एंटी डिप्रेसेंट दवाइयां खा रही आधी आबादी को इसकी जरूरत ही नहीं
2022 में एंटी-डिप्रेसेंट दवाइयों का मार्केट बढ़कर 16.44 अरब डॉलर का हो गया.
यह वाकया डॉ. गाबोर माते अपनी किताब ‘स्कैटर्ड माइंड्स: द ओरिजिन्स एंड हीलिंग ऑफ एटेंशन डिफिशिट डिसऑर्डर’ (Scattered Minds: The Origins and Healing of Attention Deficit Disorder) में लिखते हैं.
55 साल की उम्र में डॉक्टरों ने बताया कि डॉ. माते को ADHD है. ADHD यानि अटेंशन डिफिसिट हायपरएक्टिविटी डिसऑर्डर (Attention Deficit Hyperactivity Disorder). इस मनोवैज्ञानिक स्थिति का शिकार व्यक्ति किसी एक जगह अपने दिमाग को कुछ मिनट से ज्यादा एकाग्र नहीं कर पाता और लगातार अतिशय सक्रियता की स्थिति में बना रहता है.
ADHD का शिकार लोग सतत डिप्रेशन और एंग्जायटी भी महसूस करते हैं. डॉक्टरों ने उनकी काउंसिलिंग के बाद एक पर्चे पर दवाइयों का प्रिस्क्रिप्शन भी लिखकर दिया. पहली गोली खाने के कुछ ही घंटों के भीतर उन्हें अपने भीतर इतनी ऊर्जा और पॉजिटिविटी महसूस हुई कि वह कई घंटों तक लगातार काम करते रहे. घर में उनके व्यवहार को देखकर पत्नी की पहली प्रतिक्रिया यही थी, “लग रहा है कि तुम, तुम हो ही नहीं. कोई और ही है.”
कुछ दिनों तक लगातार दवाइयों का सेवन करने के बाद उसके साइड इफेक्ट दिखने शुरू हुए. अगर गलती से किसी दिन दवा मिस हो जाए या दवा खाने में देर हो जाए तो पूरे शरीर में अजीब किस्म का विड्रॉअल सिम्प्टम होता था. अवसाद कई गुना बढ़ जाता. चिड़चिड़ाहट और घबराहट होती.
चूंकि डॉक्टर माते खुद एक अनुभवी डॉक्टर थे, उन्हें समझ में आया कि यह दवा दरअसल उन्हें फायदा पहुंचाने की बजाय नुकसान कर रही है. यह एंटी ड्रिप्रेसेंट मेडिसिन उस कोकीन, मेथ या ब्राउन शुगर जैसे ड्रग की तरह थी, जिसे खाकर इंसान थोड़ी देर के लिए तो आसमान में उड़ने लगता है, लेकिन फिर जब जमीन पर गिरता है तो भयानक चोट लगती है.
मानसिक रोग या मेंटल इलनेस को लेकर पिछले एक दशक में लोगों में जागरूकता बढ़ी है. अब लोग इसे पागलपन न समझकर एक बीमारी की तरह ही देखते हैं. जैसे हड्डी टूटने या बुखार आने पर आप डॉक्टर के पास जाते हैं, वैसे ही मानसिक बीमारी का शिकार होने पर भी तुरंत डॉक्टरी सलाह की जरूरत होती है.
लेकिन बतौर डॉ. माते डॉक्टरी सलाह के साथ एक बड़ी दिक्कत ये है कि वो उन स्थितियों में भी आपको एंटी-डिप्रेसेंट दवाइयों का पर्चा पकड़ा देते हैं, जबकि आपको दवा की कोई जरूरत नहीं है. आप अपने जीवन में जिस भी तरह की मानसिक या भावनात्मक तकलीफ से गुजर रहे हैं, उसका इलाज सिर्फ काउंसिलिंग और लाइफ स्टाइल में कुछ जरूरी बदलाव करके भी किया जा सकता है.
आज अमेरिका में हर तीसरा व्यक्ति किसी न किसी तरह के एंटी डिप्रेसेंट और एंटी एंग्जायटी गोलियों का सेवन कर रहा है. दुनिया की सबसे बड़ी मार्केट रिसर्च फर्म ‘रिसर्च एंड मार्केट’ के मुताबिक साल 2022 में एंटी-डिप्रेसेंट दवाइयों का मार्केट बढ़कर 16.44 अरब डॉलर का हो गया. 2026 तक इसके 22.57 अरब डॉलर हो जाने का अनुमान है.
भारत में भी एंटी-डिप्रेसेंट दवाइयों का बाजार बहुत तेजी के साथ बढ़ रहा है. साल 2021 में इस बाजार के टोटल रिकैप में 23 फीसदी का इजाफा हुआ. 2021 में सिर्फ अप्रैल से लेकर जून तक तीन महीने में 632 करोड़ की एंटी-डिप्रेसेंट करोड़ की एंटी-डिप्रेसेंट दवाइयों की बिक्री हुई.
डिजिटल मेंटल हेल्थ इनोवेशन रिपोर्ट, 2021 के मुताबिक आज भारत में साढ़े सात करोड़ लोग किसी न किसी तरह की मेंटल इलनेस का शिकार हैं. 5.6 करोड़ भारतीय डिप्रेशन और 3.8 करोड़ भारतीय एंग्जायटी से पीडि़त हैं.
डॉ. गाबोर माते के देश कनाडा में भी हालात कुछ बेहतर नहीं हैं, जहां की तकरीबन 60 फीसदी आबादी किसी न किसी तरह के एंटी डिप्रेशन और एंटी एंग्जायटी गोलियों पर निर्भर है.
जहां एक ओर बाजार और फार्मा इंडस्ट्री इस रिसर्च में लगी है कि इस दवाइयों के मार्केट को और बड़ा कैसे किया जाए, वहीं डॉक्टरों और वैज्ञानिकों का एक समूह यह स्टडी कर रहा है कि क्या यह दवाइयां वाकई मददगार होती हैं.
डॉ. गाबोर माते अपनी किताब में लिखते हैं, “एक डॉक्टर होने के नाते मैं मेडिसिनल सपोर्ट की अहमियत को कतई कम करके नहीं देख सकता. लेकिन साथ ही इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आज हम अपनी वास्तविक जरूरतों से कहीं ज्यादा दवाइयों का सेवन कर रहे हैं. डिप्रेशन, अवसाद और एंग्जायटी से जूझ रहे हर व्यक्ति को दवाइयों की जरूरत नहीं होती. उन्हें जरूरत है तो सिर्फ काउंसिलिंग की. किसी नॉन जजमेंटर, क्लिनिकल एक्सपर्ट से बात करने की.”
दवाइयां परेशानी का शॉर्टकट इलाज है, लेकिन कोई भी शॉर्टकट कभी सुरक्षित मंजिल तक नहीं पहुंचाता. डॉ. डैनियल एमेन कहते हैं कि इस आधे से ज्यादा डिप्रेशन और एंग्जायटी के केस सिर्फ काउंसिलिंग, डाइट और एक्सरसाइज के साथ ही ठीक किए जा सकते हैं.
इसलिए यदि आप भी ऐसी समस्याओं से जूझ रहे हैं तो तुरंत किसी दवा का सहारा लेने और लांग टर्म में उस पर निर्भर होने की बजाय कोशिश करें कि काउंसिलिंग के जरिए आप अपनी समस्या को दूर कर सकें. जैसाकि डॉक्टर माते लिखते हैं, “मनुष्य को जरूरत से ज्यादा दवाइयां खिलाने में सिर्फ एक ही पक्ष का हित है- दवाइयां बेच रही फार्मा कंपनियों का.”
Edited by Manisha Pandey