छत्तीसगढ़ में वंचित बच्चों की मिसाल बनी सीमा वर्मा की 'एक रुपया मुहिम’
बिलासपुर (छत्तीसगढ़) की सीमा वर्मा महामना मदन मोहन मालवीय की तरह लोगों से एक-एक रुपए जुटाकर वंचित, गरीब, संसाधनहीन स्कूली बच्चों की मदद करती हैं। वह किसी से भी एक रुपए से ज्यादा नहीं लेती हैं। अब तक वह ऐसे बच्चों की लाखों रुपए की मदद कर चुकी हैं। उनकी 'एक रुपया मुहिम’ अब मिसाल बन चुकी है।
महामना मदन मोहन मालवीय ने कभी एक-एक रुपए लोगों से जोड़ कर वाराणसी में बीएचयू जैसा कालजयी संस्थान खड़ा कर दिया था। पिछले तीन साल से संसाधनहीन परिवारों के बच्चों की पढ़ाई लिखाई के लिए बिलासपुर (छत्तीसगढ़) की बीएससी टॉपर सीमा वर्मा लोगों से एक-एक रुपए की मदद राशि जुटाती हैं। उनकी 'एक रुपया मुहिम’ इन बच्चों के लिए डूबते को तिनके का सहारा जैसी भले हो, उनकी कोशिशों से हजारों लोगों को ऐसे वक़्त में प्रेरणा और सामाजिक सहानुभूति मिल रही है, जबकि ज्यादातर लोग आज सिर्फ अपने लिए कमाने-खाने में जुटे हुए हैं।
सीमा इस मुहिम के साथ ही कानून की पढ़ाई भी कर रही हैं। वह अन्य तरह की सामाजिक गतिविधियों में भी बढ़चढ़कर हिस्सा लेती रहती हैं। अब तो उनकी 'एक रुपया मुहिम’ ने एक अभियान का रूप ले लिया है।
सीमा स्कूल, कॉलेजों, संस्थाओं में जाकर बच्चों और शिक्षकों को जागरूक करने के साथ उनसे मात्र एक-एक रुपए की सहयोग राशि भी लेती हैं। इस राशि को वह स्कूली शिक्षा ले रहे गरीब बच्चों की मदद में खर्च कर देती हैं। वह अगस्त 2016 से अब तक शताधिक जरूरतमंद बच्चों की फीस जमा कर चुकी हैं।
इसकी शुरुआत उन्होंने राजधानी बिलासपुर के सीएमडी कॉलेज से पहली बार की थी। उस दिन उन्होंने पहली बार 395 रुपए जुटा लिए थे। वह राशि उन्होंने एक सरकारी स्कूल की छात्रा की फीस में जमा करने के साथ ही उसके लिए कुछ स्टेशनरी भी खरीदी।
सीमा बताती हैं कि पिछले तीन वर्षों में उन्होंने स्कूली कार्यक्रमों में अपने मोटिवेशनल स्पीच से एक-एक रुपए कर दो लाख रुपये से 33 ज़रूरतमंद बच्चों की स्कूल की फीस जमा करने के साथ ही उनके लिए किताब-कॉपी, स्टेशनरी के सामान आदि खरीदकर दे चुकी हैं। यद्यपि यह मुहिम चलाते समय उन्हे कई एक लोग ‘भिखारी’ कह चुके हैं लेकिन ऐसी बातों पर वह कान नहीं देती हैं।
सीमा बताती हैं कि एक बार जब उनकी एक दिव्यांग दोस्त ने अपने लिए ट्रायसाइकिल खरीदने को कॉलेज प्रशासन से मदद मांगी तो उसे सिर्फ आश्वासन मिल कर रह गया। बाद में उनको पता चला कि साइकिल तो फ्री मिलती है। उस वाकये से ही गरीब बच्चों की मदद का सोशल आइडिया मिला। उसके बाद वह टीचर्स की मदद से शिक्षण संस्थानों में सक्रिय होने लगीं। अपने कॉलेज में भी सेमिनार कर ऐसे बच्चों के लिए खुली पहल शुरू की। उस इवेंट में उन्होंने संपन्न परिवारों के बच्चों से भी एक-एक रुपये की मदद मांगी और उनकी मुहिम चल पड़ी। लोग आराम से एक-एक रुपए की मदद करने लगे।
वह कहती हैं कि समाज में अच्छे-बुरे दोनो ही तरह के लोग होते हैं। आज भी अच्छे लोगों की ही तादाद ज्यादा है। मदद राशि भी कोई खास नहीं, इसलिए लोगों को इससे कोई आर्थिक दिक्कत महसूस नहीं होती है। एक बार तो एक कॉलेज में उनके स्पीच से प्रभावित होकर लोगों ने एक-एक रुपए कर दो हजार रुपए से अधिक की राशि बच्चों की मदद के लिए दे दी। वह किसी से भी एक रुपए से ज्यादा नहीं लेती हैं।