उनकी आंखें न हुईं तो क्या हुआ, कर ली दुनिया रोशन
आम आदमी हो या खास इंसान, जिसने खुद की दिव्यांगता से लड़ते हुए जिंदगी रोशन कर ली, देश-समाज के लिए मिसाल बन चुके हैं। वह सामान्य दृष्टिहीन रामविलास, भंवरलाल, जानकी हों या पहले दृष्टिबाधित आईएएस कृष्ण गोपाल तिवारी, प्रांजल लेहनसिंह पाटिल, जज यूसुफ सलीम अथवा गूगल में जॉब कर रहे न्यूयॉर्क के जैक चेन।
माना कि आंखें कुदरत की अनमोल नियामत होती हैं, जिनकी आंखों में रोशनी नहीं होती, उनकी जिंदगी में अंधेरा पसर जाता है लेकिन कुदरत ने इंसान को मुश्किलों से लड़कर दुनिया मुट्ठी में कर लेने का जज़्बा भी दे रखा है। आज हम कुछ ऐसे ही लोगों की जिंदगी पर प्रकाश डाल रहे हैं, जिन्होंने वक्त से और खुद की अपंगता-दिव्यांगता (दृष्टिहीनता) से लड़ते हुए अपनी जिंदगी ही रोशन नहीं कर ली, बल्कि वे देश-समाज के लिए अनोखी कामयाबी की मिसाल बन चुके हैं, वह जबलपुर की दृष्टबाधित खिलाड़ी जानकी बाई हों, बेगूसराय के रामविलास साह, न्यूयार्क के जैक चेन हों अथवा पाकिस्तान के पहले दृष्टिहीन जज बने यूसुफ सलीम। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मिशन को पंख लगाते हुए बेगूसराय (बिहार) के गांव रजौड़ निवासी दृष्टिहीन भिखारी रामविलास साह ने तो वह कर दिखाया है, जिस पर हर इंसान को फ़क्र होना चाहिए।
रामविलास ट्रेनों में डफली बजाकर भिक्षाटन के साथ ही लोगों को स्वच्छता का संदेश भी देते हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने भीख के पैसे से ही अपने घर में शौचालय बनवाया है। जब तक उनके घर में शौचालय का निर्माण होता रहा, वह उसके सामने बैठकर डफली बजाते-गाते हुए स्वच्छता मिशन का संदेश देते रहे। उनका यह तरीका पूरी ग्राम पंचायत में एक मिसाल बन गया। गोटन (राजस्थान) के पचपन वर्षीय दृष्टिहीन भंवरलाल भीख से जीवन यापन करने की बजाय गले में टोकरी लटकाए गोटन, जोधपुर, मेड़ता, डेगाना, मकराना से गुजरने वाली ट्रेनों में पिछले बीस साल से फेरी लगाकर लोगों को चटपटे नमकीन बेचते रहते हैं। नोट हाथ में थामते ही वह पहचान लेते हैं। वह किसी से मुफ्त की मदद नहीं लेना चाहते हैं।
जबलपुर (म.प्र.) के गांव कुर्रे की जानकी बाई नेत्रहीन हैं। पांच साल की थीं तो उनकी आंखों की रोशनी चली गई। पांचवीं तक ही पढ़ सकीं। उनके माता-पिता मजदूरी करते हैं। अपने झोपड़ीनुमा घर में कमाई के लिए उन्होंने खुद भी बकरियां पाल रखी हैं। वक्त से लड़ती जानकी बाई का हौसला अब लोगों के लिए मिसाल बन चुका है। जकार्ता के पैरा एशियन गेम्स की भारतीय जूडो टीम में उन्हे भी शामिल कर लिया गया। वह लखनऊ (उ.प्र.) में भारतीय जूडो टीम के साथ एक महीने प्रशिक्षण ले चुकी हैं। एशियन गेम्स टीम में मध्य प्रदेश से जूडो टीम के लिए जिन पांच लड़कियों ने टेस्ट दिया, उनमें से सिर्फ दो, जानकी बाई और पूनम शर्मा को जगह मिल पाई। जानकी बाई को जूडो की ट्रेनिंग के खर्चे के लिए ब्लाइंड जूडो एसोसिएशन ऑफ इंडिया आर्थिक सहयोग मिला। चंदे के पैसे से एक लाख जुटाकर उन्हे अंतरराष्ट्रीय खेल में भाग लेने का अवसर मिला। वह अब तक दो अंतरराष्ट्रीय और तीन राष्ट्रीय पदक जीत चुकी हैं। दो साल पहले उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीता था।
ये तो जनसामान्य कामयाब दृष्टिबाधितों की मिसालें हैं। छत्तीसगढ़ के कलेक्टर रहे पहले दृष्टिबाधित आईएएस कृष्ण गोपाल तिवारी, दृष्टिबाधित पहली महिला आईएएस प्रांजल लेहनसिंह पाटिल जैसी शख्सियतें भी समाज को दिशा दे रही हैं। इसी तरह पड़ोसी देश पाकिस्तान के यूसुफ सलीम का जज्बा भी काबिलेतारीफ़ है। वह अपने देश के पहले दृष्टिहीन जज बन चुके हैं। उनको पहले यह पद देने से मना किया गया था लेकिन चीफ जस्टिस मियां साकिब निसार के हस्तक्षेप के बाद उन्होंने पद संभाल लिया। कुछ कर दिखाने के जुनून में ही न्यूयॉर्क के जैक चेन ने कुछ साल पहले गूगल का जॉब ज्वाइन किया। बचपन में उनकी आंखों में हल्की हल्की रोशनी थी, जो आठ बार सर्जरी के बाद पूरी तरह चली गई, फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। अपनी पढ़ाई जारी रखी और बहुप्रतिष्ठित हावर्ड और बर्कले यूनिवर्सिटी से कंप्यूटर साइंस में डिग्री ली।
एक मल्टीनेशनल कंपनी में इंटर्न लगने के बाद उन्होंने और कई बड़ी कंपनियों में काम किया। पिछले छह सालों से वह गूगल में असोसिएट पेटेंट काउंसलर के तौर पर काम कर रहे हैं। वह बाकी कर्मचारियों से ज्यादा मेहनत करते हैं। जैक पढ़ नहीं सकते, इसलिए सभी शब्दों को सुनने की स्पीड बढ़ाने के लिए वह हर मिनट सवा छह सौ शब्द सुनने का अभ्यास करते हैं। यह जानना कितना हैरतअंगेज है कि वह ऑफिस से निकलकर घर जाने के लिए रास्ते में पड़ने वाली चाय-कॉफी की दुकानों की खुशबुओं के सहारे रोजमर्रा का सफर तय करते हैं।
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