अखाड़ेदार पत्रकार और धारदार कवि कन्हैयालाल नंदन
खोजी पत्रकारिता और साहित्य में नए-नए प्रयोगों के पक्षधर नंदन उन सम्पादकों में से रहे, जिन्हें उनकी योग्यता के अनुसार काम और रचना के अनुसार मान-सम्मान नहीं मिला...
अखाड़ेदार पत्रकार और धारदार कवि कन्हैयालाल नंदन के रचनात्मक सरोकारों में जिस इंसान का चेहरा रेखांकित होता है, वह लिटरेचर ही नहीं, मानो सृजन की पूरी कायनात पर छा जाता है। सत्तर-अस्सी के दशक में उनके सम्पादन में बाल-पत्रिका 'पराग' में देश के करोड़ों बाल पाठकों ने गोते लगाए थे। पद्म श्री सम्मान, भारतेंदु पुरस्कार, अज्ञेय पुरस्कार से समादृत रहे नंदनजी की 1 जुलाई को जयंती थी।
उपन्यासकार मुज़्तबा हुसैन लिखते हैं - "कन्हैयालाल नंदन उन एडिटरों में थे, जो मज़नून के लिए किसी अदीब का पीछा तो यों करते, जैसे कोई मनचला नौजवान किसी लड़की का पीछा कर रहा हो। ऐसा ज़ालिम और कठोर एडिटर मैंने किसी और ज़ुबान में नहीं देखा।"
पद्म श्री सम्मान, भारतेंदु पुरस्कार, अज्ञेय पुरस्कार से सम्मानित हो चुके कन्हैयालाल नंदन को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं। उन्होंने 'धर्मयुग' में कदम रखते हुए साहित्यिक पत्रकारिता से अपने सार्वजनिक रचनात्मक जीवन की शुरुआत की। खोजी पत्रकारिता और साहित्य में नए-नए प्रयोगों के पक्षधर नंदन उन सम्पादकों में से रहे, जिन्हें उनकी योग्यता के अनुसार काम और रचना के अनुसार मान-सम्मान नहीं मिला। वह वर्ष 1969 से 72 तक धर्मयुग में सहायक सम्पादक रहे। उसके बाद पराग, सारिका और दिनमान के संपादक बने।
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कन्हैयालाल नंदन ने तीन वर्षों नवभारत टाइम्स में भी फीचर संपादक का दायित्व निभाया। बाद में छह साल तक 'संडे मेल' में सम्पादक, फिर इंडसंइड मीडिया के डायरेक्टर बने। वह मुख्यतः वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार, मंचीय कवि के रूप में चर्चित रहे। उनकी उल्लेखनीय कृतियाँ हैं - लुकुआ का शाहनामा, घाट-घाट का पानी, अंतरंग नाट्या परिवेश, आग के रंग, अमृता शेरगिल, समय की दहलीज, बंजर धरती पर इंद्रधनुष, गुजरा कहाँ-कहाँ से।
अखाड़ेदार पत्रकार और धारदार कवि नंदन के शब्दों में जिस इंसान का चेहरा उभरता है, वह लिटरेचर ही नहीं, मानो सृजन की पूरी कायनात पर छा जाता है। सत्तर-अस्सी के दशक में नंदन जी के सम्पादन में प्रकाशित होती रही बाल-पत्रिका 'पराग' में देश के करोड़ों बाल पाठकों ने गोते लगाए थे। मशहूर शायर अली सरदार जाफ़री भी उनकी शायरी से लुत्फ़अंदोज़ हो चुके थे। वह एक रोशन ख़याल और भरपूर शख़्सियत के मालिक थे। उनकी क़लम हक़गोई और बेबाकी के साथ चलती रही। उपन्यासकार मुज़्तबा हुसैन लिखते हैं - कन्हैयालाल नंदन उन एडिटरों में थे, जो मज़नून के लिए किसी अदीब का पीछा तो यों करते, जैसे कोई मनचला नौजवान किसी लड़की का पीछा कर रहा हो। ऐसा ज़ालिम और कठोर एडिटर मैंने किसी और ज़ुबान में नहीं देखा। यह बात और है कि उनके मज़नून मांगने के अंदाज़ में रफ़्ता-रफ़्ता तब्दीली आती चली गई। पहले उनका प्यार भरा खत, फिर खट्टा-मीठा फ़ोन आता और तीसरी मर्तबा लहजे में सख्ती, ’मुज़्तबा! अगर परसों तक तुम्हारा मज़नून नहीं आया तो मैं तुम्हारा लिखना-पढ़ना तो दूर चलना-फिरना तक दूभर कर दूंगा।’ एक बार तो ऐसी भी चेतावनी मिली थी कि ’विश्वास करो, अगर कल तक तुम्हारा मज़नून नहीं आया तो मेरे हाथों तुम्हारा ख़ून हो सकता है।’
प्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर की नजरों में नंदन उन कवियों में से थे, जो कविता के एकांत में नहीं, मंझधार में उपस्थित रहते थे और कविता में उसी तरह भीगते रहते, जैसे नदी अपने पानी में भीगती रहती है और कविता-हीनता के बीच कविता लगातार बनी रहती है।
उनके बारे में एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल ने कहा था, कि वह संचार माध्यमों से परे रहते हुए वक़्त की रेत पर अपने क़दमों के निशान अमिट रूप में छोड़ते चले गए। जब भी मेरे आगे कोई चुनौती भरी घड़ी आती थी, तब मैं उनकी कविता की कोई न कोई पंक्ति याद कर लिया करता था।