मिलें उस भारतीय वैज्ञानिक चिकित्सक से जिन्हें दो बार किया गया नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित
भारतीय वैज्ञानिक और पेशे से चिकित्सक उपेंद्रनाथ ब्रह्मचारी को फिजियोलॉजी और मेडिसिन के लिए 1929 और 1942 में नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया।
भारतीय वैज्ञानिक और पेशे से चिकित्सक उपेंद्रनाथ ब्रह्मचारी, कालाजार रोग या विसर्स्कल लीशमैनियासिस के लिए दवा की खोज के पीछे थे। उनके द्वारा बनाई गई दवा ने भारत में लाखों लोगों की जान बचाई, जिससे उन्हें 1929 में नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकन मिला।
19 दिसंबर, 1873 को पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले में जन्मे उपेंद्रनाथ के पिता पूर्वी भारतीय रेलवे में एक चिकित्सक थे, और उनकी माँ एक गृहिणी थीं। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा जमालपुर के पूर्वी रेलवे बॉयज हाई स्कूल से की, और 1893 में हुगली कॉलेज से गणित में बीए पूरा किया।
उपेंद्रनाथ कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से रसायन विज्ञान में मास्टर डिग्री हासिल करने के लिए आगे बढ़े। उसके बाद उन्होंने कलकत्ता मेडिकल कॉलेज से मेडिसिन और सर्जरी में लाइसेंसीएट की डिग्री, डॉक्टर ऑफ मेडिसिन की उपाधि एवं लाल रक्त कोशिकाओं के भौतिक-रसायनिक गुणों के ऊपर शोध करने के बाद फिजियोलॉजी में पीएचडी की डिग्री हासिल की।
उपेंद्रनाथ ने 1899 में प्रांतीय चिकित्सा सेवा में अपने करियर की शुरुआत की, जिसके बाद वह पैथोलॉजी और मटेरिया मेडिका के शिक्षक और बतौर एक चिकित्सक डक्का मेडिकल स्कूल में कार्यरत थे।
कैंपबेल मेडिकल स्कूल, जिसे अब नील रतन सरकार मेडिकल कॉलेज और अस्पताल कलकत्ता के रूप में जाना जाता है, ने उपेंद्रनाथ को 1905 में चिकित्सा विज्ञान के शिक्षक और चिकित्सक के रूप में नियुक्त किया। यही वो जगह थी जहां उन्होंने अपनी अधिकांश शोध कालाजार रोग के संबंध में कीं, साथ ही यूरिया स्टिबामाइन दवा का निर्माण भी किया।
ये वो बीमारी थी जो दक्षिण एशियाई और भूमध्यसागरीय देशों में उत्पन्न हुई थी। कालाज़ार सैंड फ्लाई के माध्यम से फैलता है और बढ़े हुए प्लीहा (spleen) और यकृत (liver), एनीमिया और बुखार जैसे लक्षणों को प्रदर्शित करता है। यह बीमारी पहली बार 1824 में भारत के जेसोर में पश्चिमी डॉक्टरों के नोटिस में आई थी, जो अब बांग्लादेश में है। पहला प्रकोप 1870 में असम में फैला था, जो जल्द ही पश्चिम बंगाल और बिहार में फैल गया। इस बीमारी की वजह से असम के पूरे गांव का सफाया हो गया, जिससे डॉक्टरों में चिंता बैठ गई।
दुनिया भर के डॉक्टरों ने इसके लिए इलाज खोजने में बड़े पैमाने पर निवेश किया था, लेकिन कोई भी दवा मृत्यु दर को कम करने में सक्षम नहीं थी। उपेन्द्रनाथ ने नुकसान को रोकने के लिए वैकल्पिक रणनीतियों के साथ अपनी शोध पर गंभीरता से काम करना शुरू किया।
इंडियन रिसर्च फंड एसोसिएशन ने उन्हें बीमारी के लिए दवा की खोज में अपनी शोध को आगे बढ़ाने के लिए 1919 में अनुदान दिया। इसी दौर में उनकी अधिकांश शोध कैंपबेल मेडिकल कॉलेज के एक छोटे से कमरे में की गई थीं। उन्होंने सफलतापूर्वक यूरिया स्टिबामाइन दवा का निर्माण किया। इस दवा की मदद से मृत्यु दर 1936 तक 95 प्रतिशत से 7 प्रतिशत तक आ गई।
उपेंद्रनाथ ने अपने पूरे करियर में कई पुरस्कार प्राप्त किए, जिसमें कलकत्ता विश्वविद्यालय का ग्रिफ़िथ मेमोरियल पुरस्कार और कलकत्ता स्कूल ऑफ़ ट्रॉपिकल मेडिसिन और हाइजीन का मिंटो मेडल शामिल हैं। उन्हें फिजियोलॉजी और मेडिसिन के लिए, 1929 में और फिर 1942 में नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया।