मेजर ध्यानचंद की विरासत: जब एक ग़ुलाम देश की हॉकी टीम ने हिटलर की जर्मनी को हराया
हिटलर ने मेजर ध्यानचंद से पूछा, जर्मनी आ जाओ, तुम्हें यहां फील्ड मार्शल बना दूंगा! ध्यानचंद ने हिटलर के प्रस्ताव को मना करते हुए कहा, 'भारत मेरा देश है, और मैं यहां खुश हूं.' एक तानाशाह के प्रस्ताव को इतने सधे हुए तरीके से ठुकराकर उन्होंने भारतीयों को अपना कायल बना लिया.
1936 का बर्लिन ओलंपिक. ब्रिटिश हुकूमत थी और भारत की हॉकी टीम मुक़ाबले में थी. इस टीम में अली दारा, अहमद खान और ध्यान चंद जैसे धुरंधर खिलाड़ी थे. इंडिया का पहला मैच पड़ा जर्मनी से, जिसमें इंडिया की टीम 4-1 से हार गई. इस हार ने ध्यानचंद को बिल्कुल हिलाकर रख दिया. ध्यानचंद और पूरी टीम रात भर सो नहीं पाई. अपनी आत्मकथा GOAL में उन्होंने इतना तक लिखा है, ‘मैं जब तक जिंदा रहूंगा इस हार को कभी नहीं भूलूंगा.’
जर्मनी से इस अपमानजनक हार के बाद ध्यानचंद ने जैसे न हारने की कसम खा ली. उसके बाद उस ओलम्पिक में जितने भी मैच हुए इंडिया ने सभी में जीत हासिल की. इंडिया हंग्री, अमेरिका, जापान को हराकर सेमी फाइनल में पहुंची. फिर फ्रांस को 10-0 से हराकर फाइनल में जगह पक्की कर ली.
फाइनल में एक बार फिर भारत और जर्मनी आमने सामने थे. भारत ने ओलंपिक में इतना शानदार खेला था कि फाइनल मैच देखने के लिए पूरा यूरोप उमड़ पड़ा. पूरे यूरोप में ध्यानचंद के पोस्टर छपे हुए थे. ध्यानचंद के चर्चे इतने फैल चुके थे कि इस मैच को देखने जर्मन तानाशाह अडॉल्फ हिटलर भी आया था. इंडिया ने कलात्मक आक्रामकता वाली अपनी शैली से जर्मनी को 8-1 से हरा दिया. इसमें से तीन गोल अकेले ध्यानचंद ने किए थे. अपनी टीम को हारता हुए देख हिटलर मैच बीच में छोड़कर चला गया. जर्मनी हार गई मगर हिटलर ध्यानचंद का मुरीद हो गया.
मैच खत्म होने के बाद ध्यानचंद को मालूम पड़ा हिटलर उनसे मिलना चाहता है; उनको थोड़ा भय और संकोच हुआ. पर ध्यानचंद हिम्मत जुटाकर हिटलर से मिलने पहुंच गए. हिटलर ने पूछा हॉकी खेलने के अलावा और क्या करते हो? ध्यानचंद ने जवाब दिया - मैं भारतीय सेना में हूं. हिटलर ने आगे पूछा, वहां तुम्हारी रैंक क्या है? ध्यानचंद बोले- मैं वहां लांस नायक हूं. फिर हिटलर ने कहा, जर्मनी आ जाओ, मैं तुम्हें यहां फील्ड मार्शल बना दूंगा.
यह सुनकर ध्यानचंद को झटका-सा लग गया. उन्हें समझ नहीं आया उनसे पूछा जा रहा है या उन्हें ऑर्डर दिया जा रहा है. एक लंबी गहरी सांस लेकर ध्यानचंद ने हिटलर को जवाब दिया- ‘भारत मेरा देश है और मैं वहां खुश हूं.’ एक तानाशाह के प्रस्ताव को इतने सधे तरीके से ठुकरा कर उन्होंने भारतीयों को अपना कायल बना लिया.
लगातार तीन ओलम्पिक गोल्ड
आज हॉकी का जादूगर कहे जाने वाले उन्हीं मेजर ध्यानचंद का जन्मदिन है. खेल दुनिया में उनके योगदान के सम्मान में उनके जन्मदिन को भारत में राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है. अपने असाधारण प्रदर्शन से उन्होंने भारतीय खेलों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक पहचान दिलाई. उन्होंने अंग्रेजों की हूकुमत में रहते हुए ही अपने दम पर भारत को लगातार तीन ओलंपिक में गोल्ड मेडल दिलाए थे. इनमें से पहला 1928 एम्सटर्डम, दूसरा 1932 लॉस एंजेलिस में, और तीसरा 1936 बर्लिन में हुआ था.
सैनिक परिवार में पैदा होने की वजह से उन पर सेना का काफी प्रभाव था. ध्यान जब 16 साल के हुए तो वो भी पिता और भाई की तरह भारतीय सेना में भर्ती हो गए. वहां उन्होंने सूबेदार मेजर तिवारी की देखरेख में हॉकी खेलना शुरू किया. उनके शानदार खेल को देखते हुए ध्यान चंद को 1927 में लांस नायक बना दिया गया. उसी साल उन्होंने एक इंटरनैशल हॉकी मैच में हॉकी टीम के कप्तान का भी रोल निभाया. लोग हॉकी स्टिक के साथ उनकी कारस्तानी और बॉल पर उनके कंट्रोल के कायल हो चुके थे.
ध्यानचंद 1956 में सेना से रिटायर हो गए, उसी साल उन्हें पद्म भूषण भी दिया गया. रिटायरमेंट के बाद उन्होंने कुछ कोचिंग कैंप्स में ट्रेनिंग दी फिर बाद में इंडिया के हॉकी कोच का भी जिम्मा संभाला. अपने आखिरी दिनों में वो कोमा में चले गए थे. 3 दिसंबर, 1979 को दिल्ली में उन्होंने आखिरी सांस ली.
उन्हें सम्मान देने के लिए दिल्ली सरकार ने नैशनल स्टेडियम ऑफ दिल्ली का नाम बदलकर मेजर ध्यान चंद स्टेडियम कर दिया. अभी पिछले साल 6 अगस्त को ही सरकार ने राजीव गांधी खेल रत्न का नाम बदलकर मेजर ध्यानचंद खेल रत्न कर दिया था. आम तौर पर हर साल इसी दिन खेल में उम्दा प्रदर्शन के लिए खेल रत्न के अलावा अर्जुन और द्रोणाचार्य पुरस्कार बांटे जाते हैं. मगर इस बार आवेदन करने की आखिरी तारीख 20 सितंबर तक रखी गई है.
ऐसा कहा जाता था कि जब ध्यानचंद हॉकी खेलते थे तो लगता था मानों गेंद उनकी स्टिक से ही चिपकी हुई है. 1936 ओलंपिक में उनका प्रदर्शन हॉकी के इतिहास में अब तक के सबसे उम्दा प्रदर्शनों में गिना जाता है.
(Edited by- Upasana)