अपनी किडनी-लिवर देकर पुरुषों की जान बचा रही हैं 75 फीसदी महिलाएं
भारत में पितृसत्ता को समझना है तो ऑर्गन डोनेशन के आंकड़ों को देखिए, जहां एकतरफा तौर पर देने वाली महिलाएं और लेने वाले पुरुष हैं.
पिछले साल अक्तूबर में करवा चौथ के समय एक खबर अखबारों की सुर्खी थी. दिल्ली की एक महिला ने करवा चौथ ने पहले अपने पति को अपनी किडनी देकर उसकी जान बचाई. उनकी शादी को पांच साल हुए थे. अखबारों ने अपने लेखों में महिलाओं को त्याग, बलिदान की मूर्ति और सावित्री की तरह यमराज के मुंह से सत्यवान के प्राणों को लौटा लाने वाली देवी बताया था.
अभी एक महीने पहले लालू प्रसाद यादव की बेटी रोहिणी ने उन्हें अपनी किडनी देकर उनकी जान बचाई. सिंगापुर में हुए इस किडनी ट्रांसप्लांट ऑपरेशन के बाद नेता जी सही-सलामत घर वापस आ गए हैं.
हाल ही में केरल में एक 17 साल की लड़की देवनंदा ने अपने पिता को अपना लिवर देकर उनकी जान बचाई. केरल के त्रिचूर में रहने वाली देवनंदा 12वीं कक्षा की छात्रा हैं, जिनके पिता लंबे समय से लिवर की बीमारी से जूझ रहे थे.
देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग लोगों के साथ हुई इन सारी घटनाओं में एक चीज कॉमन है. हर कहानी में ऑर्गन डोनर यानि अंगदान करने वाली कोई महिला है और ऑर्गन रिसीवर यानि अंग ग्रहण करने वाला व्यक्ति कोई पुरुष.
यह सिर्फ इन्हीं कहानियों की बात नहीं है. आंकड़े कहते हैं कि भारत में 70 फीसदी ऑर्गन डोनर महिलाएं हैं. यानि 70 फीसदी ऑर्गन रिप्लेसमेंट के मामलों में पुरुषों को अपना अंग दान करने वाली कोई करीबी स्त्री ही होती है, जैसेकि मां, पत्नी, बहन या बेटी.
क्या कहते हैं आंकड़े
भारत के नेशनल ऑर्गन एंड टिशू ट्रांसप्लांट ऑर्गेनाइजेशन (National Organ and Tissue Transplant Organization, NOTTO) के डेटा के मुताबिक भारत में वर्ष 2019 में कुल मामलों में से 71 फीसदी में रिसीवर पुरुष थे, तबकि सिर्फ 29 फीसदी महिलाएं ऑर्गन रिसीवर थीं. यानि 29 फीसदी मामलों में महिला की किडनी, लिवर आदि खराब होने की स्थिति में अंगदान करके उसकी जान बचाई गई. वहीं 81 फीसदी ऑर्गन डोनर महिलाएं थीं और सिर्फ 19 फीसदी ऑर्गन डोनर यानि अपना अंग दान करने वाले पुरुष थे.
यहां अलग से एक बात को रेखांकित करना बहुत जरूरी है कि औसतन 16 फीसदी केसेज में महिलाओं को किसी मृत व्यक्ति का ऑर्गन मिलता है. सिर्फ 11 फीसदी मामले ही ऐसे होते हैं, जहां परिवार का कोई नजदीकी व्यक्ति अपना अंग देकर महिला की जान बचाता है.
नोटो के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2019 में जहां 72 पुरुषों का किडनी ट्रांसप्लांट किया गया, वहीं सिर्फ 28 महिलाओं को नई किडनी देकर उनकी जान बचाई गई. इसी तरह लिवर ट्रांसप्लांट में 74 पुरुष और 26 महिला, हार्ट ट्रांसप्लांट में 75 पुरुष और 25 महिला और पैंक्रियाज ट्रांसप्लांट में 73 पुरुष और 27 महिलाओं का अंग ट्रांसप्लांट किया गया.
यहां एक सवाल यह भी उठता है कि क्या पुरुषों को ही लिवर, किडनी और हार्ट से जुड़ी गंभीर बीमारियां होती हैं, जिसकी वजह से उनकी जान को खतरा हो. हालांकि ट्रांसप्लांट के आंकड़ों को देखकर ऊपर से ऐसा लगता है लेकिन यह सच नहीं है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक पूरी दुनिया में सब्सटेंस अब्यूज से जुड़े 73 फीसदी कैंसर पुरुषों को होते हैं. जैसेकि लिवर कैंसर की मुख्य वजह एल्कोहल का सेवन है. किडनी को खतरा एल्कोहल और डायबिटीज दोनों की वजह से होता है. वहीं नॉन सब्सटेंस अब्यूज से जुड़े 77 फीसदी कैंसर का शिकार महिलाएं होती हैं. सब्सटेंस अब्यूज का अर्थ है टॉक्सिक पदार्थों का सेवन और टॉक्सिक लाइफ स्टाइल.
भारत में स्वास्थ्य सेवा महानिदेशालय (डीजीएचएस) के डेटा के मुताबिक प्रति वर्ष तकरीबन 1.8 लाख लोगों की किडनी खराब होती है, जिसमें से सिर्फ 6000 लोगों का ही किडनी ट्रांसप्लांट हो पाता है. इन छह हजार में से 77 फीसदी पुरुष होते हैं. इसी तरह तरह साल तकरीबन दो लाख लोगों को लिवर से जुड़ी गंभीर बीमारी जैसेकि लिवर कैंसर या लिवर सिरोसिस होता है, जिसमें से ट्रांसप्लांट सिर्फ डेढ़ हजार लोगों का ही होता है. यहां बताने की जरूरत नहीं कि नया लिवर रिसीव करने वाले लोगों में तकरीबन 80 फीसदी पुरुष होते हैं.
किडनी रोग और अनुसंधान केंद्र संस्थान के डॉ. विवेक कुटे की एक लंबी स्टडी है, जिसमें पिछले बीस सालों में देश में हुए कुल ट्रांसप्लांट के आंकड़ों को एक जगह एकत्रित किया गया है. इस स्टडी के मुताबिक पिछले 20 सालों में भारत में हुए कुल 12,625 ट्रांसप्लांट्स में से 72.5 फीसदी रिसीवर पुरुष थे और 75 फीसदी डोनर महिलाएं थीं.
बलिदान बेटियों का और संपदा बेटों की
हर बार जब किसी महिला के अंगदान से किसी पुरुष की जान बचती है तो उस महिला की महानता और बलिदान को लेकर काफी कसीदे पढ़े जाते हैं. जैसेकि केरल में देवनंदा के केस में अस्पताल के डॉक्टर बेटी के त्याग से इतने अभिभूत हो गए कि उन्होंने सर्जरी का बिल ही माफ कर दिया.
लालू प्रसाद यादव की बेटी रोहिणी ने जब उन्हें अपनी किडनी दी तो पूरा सोशल मीडिया उस लड़की की महानता के गौरव गान से भरा हुआ था. लोग कह रहे थे कि संकट के समय हमेशा बेटियां ही काम आती हैं. बेटियां ही सेवा करती हैं, बेटियां ही जीवन बचाती हैं. हालांकि बेटियों के बलिदान की कहानी सुनाते हुए वह एक भी बार ये नहीं कहते कि कैसे उन्होंने अपनी सारी संपत्ति, अपनी लीगेसी और अपनी विरासत अपने बाद अपने बेटों को ही सौंपी है. (लालू प्रसाद यादव भी कोई अपवाद नहीं हैं.) कि आस उन्हें अब भी पुत्र की ही है.
फिलहाल भारतीय समाज का यह दोगलापन, लड़कियों के प्रति छिपे और जाहिर पूर्वाग्रह कोई नई बात नहीं है. जब लेने की बात आती है तो सबकुछ बेटियों से लिया जाता है. सेवा, त्याग, बलिदान, घर की इज्जत बचाने की जिम्मेदारी से लेकर किडनी और लिवर तक. लेकिन जब देने की बात आती है तो सबकुछ बेटों को दिया जाता है. गांव की जमीन, घर, संपत्ति, बैंक बैलेंस और पिता की विरासत से लेकर हार्ट, किडनी, लिवर तक.