मेन्स्ट्रुअल हाइजीन पर जागरूकता फैलाने के मिशन पर निकला ये किशोर, एक बड़े टैबू को तोड़ने की है कोशिश
आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा के रहने वाले 18 वर्षीय सोहन पप्पू एक ऐसे जिम्मेदार युवा हैं, जो मासिक धर्म को लेकर लोगों के बीच लगातार जागरूकता फैलाने की कोशिश कर रहे हैं।
भारत में मासिक धर्म को एक टैबू की तरह देखा जाता है, जिसे लेकर एक ओर जहां जागरूकता का अभाव है, वहीं दूसरी ओर देश के तमाम हिस्सों में पिछड़ी सोच के चलते इसके साथ महिलाओं के अधिकारों को भी दबाने की कोशिश की जाती है। देश के तमाम कोनों में ऐसा देखा गया है जहां लड़कियों ने मासिक धर्म के चलते स्कूल की पढ़ाई तक छोड़ दी है और फिर वे गरीबी के दलदल में फंस कर रह गई हैं।
हालांकि अब देश में युवाओं के बीच मासिक धर्म को लेकर अधिक चर्चा हो रही है, जिससे इस ‘टैबू’ को लेकर लोग जागरूक हो रहे हैं।
आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा के रहने वाले 18 वर्षीय सोहन पप्पू भी एक ऐसे ही जिम्मेदार युवा हैं, जो मासिक धर्म को लेकर लोगों के बीच लगातार जागरूकता फैलाने की कोशिश कर रहे हैं। मणिपाल एकेडमी ऑफ हायर एजुकेशन से बीबीए की पढ़ाई कर रहे सोहन लगातार लड़कियों और महिलाओं की मदद के लिए अपने कदम आगे बढ़ा रहे हैं।
काफी पहले शुरू की लोगों की मदद
सोहन ने लोगों की मदद करना काफी पहले शुरू कर दिया था। वो तब कक्षा 9वीं के छात्र थे और उस दौरान वे अपने क्षेत्र में हो रहे निर्माण कार्यों में लगे मजदूरों के बीच पानी के पैकेट और बटर मिल्क आदि बांटा करते थे।
2017 में स्थापित ‘Our Youth Social Community’ एनजीओ के वाइस चेयरमैन सोहन ने अपने स्कूल के दौरान मासिक धर्म को लेकर लगरुकता अभियान चलाने शुरू कर दिये थे। सोहन के अनुसार मासिक धर्म अभी भी भारत में एक टैबू विषय है और वो इस टैबू को तोड़ते हुए लोगों के बीच मेंस्ट्रुअल हाइजीन को लेकर जागरूकता फैलाना चाहते थे।
‘बायोडिग्रेडेबल’ सैनिटरी पैड्स
शुरुआत में एनजीओ के सदस्यों ने लोकप्रिय ब्रांडों द्वारा बनाए गए सैनिटरी पैड को समाज के गरीब वर्गों में लड़कियों और महिलाओं के बीच बांटने शुरू किए थे, लेकिन सोहन ने जल्द ही यह महसूस किया कि स्टोर से खरीदे गए ये पैड्स स्वच्छता से ज्यादा नुकसान पहुंचा रहे हैं, क्योंकि इन्हें बनाने में प्लास्टिक, रसायन और वुड पल्प जैसी सामग्री इस्तेमाल की जा रही है।
यह स्थिति देखने के बाद सोहन ने जल्द ही इसका समाधान निकालने के बारे में सोचना शुरू कर दिया था। समाधान के रूप में सोहन और उनकी टीम ने स्टोर से ये पैड खरीदने बंद कर दिये और इन्हें खुद बनाने का फैसला किया। सोहन के अनुसर स्टोर पर मिलने वाले सैनिटरी पैड पर भले ही ‘बायोडिग्रेडेबल’ लिखा हो, लेकिन वो ऐसे नहीं होते हैं।
सोहन और उनकी टीम ने बायोडिग्रेडेबल पैड बनाने के लिए उपयोग की जाने वाली सर्वोत्तम प्रकार की सामग्रियों पर शोध किया और इसके बाद उन्होने पैड्स के निर्माण के लिए मुख्य रूप से जो तीन वस्तुएं चुनीं वो बांस फाइबर, केला फाइबर की लुगदी और कॉर्नस्टार्च प्लास्टिक थे।
निर्माण में कठिनाई
हालांकि इस तरह की सामग्री के साथ पैड बनाना कोई सस्ती प्रक्रिया नहीं है। बांस के रेशे और केले के पल्प जैसी सामग्री आसानी से उपलब्ध नहीं होती है, इसलिए सोहम इसे उत्तर भारत से मंगवाते हैं। प्रत्येक पैड की उत्पादन लागत लगभग 16 से 18 रुपये के बीच है, जबकि इसकी मैनुफेक्चुरिंग प्रक्रिया में लगभग 10 लोग कार्यरत हैं।
आज अपने एनजीओ के साथ काम करते हुए सोहन इन सैनिटरी पैड के निर्माण और जरूरतमंद लड़कियों और महिलाओं तक उनके वितरण का भी काम कर रहे हैं।