कश्मीरी आतंकवाद पर सुनंदा वशिष्ठ के करारे जवाब से पूरी दुनिया की बोलती बंद
पिछले दिनो अमेरिकी कांग्रेस में कश्मीर मुद्दे पर सुनवाई में भारत की वरिष्ठ स्तंभकार सुनंदा वशिष्ठ करारा जवाब कुछ ही पलों में भारत समेत पूरे विश्व मीडिया में छा गया। उन्होंने कहा कि कश्मीर में आतंकवाद एक कड़वी सच्चाई है। जब मेरे अधिकार छीने गए थे, तब मानवाधिकार की वकालत करने वाले लोग कहां थे?
उन्नीस सौ नब्बे के दशक में कश्मीरी हिंदुओं पर हुआ हत्याचार एक ऐसी कड़वी सच्चाई है, जिसे चाहकर भी भुला पाना पीड़ितों के लिए असंभव है। रातोरात खुद को बचाने के लिए कश्मीर में अपना घर-संपत्ति छोड़कर भागे लोगों के मन में आज भी उस रात की बेचैनियां हैं, जब उन्होंने अपनी आँखों के सामने बर्बरता से अपने लोगों को जिंदा जलते-मरते देखा और जिन्हें इंसाफ की लड़ाई लड़ते-लड़ते आज तीन दशक का वक्त गुजर चुका है। पिछले दिनो टॉम लैंटॉस एचआर द्वारा आयोजित यूएस कांग्रेस की बैठक में शामिल होने के लिए वॉशिंगटन पहुँचीं भारतीय स्तंभकार सुनंदा वशिष्ठ का दर्द कुछ इसी तरह छलका, जिनके मन में कश्मीर की ऐसी तमाम दास्तान सिमटी हुई हैं।
वह बताती हैं कि मेरे दादाजी रसोई की चाकू और जंग लगी कुल्हाड़ी लेकर हमें मारने के लिए खड़े थे, ताकि वो हमें उस बर्बरता से बचा सकें, जो जिंदा रहने पर हमारा आगे इंतजार कर रही थी। अमेरिका में कश्मीर पर दिया गया सुनंदा वशिष्ठ का भाषण कुछ ही पलों में पूरी दुनिया में छा गया।
टॉम लैंटोस एचआर कमिशन अमेरिकी संसद के निचले सदन हाउस ऑफ़ रिप्रज़ेंटेटिव्स का द्विपक्षीय समूह है, जिसका लक्ष्य अंतरराष्ट्रीय रूप से मान्य मानवाधिकार नियमों की वकालत करना है। कमिशन की ओर से 'भारत के पूर्व राज्य जम्मू और कश्मीर में ऐतिहासिक और राष्ट्रीय संदर्भ में मानवाधिकार की स्थिति की पड़ताल' विषय पर पिछले दिनो एक सुनवाई का आयोजन किया गया था। कमिशन की ओर से होने वाली इस तरह की विभिन्न सुनवाइयों में शामिल होने वाले 'गवाह' अमरीकी कांग्रेस को संबंधित विषय पर क़दम उठाने को लेकर सुझाव देते हैं।
जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी किए जाने और इसे दो केंद्र शासित राज्यों में बांटने के बाद मानवाधिकार की स्थिति को लेकर उठ रहे सवालों पर इस सुनवाई में दो पैनल थे। पहले पैनल में अमरीका के अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग की आयुक्त अरुणिमा भार्गव थीं, जिन्होंने भारत प्रशासित कश्मीर में अल्पसंख्यकों की स्थिति पर बात रखी। दूसरे पैनल में सुनंदा वशिष्ठ समेत छह लोग थे।
सुनंदा वशिष्ठ ने भारत प्रशासित कश्मीर की वर्तमान स्थिति को लेकर मानवाधिकार की वकालत करने वालों पर सवाल उठाते हुए कहा कि "कश्मीर में अराजकता के ख़िलाफ़ लड़ने में भारत की सहायता करने के लिए यह उपयुक्त समय है। पश्चिम और बाक़ी अंतरारष्ट्रीय समुदाय का ध्यान कश्मीर में मानवाधिकार की ख़राब स्थिति पर जाने से पहले घाटी ने उसी तरह के आतंक और बर्बरता को देखा है, जिसे इस्लामिक स्टेट ने सीरिया में अंजाम दिया था। मुझे ख़ुशी है कि आज इस तरह की सुनवाइयां हो रही हैं क्योंकि जब मेरे परिवार और हमारे जैसे लोगों ने अपने घरों, आजीविका और जीवनशैली को छोड़ना पड़ा, तब दुनिया चुप बैठी थी। जब मेरे अधिकार छीने गए थे, तब मानवाधिकार की वकालत करने वाले लोग कहां थे? राजनियक मामलों में भारत को किसी प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं। लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत भारत ने पंजाब और उत्तर पूर्व में अराजकता को पराजित किया है। इस तरह की अराजकता से निपटने के लिए भारत को मज़बूत करने का यह सही समय है ताकि मानवाधिकार से जुड़ी समस्याओं को हमेशा के लिए ख़त्म किया जा सके। दुनिया को इस बात का पता होना चाहिए, हम कश्मीर में इस्लामी आतंकवाद से लड़ रहे हैं। सभी मौतें पाकिस्तान की ओर से ट्रेनिंग पाने वाले आतंकवादियों के कारण हो रही हैं।"
सुनंदा वशिष्ठ ने कहा कि "दोहरी बातों से भारत को कोई मदद नहीं मिल रही है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को 'कट्टरपंथी इस्लामी आतंक से निपटने में भारत की सहायता करनी होगी, तभी मानवाधिकारों को संरक्षण मिल सकेगा। कश्मीर में कभी जनमत संग्रह नहीं होगा। जनमत संग्रह के लिए ज़रूरी है कि पूरा समुदाय एक फ़ैसला ले मगर इस मामले में कश्मीर का एक हिस्सा भारत के पास है और दूसरा पाकिस्तान के पास; चीन के पास भी एक हिस्सा है। भारत ने कश्मीर पर कब्ज़ा नहीं किया। वह हमेशा से भारत का अभिन्न हिस्सा रहा है। भारत की पहचान 70 साल की नहीं है बल्कि यह पांच हजार साल पुरानी सभ्यता है। न कश्मीर के बिना भारत है, न भारत के बिना कश्मीर।"
संबोधित करने वाले पैनल में अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग की आयुक्त अरुणिमा भार्गव, ओहायो यूनिवर्सिटी में मानव विज्ञान की एसोसिएट प्रोफ़ेसर हेली डुशिंस्की, सेहला अशाई,यूसरा फ़ज़िली जॉर्जटाउन लॉ में सहायक प्रोफ़ेसर अर्जुन एस. सेठी, मानवाधिकार संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच के एशिया एडवोकेसी डायरेक्टर जॉन सिफ़्टन आदि प्रमुख रहे।