उत्तराखंड सरकार ने दिया महिलाओं को नौकरियों में 30 फीसदी आरक्षण
महिला आरक्षण बिल विधानसभा में पास होने के बाद अब गवर्नर के पास. हस्ताक्षर होते ही बन जाएगा कानून.
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की सरकार ने पिछले महीने की 30 तारीख को विधानसभा के शीतकालीन सत्र के पहले दिन ही सदन में महिलाओं के लिए सरकारी नौकरियों में 30 फीसदी आरक्षण सुरक्षित करने वाला बिल पेश किया और उसी दिन यह सदन में पास भी हो गया.
अब यह बिल राज्य के गर्वनर के पास हस्ताक्षर के लिए भेजा गया है. बिल पर उनके हस्ताक्षर होने के साथ ही अब यह कानून बन जाएगा. अब प्रदेश की सभी सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए 30 फीसदी सीटें सुरक्षित होंगी. सरकार के इस फैसले से महिलाएं खुश हैं और पुरुष इसे वोट बैंक की राजनीति बता रहे हैं.
कुमाऊं के लोहाघाट में एक सरकारी स्कूल में टीचर शंकर बिष्ट (नाम परिवर्तित) बातचीत के दौरान इस फैसले से खासे असंतुष्ट नजर आए. जब तक मामला हाईकोर्ट के आदेश से अटका हुआ था, वह खुश थे, जबकि उनके स्कूल में फिलहाल 12 शिक्षकों में सिर्फ एक महिला शिक्षक हैं और बाकी 11 पुरुष. उनका कहना है कि यह सब वोट बैंक की राजनीति है. यह पुष्कर सिंह धामी का मास्टरस्ट्रोक है ताकि वह महिला वोट बैंक हासिल कर सकें.
हालांकि उनसे यह पूछने पर कि उसी वोट की ताकत के दम पर जब पुरुष सरकार से अपनी मांगें मनवाते हैं और उसी वोट बैंक को लुभाने के लिए जब सरकार उनके हितों से जुड़े कानून बनाती है तो क्या वह सही है, बिष्ट साहब बगलें झांकने लगते हैं.
रामपुर में एक सरकारी विभाग में कार्यरत अपर्णा इस फैसले से खासी उत्साहित हैं. वो कहती हैं कि जब महिलाएं आबादी का 50 फीसदी हैं और आरक्षण भी 50 फीसदी होना चाहिए. वो नौकरियों से लेकर संसद तक में आरक्षण का पुरजोर समर्थन करते हुए कहती हैं, “यह एक शुरुआत है और सकारात्मक शुरुआत है. हमें इसका उत्सव मनाना चाहिए.”
महिला आरक्षण बिल क्यों ?
इस बिल के उद्देश्यों और इसे लागू करने के कारणों के बारे में सरकार का कहना है कि उत्तराखंड की जटिल भौगोलिक संरचना के कारण यहां दूर-दराज के इलाकों में रहने वाले लोगों का जीवन बहुत कठिन है और खासतौर पर महिलाओं का.
पुरुष तो नौकरी करने के लिए मैदानी इलाकों में चले जाते हैं, लेकिन महिलाएं नहीं जा सकतीं. इस कारण से उनकी आर्थिक स्थितियां और जीवन स्तर भी अन्य राज्यों की महिलाओं के मुकाबले काफी नीचे है. इसके अलावा राज्य की सरकारी नौकरियों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम है. इन तथ्यों पर गौर करते हुए महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने के लिए आरक्षण जरूरी है.
महिला आरक्षण बिल की मुश्किल डगर और सुप्रीम कोर्ट का फैसला
जुलाई, 2016 में उत्तराखंड की सरकार ने राज्य की महिलाओं के लिए सरकारी नौकरियों में 30 फीसदी क्षैतिज आरक्षण देने का सरकारी आदेश दिया. इस फैसले को नैनीताल हाईकोर्ट में चुनौती मिलने से पहले यह आरक्षण राज्य में लागू था.
हुआ यह कि पवित्रा चौहान और अनन्या अत्री नाम की दो महिलाओं ने उत्तराखंड सरकार के इस नियम को हाईकोर्ट में चुनौती दी. यह दोनों महिलाएं उत्तराखंड की निवासी नहीं थी और यह राज्य की सिविल परीक्षा में शामिल हुई थीं. उस परीक्षा में रिजर्वेशन के चलते स्थानीय महिलाओं को कट-ऑफ अंक आने पर भी बाहरी राज्य की महिलाओं के मुकाबले वरीयता दी गई. अंक ज्यादा होने के बावजूद उन्हें मुख्य परीक्षा में बैठने का अवसर नहीं मिला क्योंकि राज्य की निवासी महिलाओं के लिए कानून लागू था.
इस भेदभाव को लेकर वो महिलाएं कोर्ट पहुंच गईं. नैनीताल हाईकोर्ट ने उत्तराखंड सरकार के आदेश पर यह कहते हुए रोक लगा दी कि अधिवास के आधार पर परीक्षा में भेदभाव नहीं होना चाहिए.
उत्तराखंड सरकार ने इस फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया. कोर्ट में सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे वकील का तर्क था कि उत्तराखंड की विशेष भौगोलिक स्थितियों और वहां की महिलाओं के अन्य राज्यों के मुकाबले पिछड़े प्रतिनिधित्व को देखते हुए राज्य की महिलाओं को प्राथमिकता दिया जाना जरूरी है.
वकील ने तर्क दिया कि राज्य में नौकरी के अवसर न मिलने के कारण लोग आजीविका की तलाश में पलायन के लिए मजबूर हुए हैं. महिलाएं पीछे अकेली छूट गई हैं और राज्य में उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति कमजोर हुई है.
दोनों पक्षों की दलीलों को सुनने के बाद इस साल नवंबर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एस. अब्दुल नज़ीर और वी. रामासुब्रमण्यन की पीठ ने हाईकोर्ट के स्टे को हटा लिया और उत्तराखंड सरकार के आदेश को फिर से बहाल कर दिया.
इसके बाद सरकार ने इस आदेश को कानूनी जामा पहनाने के लिए विधानसभा में एक बिल पेश किया, जो पिछले महीने की 30 तारीख को पास भी हो गया.