दुनिया के एक हजार से अधिक वैज्ञानिकों ने घोषित की 'क्लाइमेट इमेरजेंसी'
ग्लोबल कॉर्बन प्रोजेक्ट की स्टडी, क्लाइमेट इम्पैक्ट लैब की रिसर्च रिपोर्ट और प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस' में प्रकाशित ताज़ा अध्ययन में पता चला है कि जीवाश्व ईंधन के इस्तेमाल, ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन से भारत में सालाना 10 लाख से अधिक मौतें और वर्षा चक्र बाधित हो रहा है। इस बीच विश्व के 153 देशों के 11,000 से अधिक वैज्ञानिकों ने जलवायु आपातकाल घोषित किया है।
ग्लोबल कॉर्बन प्रोजेक्ट ने अपने ताज़ा अध्ययन में खुलासा किया है कि इस समय दुनिया में सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जक देशों में चीन पहले, अमेरिका दूसरे, यूरोपीय यूनियन तीसरे और भारत चौथे नंबर पर है। दुनिया के कुल उत्सर्जन में इन चारों की 58 प्रतिशत हिस्सेदारी है। इस बीच टाटा सेंटर फार डेवलपमेंट के सहयोग से क्लाइमेट इम्पैक्ट लैब के एक ताज़ा रिसर्च नतीजे में बताया गया है कि भारत में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण सन् 2100 तक औसत वार्षिक तापमान में 4 डिग्री सेंटीग्रेड वृद्धि के साथ 35 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान वाले बेहद गर्म दिनों की संख्या में आठ गुना बढ़ोतरी हो जाएगी।
इससे हर साल लगभग 15 लाख लोगों की मौत हो सकती है, जबकि एक अन्य ताज़ा स्टडी के मुताबिक, जीवाश्म एवं जैव ईंधन के प्रयोग, कृषि-औद्योगिक गतिविधियों से पर्यावरण में ग्रीनहाउस गैसों एवं प्रदूषणकारी कणों की बढ़ोतरी के कारण हमारे देश में हर साल 10 लाख से अधिक लोगों की वायु प्रदूषण से जान चली जा रही है।
जीवाश्म ईंधन पर बढ़ती निर्भरता आने वाले समय में भारत पर, खासकर पंजाब और ओडिशा राज्यों पर बहुत भारी पड़ने वाली है। गौरतलब है कि लगभग 65 करोड़ वर्ष पूर्व जीवों के जल कर उच्च दाब और ताप में दबने से धरती के गर्भ में जीवाश्म ईंधन बना है, जिसे अवशोषित कर पेट्रोल, डीजल, घासलेट आदि के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।
रिसर्च के मुताबिक, जीवाश्म ईंधन से उत्पन्न हो रहा भारी वायु प्रदूषण विश्व में अनुमानित 70 लाख मौतों के लिए जिम्मेदार साबित हो चुका है। जीवाश्म ईंधन का प्रयोग रोक देने से 35 लाख से अधिक लोगों के प्राणों की रक्षा की जा सकती है।
जीवाश्म ईंधन का प्रदूषण केवल ग्लोबल वार्मिंग को ही बढ़ावा नहीं दे रहा, बल्कि करोड़ों लोगों की सेहत से खेलते हुए वर्षा चक्र को बिगाड़कर सूखे का कारण बन चुका है। 'प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस' में प्रकाशित अपनी ताज़ा स्टडी रिपोर्ट में अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं के एक समूह ने दावा किया है कि भारत में अगर जीवाश्म ईंधन का उपयोग बंद हो जाए, तो प्रतिवर्ष 6,92000 लोगों की जान बचाई जा सकती है।
शोधकर्ताओं ने सार्वजनिक स्वास्थ्य और जल चक्र पर वायु प्रदूषण के प्रभाव की गणना के लिए एक जलवायु मॉडल का उपयोग किया। इस अध्ययन में प्रदूषण के उत्सर्जन, अवस्था एवं वातावरण को प्रभावित करने वाली अन्य घटनाओं के बीच परस्पर संबंधों को ध्यान में रखते हुए शोधकर्ताओं ने सार्वजनिक स्वास्थ्य और जलवायु पर उनके प्रभाव का अनुमान लगाने के लिए ओजोन और 2.5 माइक्रो मीटर से छोटे कणिका तत्व की सांद्रता की गणना एक ऐसे काल्पनिक परिदृश्य में की, जहाँ जीवाश्म ईंधन के कारण कोई उत्सर्जन नहीं होता है।
यह रिसर्च रिपोर्ट 2050 तक जीवाश्म ईंधन का प्रयोग समाप्त करने की दृष्टि से तैयार की गई है। शोधकर्ताओं का कहना है कि जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल रोक दिए जाने से पेरिस समझौते का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। बताया गया है कि जीवाश्म ईंधन के कारण एरोसोल (छोटे कण) पृथ्वी तक पहुंचने वाली सूर्य की रोशनी को अवशोषित कर रहे हैं, जिससे वाष्पीकरण और बारिश बाधित हो जाती है। जीवाश्म ईंधन से मानवजनित उत्सर्जन (एरोसोल) को रोक देने से भारत के घनी आबादी वाले क्षेत्रों में 10 से 70 प्रतिशत तक वर्षा में वृद्धि हो सकती है।
विश्व के 153 देशों के 11,000 से अधिक वैज्ञानिकों ने हाल ही में जलवायु आपातकाल (क्लाइमेट इमेरजेंसी) घोषित किया है। इन वैज्ञानिकों ने 40 वर्षों के वैज्ञानिक विश्लेषण पर आधारित (अमेरिका की ओरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी के पर्यावरणविद प्रोफेसर विलियम जे रिपल और ओरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी के क्रिस्टोफर वुल्फ की) रिपोर्ट में चेताया है कि अगर भूमंडल के संरक्षण के लिए तत्काल कदम नहीं उठाए गए तो दुनिया को बहुत भयानक खतरे का सामना करना पड़ सकता है।
अपने चुनिंदा छह सुझावों में उन्होंने कहा है कि जीवाश्म ईंधन की जगह उर्जा के अक्षय स्रोतों का इस्तेमाल हो, मीथेन गैस जैसे प्रदूषकों का उत्सर्जन रोक कर पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा की जाए, वानस्पतिक भोजन का इस्तेमाल हो, मांसाहार रोका जाए, कार्बन मुक्त अर्थव्यवस्था का विकास करने के साथ ही जनसंख्या वृद्धि रोकी जाए।