ऋचा की गिरफ्तारी से फिर गरमाया महिलाओं की आज़ादी का सवाल
आखिर, हर तरह की स्वतंत्रताओं का सवाल अक्सर आधी आबादी को ही क्यों घेर लेता है! वह झारखंड में ऋचा भारती का मामला हो अथवा फ्रांस में बुरकीनी बैन तोड़ने वाली मुस्लिम महिलाओं का; जबकि एक ताज़ा स्टडी में पता चला है कि धार्मिक सहिष्णुता वाले 89 फीसदी लोग लोकतांत्रिक व्यवस्था में आस्था रखते हैं।
एक ओर ताज़ा स्टडी में बताया गया है कि धार्मिक सहिष्णुता में विश्वास रखने वाले 89 फीसदी लोग लोकतांत्रिक व्यवस्था में आस्था रखते हैं, दूसरी ओर सबरीमाला मंदिर विवाद से लेकर अब रांची (झारखंड) में ऋचा भारती प्रकरण और फ्रांस में बुरकीनी बैन तोड़ने वाली मुस्लिम महिलाओं की आजादी सोशल मीडिया पर तरह-तरह के सवालों के घेरे में है। इन दोनो ताज़ा मामलों का भी ताल्लुक धार्मिक आस्था से है।
इसी तरह हाल ही में पाकिस्तान में आसिया बीबी की रिहाई पर अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर एक वार्षिक रिपोर्ट जारी करते कहते हैं कि ईशनिंदा कानून का दुरुपयोग सख्ती से रोका जाना चाहिए। सऊदी अरब ने सितंबर 2017 में महिलाओं के गाड़ी चलाने पर लगे प्रतिबंध को हटाने का ऐलान किया था। ताज़ा मामले में अब वहां की महिलाएं पुरुषों की इजाजत के बिना लंबी उड़ान भर सकेंगीं। सवाल है, आखिर, हर तरह की स्वतंत्रताओं का सवाल बार-बार, अक्सर आधी आबादी को ही क्यों घेर लेता है!
गौरतलब है कि सोशल मीडिया पर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के आरोप में गिरफ्तार ऋचा भारती को गत दिवस रांची के व्यवहार न्यायालय (न्यायिक दंडाधिकारी मनीष कुमार सिंह की अदालत) से सशर्त जमानत मिली है। अदालत ने अपने इस फैसले में ऋचा को पांच कुरान सरकारी स्कूल-कॉलेज या विश्वविद्यालय में दान करने का निर्देश दिया है। इनमें से एक कुरान सूचक सदर अंजुमन कमेटी पिठोरिया के मंसूर खलीफा को देना होगा। अदालत ने कुरान दान के दौरान ऋचा को सुरक्षा मुहैया कराने का निर्देश भी पुलिस प्रशासन को दिया है।
इस फैसले पर ऋचा ने टिप्पणी की है कि जब दूसरे समुदाय के लोग ऐसा करते हैं तो उन्हें हनुमान चालीसा बांटने को क्यों नहीं कहा जाता? मंसूर खलीफा ने रांची के पिठोरिया थाने में 12 जुलाई 2019 को प्राथमिकी दर्ज कराई थी कि फेसबुक पर ऋचा की टिप्पणी से धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंची है। उसके बाद उनको 12 जुलाई को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया था। ऋचा के मामले पर आज भाजपा के राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा है- ‘मैं उम्मीद करता हूं कि ऋचा इस मुद्दे के लिए सबसे सही शख्स हैं। मैं अदालत में उनकी मदद करूंगा। हम दूसरों के धार्मिक ज्ञान को प्रसारित नहीं कर सकते।’
उल्लेखनीय होगा कि हाल ही में इस्लाम पर संदेह जताते हुए जर्मनी के बैर्टल्समन फाउंडेशन का एक सर्वे सामने आया है। 'रिलीजन मॉनीटर' में प्रकाशित धार्मिक समाजशास्त्री ग्रेट पिकेल की इस सर्वे रिपोर्ट में बताया गया है कि आप्रवासन और वैश्वीकरण के चलते धार्मिक विविधता बढ़ी है लेकिन लोगों का अब भी लोकतंत्र पर गहरा विश्वास बरकरार है। किसी भी धर्म के सदस्य अच्छे डेमोक्रेट बन सकते हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक, लगभग 93 फीसदी ईसाईयों ने लोकतंत्र को बेहतरीन व्यवस्था माना है तो 91 फीसदी मुसलमानों और 83 फीसदी अन्य धर्म के लोगों ने भी लोकतंत्र पर भरोसा जताया है। यानी धार्मिक अनुशासन से ज्यादा महत्वपूर्ण है लोकतंत्र में विश्वास का उससे बड़ा होना। सर्वे के दौरान लिए गए इंटरव्यू में कठोर धार्मिक मान्यताओं को धर्मों के प्रति असहिष्णु और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खतरा बताया गया है। स्टडी से जुड़ी बैर्टल्समन फाउंडेशन की यास्मीन एल-मेनोर कहती हैं कि इस्लाम को लेकर व्यक्त किए गए संदेह को इस्लामोफोबिया नहीं समझा जाना चाहिए।
आधी आबादी की धार्मिक और लोकतांत्रिक आजादी से जुड़ा एक और वाकया हाल ही में फ्रांस में बुरकीनी बैन तोड़ने वाली मुस्लिम महिलाओं का सामने आया है। वे बुरकीनी पहनने पर लगी पाबंदी का उल्लंघन कर रही हैं। बुरकीनी एक तरह का स्वीमिंग सूट है, जिसमें मुंह-हाथ-पैर छोड़कर बाकी पूरा शरीर ढंका रहता है। फ्रांस में पिछले दिनो जैसे-जैसे गर्मी बढ़ी, बुरकीनी पर लगे बैन को लेकर बहस भी सरगर्म हो गई। फ्रांस के दक्षिणपूर्वी शहर ग्रेनोबल में पिछले दिनों जब मुस्लिम महिलाओं ने एक स्वीमिंग पूल में बुरकीनी बैन का उल्लंघन किया और उन पर 35 यूरो का जुर्माना लगाया गया तो सिटिजन अलायंस ऑफ ग्रेनोबल नाम के संगठन ने उनके अधिकारों की रक्षा के लिए 'ऑपरेशन बुरकीनी' ग्रुप का गठन कर दिया।
गौरतलब है कि एक साल पहले छह सौ मुस्लिम महिलाओं के हस्ताक्षर जमा करने के बाद 'ऑपरेशन बुरकीनी' शुरू किया गया था। अब वे मुस्लिम महिलाएं मांग कर रही हैं कि स्वीमिंग पूल बुरकीनी बैन को हटाएं। अब समय आ गया है कि साफ और जोर से कहा जाए- 'बुरकीनी के लिए फ्रांस में कोई जगह नहीं है। उन्हें भी बाकी लोगों जैसे अधिकार मिलने चाहिए। हमें फ्रांस में भेदभाव करने वाली नीतियों और पूर्वाग्रहों के खिलाफ लड़ना होगा।'