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हर वक्त सेक्स वर्कर्स की मदद के लिए तैयार रहने वाली निर्मला ठाकुर

हर वक्त सेक्स वर्कर्स की मदद के लिए तैयार रहने वाली निर्मला ठाकुर

Tuesday February 12, 2019 , 6 min Read

निर्मला ठाकुर (दाएं) 

निर्मला लगभग दो दशक पहले काठमांडू में शादी होने के बाद पति के साथ मुंबई में अपनी शादीशुदा गृहस्थी में व्यस्त रहने लगी थीं, तभी एक दिन सुबह अखबार की एक खबर ने उनका खून खौला दिया। उस खबर ने उनकी पूरी जिंदगी मकसद बदल दिया। 


जॉइनिंग डॉट्स ऑर्गनाइजेशन के प्रॉजेक्ट डायरेक्टर न‌ईम प्रधान बताते हैं कि उन्होंने समाज सेवा का काम काठमांडू की निर्मला के. ठाकुर से सिखा है। जॉइनिंग डॉट्स आर्गेनाइजेशन हर महीने जरूरतमंद लोगों को मुंबई के कामठीपूरा, ठाणे, कांदीवली आदि क्षेत्रों में राशन, कपड़े और दवाइयां बांटता है। इस आर्गेनाइजेशन की ही संस्थापिका हैं काठमांडू की रहने वाली डॉ निर्मला ठाकुर, जो दो दशक पहले अपनी शादी के बाद मुंबई पहुंच गई थीं और तभी से वह सेक्स वर्कर्स को पुर्नवास के लिए भी संघर्षरत हैं। 


इस कोशिश के लिए संयुक्त् राष्ट्र संघ उनको डॉक्टरेट की मानद डिग्री से सम्मानित कर चुका है। जिंदगी जीने की मजबूरी में गलीज पेशे का सामना कर रही लाखों महिलाओं के बीच निर्मला ठाकुर जैसी तमाम जागरूक स्त्री संगठन उनकी जद्दोजहद से जूझ रहे हैं। ऐसी कोशिशों के नतीजे भी सामने आने लगे हैं। गुना (म.प्र.) में सेक्स वर्कर महिलाओं द्वारा बनाए गए ब्रांडेड उत्पाद जल्द ही प्रदेश के बाजारों में उतरने वाले हैं। राज्य सरकार ने पुनर्वास नीति के तहत उनको ऐसे संसाधन मुहैया कराया है। अपनी ही जिंदगी से दो-दो हाथ कर रहे ऐसे लोगों की मदद के लिए विकसित एक वेबसाइट प्रबंधन ने हाल ही जब 21,000 लोगों पर सर्वे किया, उसके बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से जारी होने वाले 'मैनुअल इंटरनेशनल क्लासीफ़िकेशन ऑफ़ डिसीज़' (आईसीडी ) में उनको भी शामिल करने पर विचार किया जाने लगा। पीड़ितों ने स्वयं वेबसाइट प्रबंधन से संपर्क किया था। 


निर्मला के. ठाकुर ऐसे ही पीड़ितों का दुख बांटने में जुटी हैं। इसके लिए उन्हें किसी तरह की सामाजिक वर्जनाओं की झिझक नहीं होती है। वह तो साफ-साफ कहती हैं कि 'हां, वह हर रोज उन बदनाम गलियों में जाती हैं, जहां लोग आधी आबादी का भाव लगाते हैं, जहां तरह-तरह की असहनीय बातों से साबका पड़ता हैं। पूरी स्त्री जात के लिए इससे घिनौना सच और क्या हो सकता है, जिन्होंने अपने लिए हर शहर, महानगर में ये नर्क स्थापित कर रखे हैं, वे वहां से हो आने के बाद उसके बारे में बात करने से भी मुंह छिपाते डोलते हैं, उसके बारे में कोई बात तक करना अपनी शान और रुतबे के खिलाफ समझते हैं।' 


जब भी वह वहां होती हैं, पूरी निर्भीकता से गलीज मर्दों को दो टूक जवाब देती हैं ताकि वहां का दलदल कुछ कम हो सके। निर्मला ठाकुर की कोशिश रहती है कि वे उस दलदल में फंसी लड़कियों को चाहे जैसे भी बाहर निकलने का मौका मुहैया कराएं। वे लड़कियां, उस नर्क में जिंदा तो हैं लेकिन लाश की तरह। भीतर का सच है कि उन्हे वह नर्क जिंदगी उनके ही नाते-रिश्ते के लोगों ने नसीब की है। गुमनामी के अंधेरे में तिल-तिल मर रहीं उन लड़कियों में से वे कइयों को बाहर निकालने में कामयाब रही हैं।


निर्मला ठाकुर बताती हैं कि उस नर्क को उजाड़ना कोई आसान काम नहीं है। सोशल वर्कर के रूप में उन्होंने वहां की पीड़ितों को रेसक्यूं कराए। अब वह उनके पुनर्वास की लड़ाई लड़ रही हैं। वह अब तक भले सैकड़ों लड़कियों को उस दलदल से बाहर निकाल चुकी हैं मगर हर रोज उनकी दर्दनाक दास्तानें सुन-सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उनको एक बार मुंबई के एक ऐसे ही इलाके के बारे में पता चला, जहां नेपाल, सिलीगुड़ी और हिमाचल से लाकर लड़कियां बेच दी गई थीं। सूचना खंगालने के बाद वह अपनी टीम के साथ वहां पहुंची। 


टीम के एक साथी ने कस्टमर बनकर दलाल से एक नेपाली लड़की का सौदा तय किया। उसके बाद टीम का सदस्य लड़की के साथ अंदर चला गया और लड़की को नेपाली भाषा में कागज पर लिखकर दिया कि वह तुम्हाारी मदद करना चाहता है। अगर वो वहां से बाहर निकलना चाहती हो तो कुछ दिन में वह दोबारा उसे यहां से ले जाने के लिए आ सकता है। कुछ दिन बाद पुलिस को बाकायदा सूचित करने के बाद टीम वहां पहुंची। उस नेपाली लड़की ने नेपाली भाषा में ही पहले से अपना जवाब तैयार कर रखा था। 


निर्मला ठाकुर बताती हैं कि उस नेपाली लड़की ने कागज पर लिख रखा था कि उसे यहां से निकालो। यहां की बदतर जिंदगी जीने से तो वह मरना पसंद करेगी। उसके बाद उस लड़की ने टीम को वहां से निकलने का खुफिया रास्ता बताया। टीम तुरंत हरकत में आ गई। योजना के मुताबिक ऐन मौके पर इशारा मिलते ही पुलिस आ धमकी और उस नेपाली लड़की के साथ कई और बदनसीबों को वहां से रेस्केयू करा लिया गया। वहां से निकलते ही वे सभी लड़कियां फूट-फूटकर रोने लगीं। उन्हे ढांढस बंधाकर किसी तरह चुप कराया गया। 


उनमें से एक काठमांडू की लड़की तो मात्र अठारह साल की उम्र में अपने प्रेमी के साथ शादी के ख्वाब सजाकर भाग आई थी। प्रेमी ने उसे अपने साथी को बेच दिया और फिर उसके साथी ने कुछ दिन अपने साथ रखने के बाद दिल्ली़ के ठिकाने पर बेच दिया। उसके बाद दिल्लीा के दलालों ने उसे मुंबई की बदनाम गलियों में धकेल दिया। उसे अड्डे से मुक्त कराई गई, लगभग हर लड़की की ऐसी ही कोई न कोई दर्दनाक दास्तान है। 


निर्मला के. ठाकुर लगभग दो दशक पहले काठमांडू में अपनी शादी होने के बाद पति के साथ मुंबई आ गई थीं। वह अपनी शादीशुदा गृहस्थी में व्यस्त रहने लगी थीं, तभी एक दिन सुबह अखबार की एक खबर ने उनका खून खौला दिया। वह खबर पढ़कर वह अंदर तक हिल गईं। उसी वक्तस उन्होंने संकल्प लिया कि वह अब और कोई काम नहीं, किसी भी कीमत पर नेपाल से लाकर यहां के दलदल में धकेल दी गईं दो लाख महिलाओं, छोटी लड़कियों की वह जिंदगी बचाएंगी। उसके लिए जरूरी था, लोगों को संगठित करना। अपना कोई संगठन तब था नहीं तो उन्होंने ऐसे कई संगठनों से संपर्क किया। लोग उनके साथ एकजुट होने लगे और वह अपने मिशन पर चल पड़ीं। 


निर्मला ठाकुर कहती हैं कि इस तरह वाकये सुनते-सुनते कई बार वह भी टूट जाती हैं। किसी तरह अपनी इच्छाशक्ति जुटाकर फिर उस दलदल तक पहुंच जाती हैं क्योंकि उन्हे हर वक्त उस गलाजत को लेकर बेकाबू गुस्सा आता है। उनके संगठन के रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा दलाल होते हैं। उनके पास गुंडों के जत्थे होते हैं, जो उनके ही चंद टुकड़ों पर पलते हैं। अपने तीन महीने के बच्चेन को घर पर छोड़कर वह उन मुसीबत की मारी लड़कियों को उस दलदल से निकालने चल पड़ती हैं। एक बार तो निर्मला ठाकुर को उनके पति ने ही साफ साफ कह दिया था कि वह अपने कदम पीछे खींच लें, इस काम से अपने को अलग कर किसी और सामाजिक काम में लग जाएं, क्योंकि इससे उनके अपने बच्चे की जिंदगी सांसत में आ गई है लेकिन उन्होंने धैर्य और विवेक से काम लिया। 

 

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