कैंसर के इलाज को सस्ता और प्रभावी बनाने की कोशिश में जुटे हैं ये 5 स्टार्टअप्स
Ø मार्च, 2018 तक भारत में कैंसर मरीज़ों की संख्या 22.5 लाख से भी अधिक थी।
Ø हर साल 11.5 लाख लोग कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी की चपेट में आते हैं।
Ø सिर्फ़ 2018 में ही, 4.8 लाख लोगों की कैंसर से मौत हुई।
Ø हालिया आंकड़ों के मुताबिक़, 75 साल की उम्र तक लगभग 10 प्रतिशत देशवासियों को कैंसर होने की आशंका रहती है।
ये आंकड़े नैशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ़ कैंसर प्रिवेंशन ऐंड रिसर्च (एनआईसीपीआर) द्वारा जारी किए गए हैं। इससे भी बड़ी समस्या यह है कि भारत इस स्तर तक कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी से लड़ने के लिए तैयार नहीं है और कैंसर हेल्थ केयर क्षेत्र में मरीज़ों की संख्या के अनुपात में डॉक्टरों की संख्या भी काफ़ी कम है। इतना ही नहीं, देश के अधिकतर हिस्सों में कैंसर के उपयुक्त ट्रीटमेंट का अभाव है।
आज हम आपके ऐसे 5 स्टार्टअप्स के बारे में बताने जा रहे हैं, जो लगातार इस परिदृश्य को बदलने की कोशिश में लगे हुए हैं।
सैस्कैनः ओरल कैंसर का पता लगाने के लिए एक कैमरा
डॉ. सुभाष नारायणन कहते हैं, "हर साल देश में ओरल कैंसर के लगभग 80 हज़ार मामले दर्ज होते हैं और आधे से अधिक मरीज़ कैंसर के हाथों ज़िंदगी हार जाते हैं क्योंकि शुरुआती स्तर पर कैंसर का पता नहीं लग पाता।"
सैस्कैन समय रहते कैंसर का पता लगाने के लिए एक रियल टाइल सल्यूशन है। यह विभिन्न प्रकार की वेवलेंथ वाली लाइट के ज़रिए मुंह के अंदर की तस्वीरें ले सकता है। डॉ. नारायणन ने स्पष्ट करते हुए बताया कि इस कैमरे की मदद से मिलने वाली तस्वीरों की रियल टाइम जांच हो सकती है और यह पता लगाया जा सकता है कि टिश्यू (ऊतक) सामान्य अवस्था में है या नहीं।
इसके बाद मशीन लर्निंग तकनीक की मदद से कैंसर के ग्रेड का पता लगाया जाता है। यह डिवाइस टेक्निशियन को यह भी बताता है कि टिश्यू का कौन सा बायोप्सी के लिए सबसे उपयुक्त है। इस डिवाइस की मदद से शुरुआती स्तर पर ही कैंसर का पता लगाया जा सकता है और इसलिए मरीज़ की जान बचने की संभावनाएं भी बढ़ जाती हैं।
यह डिवाइस पोर्टेबल है और बैटरी से संचालित होती है, इसलिए इसका इस्तेमाल हाथ में पकड़कर भी किया जा सकता है। प्राइमिरी हेल्थ सेंटर्स या फिर गैर-सरकारी संगठन स्क्रीनिंग कैंप्स के दौरान इसे एक स्क्रीनिंग टूल के तौर पर भी इस्तेमाल कर सकते हैं। डॉ. नारायणन कहते हैं कि बैटरी से चलने की क्षमता की बदौलत, बिजली के अभाव में रहने वाले गांवों में इसका इस्तेमाल हो सकता है।
एक्सोकैनः ख़ून, पेशाब और थूक से चल सकता है कैंसर का पता
कैंसर के उपचार की सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि इसके लिए कराए गए टेस्ट्स का परिणाम पूरी तरह से निर्णायक नहीं होता। डॉ. अमन शर्मा कहते हैं कि उपचार शुरू करने से पहले दो से तीन बार अलग-अलग तरह के टेस्ट्स कराने पड़ते हैं और उसके बाद ही एक लीक पर उपचार शुरू किया जा सकता है। इस वजह से अगर किसी के शरीर में बहुत तेज़ी के साथ कैंसर बढ़ रहा है तो दो से तीन हफ़्तों की देरी बहुत ही घातक साबित हो सकती है।
अमन ने इस चुनौती का हल खोज निकाला और उन्होंने एक ऐसी तकनीक विकसित की, जिसके अंतर्गत एक्ज़ोज़ोम्स की मदद से बिना बायोप्सी और स्कैनिंग के भी कैंसर का पता लगाया जा सकता है। एक्सोकैन आपके बल्ड, यूरिन और सलाइवा की मदद से कैंसर का पता लगाता है। इस तरह की जांच परंपरागत जांच से सस्ती भी है और सटीक भी। फ़िलहाल, एक्सोकैन एक दिन में 500 मरीज़ों का सैंपल ले सकता है और उसे प्रॉसेस कर सकता है।
एक्सोकैन को बहुत विस्तृत मैनुफ़ैक्चरिंग फ़ैटिलिटी की ज़रूरत नहीं पड़ती, बल्कि इसे छोटी लैब्स में इस्तेमाल में लाया जा सकता है। इस सुविधा की वजह से सुदूर इलाकों तक भी इसकी पहुंच बनाई जा सकती है और पिछले इलाकों में भी कैंसर के इलाज को सस्ता और सुविधाजनक बनाया जा सकता है।
थेरानोसिस
थेरानोसिस एक तरह की लिक्विड बायोप्सी पर शोध कर रहा है, जो खून के संचार में से लाइव कैंसर सेल्स का पता लगा सके। यह एक तरह की 'माइक्रोफ़्लूइडिक्स लैब-ऑन-अ-चिप' तकनीक है, जो पेरिफ़ेरल ब्लड में मौजूद ट्यूमर सेल्स (सीटीसी) का पता लगाती है। डॉ. कन्न विस्तार से बताते हुए कहते हैं, "ये सीटीसी लाइव कैंसर सेल्स होती , जो ख़ून के ज़रिए दूसरे अंगों तक पहुंचती हैं और सेकंडरी कैंसर में तब्दील हो सकती हैं। इसलिए डेड कैंसर सेल्स से मिलने वाले डीएनए के अपेक्षा सीटीसी अधिक महत्वपूर्ण होते हैं।"
इस तकनीक में एक चिप के सहारे मरीज़ के शहरीर में बह रहे ख़ून में से असामान्य ब्लड सेल्स को आसानी से पहचाना जा सकता है और उनका विश्लेषण किया जा सकता है। एक हाई-स्पीड माइक्रोस्कोप कैमरा की मदद से जो डेटा इकट्ठा होगा, उसे आर्टिफ़िशियल तकनीक की मदद से ऐनालाइज़ किया जा सकता है।
थेरानोसिस ने इन-हाउस पायलट स्टडीज़ पूरी कर ली हैं और अब यह अपने वर्किंग प्रोटोटाइप को बड़े स्तर पर मान्यता दिलाने का प्रयास कर रहा है। कंपनी का अगला लक्ष्य है कि एक साल के भीतर देश के सभी बड़े कैंसर अस्पतालों में इस तकनीक को पहुंचाया जाए।
डॉ. कन्न का अंदाज़ा है कि मरीज़ के लिए एक टेस्ट की लागत 7,500 रुपए तक आएगी और अगर सही सहयोग मिल जाए तो सरकारी अस्पतालों में इस टेस्ट को मुफ़्त किया जा सकता है।
ऑनवार्ड हेल्थः घातक ट्यूमर्स (गांठ) का पता लगाने के लिए मशीन लर्निंग टूल
नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, भारत में सिर्फ़ 500 ही ऐसे पैथोलॉजिस्ट्स हैं, जो कैंसर डायग्नोसिस के विशेषज्ञ हैं। एक तरफ़ बहुत से स्क्रीनिंग प्रोग्राम्स चलाए जा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ देश में स्कैन्स और टेस्ट्स की जांच करने के लिए विशेषज्ञों की कमी है।
ऑनवर्ड हेल्थ ने एक कम्प्यूटर आधारित टूल विकसित किया है, जो एक दिन में अधिक से अधिक मामलों की जांच करने में डॉक्टरों की मदद करता है। इतना ही नहीं, इस टूल की मदद से और भी अधिक सटीक ढंग से सैंपल्स की जांच की जा सकती है।
ऑनवर्ड हेल्थ एक हिस्टोपैथॉलजी टूल विकसित करने की दिशा में भी प्रयास कर रहा है, जिसकी मदद से आमतौर पर लैब्स में उपलब्ध संसाधनों की मदद से पहले की अपेक्षा दोगुने सैंपल्स की जांच हो सके।
इसके अतिरिक्त, ऑनवर्ड की रेडियोलॉजी मशीन-लर्निंग तकनीक मैमोग्राम्स की जांच करती है और शरीर में किसी भी तरह की गांठ इत्यादि का पता लगाती है। इतना ही नहीं, यह तकनीक, शुरुआती स्तर पर ही सटीक ढंग से पता लगा सकती है कि ये गांठ कितनी ख़तरनाक है।
निरामई
40 से अधिक उम्र वाली महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसर का पता लगाने के लिए मैमोग्राम्स प्रभावी होते हैं, लेकिन वक़्त के साथ कम उम्र की महिलाओं में भी तेज़ी के साथ ब्रेस्ट कैंसर का पता लग रहा है, इसलिए उम्र के कारक से बिना प्रभावित हुए कैंसर का पता लगा सकने वाले एक नई और प्रभावी तकनीक की ज़रूरत है।
स्टार्टअप की फ़ाउंडर निधि बताती हैं कि अगर शुरुआती स्तर पर ब्रेस्ट कैंसर का पता लग जाए तो इसका सर्वाइवल रेट 99 प्रतिशत हो जाता है। इसके बावजूद भारत में ब्रेस्ट कैंसर के चलते 50 प्रतिशत महिलाएं अपनी जान गंवा बैठती है और इसकी मुख्य वजह है, समय पर कैंसर का पता न लग पाना। इसकी एक और महत्वपूर्ण वजह यह भी है कि कई महिलाएं अपने ब्रेस्ट या स्तन की जांच कराने में झिझकती हैं।
निरामई ने आर्टिफ़िशियल तकनीक पर आधारित थर्मालाइटिक्स सॉल्यूशन विकसित किया है, जो हाई-रेज़ॉलूशन वाली थर्मल सेंसिंग डिवाइस की मदद से एक कैमरे की तरह स्तन और उसके आस-पास के हिस्से की स्कैनिंग करता है। यह तकनीक महिलाओं की प्राइवेसी का पूरा ख़्याल रखती है और जांच करने वाला दूर से स्कैनिंग कर सकता है। इसके साथ-साथ इस तकनीक के इस्तेमाल के दौरान शरीर को किसी भी तरह से स्पर्श तक नहीं किया जाता। जांच के बाद प्राप्त होने वाले थर्मल स्कैन की जांच करके कैंसर के शुरुआती लक्षणों का पता लगाया जा सकता है।
इसका सबसे बड़ा फ़ायदा यह है कि आमतौर पर होने वाली क्लीनिकल जांच की अपेक्षा, इस तकनीक की मदद से 5 गुना छोटे ट्यूमर का पता लगाया जा सकता है। इस तकनीक के इस्तेमाल के बहुत बड़े सेटअप की ज़रूरत नहीं होती और इसलिए ही यह एक किफ़ायती उपाय साबित हो सकता है, जिसे सुदूर इलाकों तक भी पहुंचाया जा सकता है।
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