिंह के पास पहुचीं। महिलाओं ने कहा कि अगर ‘बाबूजी’ ने हस्तक्षेप नहीं किया जो खूनखराबा होगा और इसमें कई लोगों की जान भी जाएगी। जोध सिंह ने महिलाओं को भरोसा दिलाया और अपनी ओर से कार्यवाही शुरू की। पहले तो जोध सिंह ने दोनों पक्षों के लोगों को बुलाया, उनका गुस्सा शांत करवाया, हिंसा बंद करवाई और दोनों गुटों में समझौता होने तक गुरिद्वारे के कामकाज के कमान अपने हाथ में ले ली। जब मामला सुलझा और दोनों गुटों में सहमति बनी तब जोध सिंह ने कमान चुने हुए प्रधान को दे दी। लोगों ने बताया कि अगर जोध सिंह की जगह कोई और होता तो आपस में लड़ रहे सिख लोग किसी की न सुनते और अप्रिय घटनाएं होतीं।

सरदार जोध सिंह को पंजाब के लुधियाना से बंगाल के कोलकाता आये हुए 68 हो गए हैं। एक तबेला से शुरू हुआ कारोबार अब टेक्नोलॉजी तक पहुँच गया है। एक इंग्लिश मीडियम में स्कूल में अपने बेटा का दाखिला न करा पाने से मायूस हुए जोध सिंह का वही बेटा अब इजीनियरिंग, मेडिकल कॉलेज जैसे बड़े-बड़े शिक्षा संस्थानों को बखूबी चला रहा है। बंटवारे के समय पाकिस्तान से हिंदुस्तान का वो डरवाना सफ़र तय करने वाला वही शख्स आज परिवहन के क्षेत्र में अपना दबदबा कायम कर चुका है और लोगों का सफ़र आसान बना रहा है। फौलादी इरादों और लोहे जैसा मजबूत दिन रखने वाला वही सिख आज लोहे और इस्पात का भी कारोबार कर रहा है। विभाजन के समय अपना घर-मकान छोड़ने और गुरूद्वारे में दिन-रात बिताने को मजबूर वही जोध सिंह आज अपनी इंफ्रास्ट्रक्चर और रियल एस्टेट कंपनियों के ज़रिये बड़े-बड़े मकान और भवन बनवा रहे हैं।

जोध सिंह की उम्र 90 पार हो चुकी है, चलने-फिरने में दिक्कत होती है, आँखों की रोशनी भी कमज़ोर हुई है, लेकिन उनका जोश और जुनून अब भी बरक़रार है। कारोबारी सफ़र की बड़ी घटनाएं अब भी ज़हन में ताज़ा है। बचपन की कुछ यादें भी ताज़ा है और वे विभाजन की त्रासदी को नहीं भुला पाए हैं। उनके सारी कंपनियों और संस्थाओं को उनके बेटे बखूबी चला रहे हैं और तेज़ी से आगे भी बढ़ा रहे हैं। महत्वपूर्ण बात ये भी हैं कि तीनों बेटे अब भी अपने पिता की अनुमति के बिना कोई भी बड़ा फैसला नहीं करते। जोध सिंह ने अपने बेटों को उनकी-उनकी जिम्मेदारियां सौंप दी हैं। कामकाज और कारोबार का बंटवारा भी कर दिया है और अब कंपनियों-संस्थाओं के चेयरमैन ने नाते अपनी सलाह देते हैं।

सरदार जोध सिंह मानते हैं कि इंसान वही करता है जो भगवान चाहता है। वे ये बार-बार कहते हैं कि आज वो जो कुछ भी हैं तकदीर की वजह से हैं, ऊपरवाले की मर्जी की वजह से हैं। लेकिन, जोध सिंह ये भी कहते हैं कि भगवान् मौके देता है, उसका फायदा उठाना, न उठाना ये इंसान के हाथ में है। अगर इंसान मेहनत न करे, उसमें ईमानदारी न हो तो वो कामयाब नहीं हो सकता। जोध सिंह ये बात बड़े फक्र और बड़ी खुशी के साथ कहते हैं – “मैंने कभी किसी को धोका नहीं दिया। कभी किसी का पैसा नहीं डुबाया, मैंने मेहनत की और हमेशा ईमानदारी के साथ काम किया। मेहनत करने पर ही रूपया मिलता है, जो मेहनत नहीं करते भगवान् भी उनका साथ नहीं देते।” इसी सन्दर्भ में जोध सिंह ने ये भा कहा, “ मैंने लोगों से अपना पैसा भी वसूला है, कुछ लोग थे जो देने को तैयार नहीं थे लेकिन, मैंने अपने तरीके से अपने रुपये वापिस लिए हैं।” बातचीत के दौरान जोध सिंह ने कई बार अपने अंदाज़ में भगवान का शुक्रिया अदा किया। वे कहते हैं, “ जो भी मुसीबत आयी उसी ने बेड़ा पार लगाया। हर मुसीबत टल गयी। उनका मुझपर बहुत आशीर्वाद हैं। भगवान् ने मुझे अच्छा परिवार दिया , अच्छा स्टाफ दिया मैं बहुत खुश हूँ। मैंने बस शुरूआत में अपने बच्चों को पैसा दिया उसके बाद उन्होंने मुझसे कभी नहीं पूछा। वे अच्छा काम कर रहे हैं, मुझे बहुत खुशी है। ख़ुशी नियामत और और जो भी भगवान् ने मुझे दिया है वो अच्छा दिया है।”

इस बातचीत के दौरान जोध सिंह ने अपनी पत्नी सतनाम कौर की भी भूरि-भूरि प्रशंसा की। जोध सिंह के कहा कि उनकी पत्नी ने हमेशा उनका साथ दिया। घर-परिवार की सारी जिम्मेदारियां बड़े अच्छे से पूरी कीं। गौरतलब है कि सतनाम कौर ने भी समाज-सेवा से जुड़े कामों में हमेशा बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। उन्होंने गरीब, ज़रूरतमंद और अनाथ बच्चों के अलावा महिलाओं की भी खूब मदद की। सतनाम कौर ने धार्मिक और सामाजिक कार्यों में भी बड़ी भूमिका अदा की है।

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सरदार जोध सिंह से हमारी ये बेहद ख़ास मुलाकात और बातचीत कोलकाता में उनके मकान पर हुई। इस बातचीत के समय उनकी पत्नी सतनाम कौर भी वहां मौजूद थीं। अन्तरंग बातचीत के बाद जोध सिंह कैमरे के सामने इंटरव्यू देने को भी राजी हो गए और उन्होंने अपनी कहानी की बड़ी घटनाएं कैमरे पर भी सुनाईं। जोध सिंह इन दिनों अपना ज्यादा समय मकान और मकान के पास वाले गुरूद्वारे में ही बिताते हैं। लेकिन, समय निकालकर अपनी कंपनियों के दफ्तर, शिक्षा संस्थान भी जाते हैं। गाय-भैंसों और तबेले से उनका प्यार अब भी कम नहीं हुआ है। घर और गुरूद्वारे के बाद अगर उन्हें कोई जगह सबसे अच्छी लगती हैं तो वो तबेला ही है। एक सन्दर्भ में जोध सिंह ने बताया कि तजुर्बे ने उन्हें गाय-भैसों के मामले में एक्सपर्ट बना दिया था। वे किसी भी गाय या भैंस को देखकर ये बता सकते थे कि उसकी उम्र क्या है, उसकी सेहत कैसी है, वो दिन में कितना दूध दे सकती है और वो किस प्रदेश की है ... पंजाब की है, या बिहार की है या फिर गुजरात की है।