दृष्टिबाधित पंकज, विनोद और स्वप्ना ने अंधेरे से पढ़ा कामयाब जिंदगी का पाठ
आंखों में रोशनी नहीं तो क्या हुआ, हिम्मत और हुनर तो है। दिल्ली हाईकोर्ट में वकील पंकज सिन्हा, बीस साल तक खिलौनो की फैक्ट्री में नौकरी बाद अब मसाज थेरेपिस्ट विनोद शर्मा और ब्लाइंड रिलीफ एसोसिएशन से जुड़ी स्वप्ना मार्लिन ने अपने-अपने अंधेरों से अपनी कामयाब जिंदगियों के यही सबक सीखे हैं।
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन के मुताबिक, विश्व के कुल दृष्टिबाधित लोगों में से बीस प्रतिशत यानी छह करोड़, तीन लाख तो हमारे देश में रहते हैं। इन करोड़ों दृष्टिहीनों में से 80 लाख को तो बिल्कुल नहीं दिखाई देता है। उनमें से तमाम लोग ऐसे हैं, जो गरीबी और दवा-इलाज के अभाव में अपनी आंखों की रोशनी खो चुके हैं लेकिन उनमें ही दिल्ली के विनोद शर्मा, स्वप्ना मार्लिन, पंकज सिन्हा जैसे लोग भी हैं, जो अपनी मेहनत और हुनर से मिसाल बन चुके हैं।
विनोद कुमार शर्मा छड़ी के सहारे रोजाना चार घंटे फुटपाथों पर गुजारते हैं, पंकज सिन्हा दिल्ली हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करते हैं और स्वप्ना मार्लिन ब्लाइंड रिलीफ एसोशिएशन से जुड़ी हैं।
मूलतः रामगढ़ (झारखंड) के रहने वाले 38 वर्षीय पंकज सिन्हा कहते हैं कि ज़िन्दगी में सब बात नज़रिए की होती है। अगर हम अपने अंदर की कमी को ही देखते रहें तो जिंदगी हाशिये पर पड़ी रह जाए। अपनी आंखों से पर्दा हटाकर लोगों को हमदर्दी की जगह दृष्टिहीनों के हौसले को देखना चाहिए। उन्होंने अपनी हिम्मत और हौसले के कारण ही दृष्टिहीन होने के बावजूद वकालत की दुनिया में नाम कमा रहे हैं। उनकी शुरुआती ज़िंदगी काफ़ी कठिन रही है।
दृष्टिहीन होने की वजह से पंकज को कदम-कदम पर चुनौतियों का सामना करना पड़ा है लेकिन जब उन्होंने संकल्प लिया कि समाज के कमज़ोर लोगों की आवाज़ बनना है, फिर आगे की राहें खुद उनके कदमों में आती चली गईं। उन्होंने वर्ष 2011 में पहली बार बधिरों के ड्राइविंग लाइसेंस के लिए केस लड़ा और जीत गए।
कुल सात भाई-बहनों में एक एवं जन्म से ही दृष्टिबाधित पंकज सिन्हा, के पिता अजीत सिन्हा रेलवे में कॉन्ट्रैक्टर थे और मां उषा सरकारी स्कूल में टीचर। चार साल पहले पिता चल बसे। माता-पिता ने उनका रांची के सरकारी अस्पताल और दिल्ली के एम्स में भी इलाज कराया लेकिन आंखों की रोशनी नहीं लौटी।
उनके दादा मिट्टी के अक्षर बनवाकर उन्हे स्पर्श से पढ़ाते थे। जब वह वर्ष 1996 में 8वीं क्लास में पढ़ रहे थे, पिक्चर में वकीलों के बारे में सुनते थे। देख तो पाते नहीं थे लेकिन उनकी बहसें सुनकर प्रेरणा मिलती थी।
वही सब सुनना, जानना उनके अदालत के पेशे में आने की पहली वजह बना। जब वह 12वीं क्लास में पहुंचे, घर वालों के सामने उन्होंने वकालत की पढ़ाई का प्रस्ताव रखा। पिता उन्हे प्रोफेसर बनाना चाहते थे, सो दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में दाख़िला करा दिया। उनका मन तो काली कोट, सफेद टाई पर अटका हुआ था।
किसी तरह पिता को सहमत कर उन्होंने दिल्ली के कैंम्पस लॉ सेंटर से पढ़ाई की और एक दृष्टिबाधित वकील के साथ काम करने लगे।
मूलतः बिहार के रहने वाले (दिल्ली के) 44 वर्षीय विनोद शर्मा तीन बच्चों के पिता हैं। उन्हें मजबूरन सड़कों के किनारे चलना पड़ता है। ट्रेनों में सफर के समय वह अन्य यात्रियों पर निर्भर होते हैं। बचपन में खेतों में काम करने के दौरान उनकी आंखों की रोशनी चली गई थी। दिल्ली में उपचार कराने पहुंचे तो डॉक्टरों ने जवाब दे दिया।
उसके बाद से वह दिल्ली में ही रहने लगे। एक दृष्टिबाधित विद्यालय में प्रशिक्षण लेकर बच्चों के खिलौने बनाने की फैक्ट्री में बीस साल तक काम किया। पिछले साल फैक्ट्री बंद हो गई तो ब्लाइंड रिलीफ एसोसिएशन में ट्रेनिंग लेकर इस साल जनवरी से मसाज थेरेपिस्ट का काम कर रहे हैं।
ब्लाइंड रिलीफ एसोसिएशन से जुड़ी स्वप्ना मार्लिन बताती हैं कि प्रशिक्षण लेने के बाद दृष्टिबाधित लोग बाहर निकलकर ही जान पाते हैं कि वे कई सारे काम कर सकते हैं।