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Blooming, buzzing, and chirping with poetry

Notes from poetry workshop in a  school situated in rural Madhya Pradesh... and springtime.

Sunday April 03, 2016,

26 min Read

Springtime by the Chambal

Situated on the banks of the river Chambal, Bhanpura is a small town nestled on the border of Madhya Pradesh (MP) and Rajasthan. The town, also known for the age old Dharmrajeshwar caves and the Ganga Sagar reservoir, is at a driving distance of 40 minutes from Bhawani Mandi railway station. If you alight from the train and walk across the railway station to and fro, you are likely to receive three messages from your network operator; one welcoming you to MP, then to Rajasthan, and then to MP again.

I happened to explore this place on the pretext of visiting a school in this region in the year 2012 on its 20th anniversary. In a region neglected by the development wave, Smt Kamla Saklecha Gyan Mandir, has been spearheading change through good quality infrastructure, learning, and opportunity.

The visit, four years ago, has established a fond relationship with the region and the school which I reaffirm every year by visiting the school during Chaiti, their annual cultural spring festival. During this week of blurring activity, acclaimed artists from across the country gather at the school premises and interact with the students here, and also display their artistic skills. I have been conducting Creative Writing Workshops here for two years in a row now. What follows below are notes and documentation of my visit and workshop here.

Day 1 – Experiencing Experience

Happy to find some familiar faces in my class, even after a year–long break – some of them have gained the necessary confidence to share with everyone, the poems they have written over the past year – in the next few hours, I realize that their skills have improved too – Vidya (my wife), sitting in the last bench, gives a thumbs up.

I introduce the idea of poetry, content, form, imagery, rhetoric – read out poems by Nagarjun, Sarveshwar Dayal Saxena, Raghuvir Sahay, Kedarnath Singh, Vinod Kumar Shukla, and other favourite poets to convey these ideas – as expected, baba Nagarjun and Sarveshwar are an instant hit among students.

Once their interest in poetry is awakened, I read a poem of mine which I had written on account of my brief meeting with British–Indian poet Daljit Nagra – the poem, titled टाइप थ्री एट बी बोकारो रेलवे कॉलोनी is written in nostalgia for Bokaro, the place I was born and brought up in – I take the opportunity to introduce to them, the idea of Anubhuti, as explained by P V Kane’s in his book on Sanskrit Poetics.

An activity follows – again, borrowed from Daljit Nagra's workshop, only this time tailored for children of the age group 11–15 – I ask my little friends to draw top–view diagrams of their homes, and label rooms, objects, and people in terms of senses they evoke. Over the next few hours, they discuss with each other (and me), speaking about their families and homes – I am just a conductor of this orchestra of young and innocent minds – they start jotting down their thoughts – inhibitions and reluctance are overcome – some of the poems they come up with during the next few hours are featured below –

यादों से भरा घर

– दीपाली भटनागर, 15 साल

वह एक पुराना घर

न जाने किस ज़माने का

छोटे छोटे दरवाज़े

और बड़ी बड़ी खिड़कियाँ.

जो झुक के न चले

तो दरवाज़े से सिर टकरा जाता था

घुमावदार सीढ़ियों पर तेज़ी से उतरने में

अलग ही मज़ा आता था.

घर की मंदिर से आती थी

घंटी की आवाज़

मानों भंवरा गुनगुना रहा हो कानों में.

लय में आरती गाती दादी

किसी से कम नहीं थी वो लय

लगता था मशहूर गायक

पधारा हो घर में.

दादा जी की थाली से

रोटी का टुकड़ा तोड़ लेना

बरामदे में रखे संदूक के पीछे जा छिपना…

कोरी रोटी भी

कितनी स्वादिष्ट लगती थी

दूसरा कौर खिलाने में

माँ की मेहनत लगती थी.

कैरी का अचार

और माँ की पायल की आवाज़

एक ही जैसी

होती थी.

क्योंकि पता नहीं क्यों

मैं उन्हें बिना देखे ही

पहचान लेती थी.

भंडारघर में रखे डिब्बे

जिनके पीछे बिल्ली छिपा करती थी

उसे भगाने के लिए

हमारी टोलियाँ पीछा करती थीं.

भाइयों के साथ जब

आँख मिचोली खेलती थी

कभी गिरती, कभी रोती

कभी चोरी से उन्हें पकड़ लेती थी.

और कभी उन्हीं भाइयों से

झगड़ा भी कर बैठती थी.

मेरा घर

– कृष्ण कला, 13 साल

उस छोटे से शहर के किनारे स्थित है मेरा घर

जहाँ आते–जाते वाहनों की गूँज से

ऐसा लगता है कि

सूखे पेड़ों में नई उमंग आ गई हो

उस सुन्दर से बगीचे में

जब मैं अपने मित्रों के साथ खेलता हूँ

तो ऐसा लगता है कि

स्वर्ग के हरे बादलों में खेल रहा हूँ

उस छत पर जब खिलती हुई बारिश की बूँदें

झलक रही होती हैं तो

ऐसा लगता है कि

मैं सुगन्धित अमृत की बौछार में भीग रहा हूँ

जब उस झिलमिलाते हॉल में

पूरा परिवार हँसी मज़ाक करता है

तो मुझे लगता है कि

पूरा परिवार खट्टी मीठी शरारतों में मेरे साथ है

जब पढ़ाई के कमरे में जाता हूँ

तो ऐसा लगता है कि

हँसती हुई किताबें मेरे उज्जवल भविष्य की

कल्पना कर रही हों.

बचपन की यादें

– रानू मंडिल्य, 12 साल

जब जाती हूँ रसोई में

आती है याद बचपन की

कभी छिपकर माँ के पीछे

करते थे धमाचौकड़ी

जब जाती हूँ स्टोर रूम में

आती है याद पुरानी चीज़ों की

एक खिलौना था जो टूट गया

वो गाता था, मैं हंसती थी

जब जाती हूँ स्टडी रूम में मैं

घुस जाती हूँ कहानियों की किताबों में

जैसे जीने की वजह

कुछ और नहीं बस यही है

बगीचे में जाती हूँ

तो ऐसा लगता है कि

खेल कूद के अलावा

दुनिया में कुछ नहीं

जब मैं सोती हूँ

तो मीठे मीठे सपने

नाना नानी की

याद दिलाते हैं

खिड़की के बाहर

नीले आसमान जब देखती हूँ

मन करता है कि

ऊंचे बादलों को छू लूं

My Pretty House

– Ashpreet Wadhwa, 11 years

In my house I like everything a lot

Table, chairs, and a beautiful flower pot

In my garden I see shiny sun and trees

But I am afraid of mosquitoes, flies, and bees

I love to see the sweet nest of a bird

Atop my house made of tasty mud

I won’t forget all these things

And play with my friends, the game of queen and kings

क्रिकेट मैच

– आफरीन शेख, 14 साल

मैच था घर में

क्रिकेट था घर में

उद्धम मचा रखी थी सबने

इधर से चौका

उधर से छक्का

धूम मचा रखी थी सबने

कोई कहता ऐसे मारो

कोई कहता वैसे मारो

कभी बॉल किचन में जाती

कभी बॉल कमरे में जाती

बॉल के पीछे भागते हुए

हम दादा जी के कमरे में जाते

कमरे में धमाचौकड़ी तोड़–फोड़

डांट पड़ती,

और पूछा जाता –

‘कितने रन बनाए बेटा?’

सब जोर से हँसते

और वापस खेलने लग जाते

जाकर देखा किचन में तो

बॉल ने मचा दिया था उद्धम

तोड़ दिया था जार अचार का

और बैठी थी चुपचाप, बिना डरे, बिना घबराए

बॉल फिर उछली !

और लौट गई अपने बैट के पास

एक बार फिर मैच हुआ चालू

और फ़ैल गई घर भर में अचार की खुशबू.

चिड़िया

– आयुषी मान्डिल्य, 16 साल

चिड़िया उड़ती है घर भर में

न है उसका कोई ठिकाना

वह बालकनी की हवा समेट कर

देखती है संसार को

कभी जाती है हॉल में

वहां बैठे रहते हैं घर के सभी लोग

चिड़िया को पसंद हैं घर के लोग

जो चहकते हैं शाम को चिड़िया की तरह

कभी जाती है वह रसोई घर

वहां जाकर वह चुनती है तिनका

और उंनसे करती है चिड़िया तिनके

अपने घोंसले की तैयारी

कभी जाती है दादाजी के कमरे में

नहीं पसंद उन्हें कोई भी आवाज़

उड़ा देते हैं चिड़िया को वे

ज़ोर से हाथ झटककर

कभी जाती है वह भण्डार घर

वहां रखे जाते हैं बेकार के सामान

मगर चिड़िया को यह कमरा है सबसे अधिक पसंद

यह है उसके छुपने का स्थान

चिड़िया जाती है अतिथि कक्ष

कमरा अलग थलग सा है पूरे घर में

सुनसान, यहाँ नहीं आता कोई भी मेहमान

यहाँ चिड़िया अपना घोंसला बनाती है.

मेरा घर

– नानक वाधवा, 13 साल

मेरे घर के बारे में क्या कहूँ?

न गैलरी

न हॉल

न छत

मेरे घर में है एक छोटी सी रसोई

और दो छोटे कमरे

Evenings here are spent in celebration – the stage is set – Shruti Bandopadhyay, an accomplished Manipuri dancer and professor at Vishwa Bharati, Shantiniketan, walks in and addresses the students – a graceful and colorful rendition of Jaydev’s Geet Govind set to the tunes of Rabindra Sangeet follows – Radha and Krishna’s love fills the air as the accomplished Manipuri group take us for a memorable journey.

Day 2 – Metaphorically Speaking

The day starts on a high note as students come up with more of more of their poems – they also bring their favourite poems which some of them have collected from newspapers and books – I read poems by different English poets – Wiliam Carlos Williams, Langston Hughes, Sylvia Plath, Charles Simic, Emily Dickinson, Jay Electronica are instant hit among students.

Long discussion on purpose of poetry follows – a sense of pride is felt among students when I explain how poetry helps us lead a better life and become better human beings – when asked whether a poem should be titled before or after it is written, students engage in debate – with inputs from me, they agree that poems should be named later and not before being written – I quietly introduce to them, the idea of poetry as a tool for experimenting with language, and touch upon ideas of complexity, philosophy, influences, originality, line breaks, consistency, rhythm, metaphors and simile.

The need to delve deeper into metaphors is felt – I explain the usage of metaphors through Malik Muhammad Zayasi’s Padmavat, Jayshankar Prasad’s Aansoo, and Sarveshwar DayaI Saxena’s Bhediye – the students are amazed – I ask them to write a poem which is purely a metaphor – some of the poems they come up with through the rest of the day are featured below –

ट्रेन

– आयुषी मान्डिल्य, 16 साल

ट्रेन बस चलती जाती है

रुकावटें बहुत आती हैं

मुसाफिरी जैसी यादें हैं

सबकी अलग मंज़िलें हैं.

सामान मानो बोझ है

दूसरे मुसाफिर मित्र हैं

हॉर्न है किस्मत का ताला

इंजन जैसे बचपन सारा

कोई आता है, फिर चला जाता है

घाव गहरे छोड़ जाता है

टकरा जाए अगर किसी से तो

ज़िन्दगी का सिलसिला टूट जाता है.

शब्दकोष

– दीपाली भटनागर, 15 साल

यह लोगों का मेला है

लोग अलग हैं जिसमें.

भावनाएँ अलग हैं सबकी,

फिर भी साथ में बांधे जाते हैं.

कुछ अलग से भारी हैं,

कुछ हलके से लगते हैं.

विचार अलग हैं सबके,

फिर भी साथ में बांधे जाते हैं.

कभी एक दूजे से लड़ते हैं,

कभी साथ–साथ रहते हैं.

ख्वाहिशें अलग हैं सबकी,

फिर भी साथ में बांधे जाते हैं.

नए रिश्ते बन जाते हैं,

जब ये क्रम में जोड़े जाते हैं.

अर्थ अलग हैं इनके,

फिर भी साथ में बांधे जाते हैं.

बंद कमरा

– आफरीन शेख, 14 साल

यह एक बंद कमरा है

जिसे खोलो तो अँधेरा है

बत्ती जलाओगे तो सब दिखेगा

ध्यान से तलाशोगे तो सब कुछ मिलेगा

जो इसके अन्दर डालोगे

समा जाएगा

जो इसे समझाना चाहोगे

यह समझ जाएगा

जो कुछ मिला है

आगे पहुँचाएगा

आपको खुद ही

समझदार बनाएगा

बंद कमरा है,

बत्ती जलाकर देखो

अपने आपको

निखार कर देखो

समझदार बन जाओगे

बुद्धिमान बन जाओगे

थोड़ी मेहनत कर लो तो

कमरा खुल जाएगा!

थोड़ा इंतज़ार करें

– अंशुल कोतवाल, 13 साल

थोड़ा इंतज़ार करें –

मैं बनूँगा प्राणियों का जीवन

दूंगा में सबको फल–फूल

पक्षी बनाएँगे मुझ पर घोंसला

दूंगा मैं जड़ी बूटियाँ

मैं बनूँगा परोपकार की छाया

बीज सौंपूंगा धरती को

आपसे है मेरी यही विनती

थोड़ा इंतज़ार करें –

मत काटो आप मुझे

जूता

– कृष्ण कला, 13 साल

जब उस ज़िन्दगी से छुटकारा चाहिए

तो कोई मतलब नहीं है जीने का

मैं हर वक़्त बस लोगों के लिए देता हूँ कुर्बानी

फिर भी लोग मुझे कूड़ेदान में फेंककर

कहते हैं बर्बादी

लोगों के लिए सहता हूँ सब कुछ

चाहे कीचड़ हो या हो कांटे

कमल खिलता है कीचड़ में

फिर भी वह है राष्ट्रीय फूल

फिर क्यों नहीं हूँ मैं ‘राष्ट्रीय वस्तु’?

हर पल रहता हूँ इंसान के साथ

फिर क्यों वे बना देते हैं मुझे अपना दास?

लोगों से है विनती मेरी

मत छोड़ो मेरा साथ

रहूँगा हर पल साथ तुम्हारे

बस बना दो मुझे थोडा ख़ास.

पेड़

– भूमि नाहर, 11 साल

हवा देने वाला पेड़

फल देने वाला पेड़

फूल देने वाला पेड़

जन्म देने वाला पेड़

हर तरफ हरियाली कर दे

हरा रंग दुनिया में भर दे

खुद का न सोच हमारी सोचे

जो मांगूं वो मिलता मुझको

सबकुछ सहने वाला पेड़

खड़ा रहने वाला पेड़

कठोर पेड़ निराला पेड़

छाया देने वाला पेड़.

The day is made more special by Reena Bareth, the teacher in–charge for the workshop, who gets inspired by her students and writes her first poem –

जब सबने छोड़ा तब तूने संभाला

– रीना बरेठ

न था जब ओर, न कोई छोर

न कोई किनारा, नहीं कोई ठौर

भटक रही थी ज़िन्दगी, रेत के समंदर में

सूने दिन थे, वीरान थी रातें

तब मन के कोने में, आत्मा की गहराई में,

इस वीरान से जीवन में, जहाँ की तन्हाई में

पाई एक रौशनी, एक जीवन की आस

न था कोई पास, तब जागी तेरी प्यास

जब सबने ठुकराया मुझे, तब तूने संभाला

इस अँधेरी ज़िन्दगी में, फिर छाया उजाला

उस दिन समझ आया, जीवन का सही अर्थ

कहाँ भटक रही थी ज़िन्दगी, अब तक यूं ही व्यर्थ.

The evening performance is by Kedarnath Bodas, the famous classical singer from Hubli – he is accompanied by two disciples – Kedar ji along with his companions explain the ragas they sing and how different forms of classical music differ – the next two hours is spent listening to different renditions of Khamaj, Maroo Bihag, Yaman and Kafi ragas – magic – as the session progresses, I am reminded of a favourite poem, Sangatkaar, by Manglesh Dabral.

Day 3 – That’s Absurd!

It starts bothering me how most students are held back by the confines of clichéd poetry – too much influence of Bollywood and mainstream ideas with little emphasis on experimentation – today I decide to attempt for a shot at the moon.

The session begins with a brief history of literature – I take my little friends on a journey through space, time, and ideas – how romanticism made way for enlightenment thinkers – how French revolution influenced (and continues to influence) our collective thought process – the ideas of Marx, Darwin, Freud, and Nietzsche, and how industrial economy led to the realism of Dickens and Tolstoy – how the two world wars propelled us into a state of despair, and modernism in literature was born.

Over the next hour, students go on adventures with Don Quixote, David Copperfield, Gregor Samsa, and with the characters created by Beckett, Camus and Sartre – the theory of the absurd is explained - students are then asked to write poems (or short stories) which are completely fictitious and have never been told before. They oblige –

क्या हो गई सुबह?

– अश्प्रीत वाधवा, 11 साल

नींद से उठी मैं

देखा सूरज सामने

खड़ी हुई बिस्तर से जब

देखा उल्लू बाग़ में

सोच रही थी सुबह हुई या रह गई रात?

बाईं ओर देखा तो चाँद भी दिख गया साथ

इधर भी देखा उधर भी देखा

कोई न दिखा अपना

तभी लगा शायद यह है

मेरा अजीब सपना

न थी मेरे पास कोई पहचानने की वजह

सतरंगी आसमान के ओर ताकती

बस बैठे–बैठे सोचती रही मैं –

क्या हो गई सुबह?

एक पागल कुत्ता

– दीपाली भटनागर, 15 साल

एक था पागल कुत्ता

जो काट चुका था

इंसान को

इंसान के गुण

कुत्ते में आए

कुत्ते के गुणों ने

प्रवेश किया था इंसान में

अब पकड़ने के लिए उसे

पीछे पड़े हैं लोग

पर वो है कि

पकड़ में ही नहीं आता

वो घूमता है दर दर भटकता हुआ

कोई मारता है डंडे से

तो कोई पागल जानकर

उससे बचता हुआ

कोई भी जानवर उससे

दोस्ती नहीं कर रहा

न जाने क्यों

यह सोच वह बिखर रहा

सोचा उसने बनाऊंगा

अलग से अपना ठिकाना

पर न किसी ने अपनाया उसे

न किसी ने दिया खाना

थक कर मान ली हार उसने

वो तो आखिर एक इंसान ही था

जो कर रहा था कोशिश

एक पागल कुत्ते के नज़रिए से

दुनिया को देखने की

नदी से छोटा सागर

– पियूष विक्रम, 13 साल

सागर नदी से छोटा है, मगर फिर भी नदियाँ आकर सागर में आ मिलती हैं. सागर सोचता है, वह नदियों को कैसे संभालेगा? इतना सा होकर वह कैसे बचाए रखेगा अपना नमक? बड़ी–बड़ी नदियाँ आकर उसके पानी को मीठा कर देंगी. सागर सोचता रहा और नदियों का पानी उसके अन्दर तीव्र गति से भरता जा रहा था.

उड़ती पतंग

– वैदिक गर्ग, 12 साल

जब मैं छोटा सा था

देखी मैंने ऐसी एक पतंग

जो कट चुकी थी

लेकिन फिर भी उड़ रही थी

उस पतंग को थी न मंजिल की फिकर

बस चली जा रही थी

बिना डर कर

दिखा उसे एक बड़ा सा आकाश

रात हो रही थी, सब सो रहे थे

लेकिन वह नहीं सोई

क्योंकि उसे उड़ान भरनी थी

वह पतंग कट गई थी

लेकिन गिरना नहीं चाहती थी

देखा उसने कई बच्चों को

जो पकड़ना चाहते थे उसे

लेकिन बच्चों के हाथ न आकर

पार कर लिया उसने हर तूफ़ान को

उसने मंदिर देखा मस्जिद देखा

और पा लिया अपने मुकाम को

बिना पत्ती का पेड़

– अश्प्रीत वाधवा, 11 साल

बिना पत्ती का पेड़ हूँ मैं

बिना रंग का चित्र हूँ मैं

न वर्षा ला पाऊंगा

ना ही हवा कर पाऊंगा

न ही लगता है मुझे कुछ अच्छा

न आएगा मौसम पतझड़ का

बिना सूरज का दिन हूँ मैं

बिना पत्ती का पेड़ हूँ मैं.

आसमान में प्यारे बच्चे

– अल्तमश खान, 11 साल

आसमान में प्यारे बच्चे

आसमान में न्यारे बच्चे

बच्चों ने यह सोचा

खेलें हम बादलों से ही

कैसे कैसे कैसे? अरे नहीं नहीं नहीं!

आसमान में नहीं खेल सकते क्रिकेट फुटबॉल

नहीं खेल सकते शतरंज कैरम

सब ने सोचा चलो मिलकर

चलो बादलों को तोड़ खेलें हम

एक ने तोड़ा

एक ने फेंका

बच्चे प्यारे बादलों से खेलें

बच्चे न्यारे बादलों से खेलें

आसमान में प्यारे बच्चे

आसमान में न्यारे बच्चे.

A Colourful Tree

- Vaidik Garg, 12 years

A beautiful tree

A colourful tree

A wonderful tree

Colours red blue and green

I think that I can catch all the colours of the tree

The branches are red

The leaves are pink

Flowers are brown

And roots are green

A wonderful tree

A colourful tree

बिना पूँछ का बन्दर

- भूमि नाहर, 11 साल

बिना पूँछ का बन्दर

घुस गया घर के अन्दर

चुरा रहा था केले

घर–घर में जाकर छुप–छुप के

कभी इधर तो कभी उधर

कभी यहाँ तो कभी वहाँ

कूद रहा था घर–घर में

कभी खुश तो कभी दुखी

खा रहा था केले बड़े मज़े से

पर छुप–छुप कर पेड़ के पीछे

डर था कोई आ न जाए

सोचा – जान जाए पर केले न जाए

इतने में आए वहाँ कई पक्षी

देख उन्हें भाग गया वह

सोच रहा था क्या करूँ

बन्दर हूँ, आसमान से कैसे न डरूं?

मुश्किल से खाता था ये केले

कभी चिढ़ाता कभी इतराता

कैसे लाता होगा इन्हें बिना पूँछ के

बाद में पता चला छीनकर लाता था किसी और के केले.

शावक

- भूमि नाहर, 11 साल

बिना दिमाग का बच्चा

पर है बिलकुल सच्चा

कर सकता है सब कुछ

पा सकता है सब कुछ

चार पैरों वाला, दो आँखों वाला

एक पूँछ वाला, जो सब

कुछ करता हो, उसे हम

क्या कहेंगे ?

जो पेड़ों से मित्रता करता हो

जो इधर उधर कूद सकता हो

जो अपनी खोज खुद करता हो

वह बिना दिमाग का बच्चा

जो माँ बाप से दूर

जीवन निर्वाह करता हो

जो बिना पढ़ाई के सबकुछ जान लेता हो

वह बिना दिमाग का बच्चा.

रोड

– कार्तिक गुप्ता, 13 साल

मैं हूँ एक रोड

फैला हूँ पूरे विश्व में

गुज़रते है लोग मुझपर

मैं हूँ एक रोड

सब चाहते हैं मुझे

कि मैं रहूँ हर जगह

बातें करता मैं गाड़ियों से

पूछता – कहाँ जा रहे हो?

पत्ती

– आफरीन शेख, 14 साल

कई दिनों से घूम रही हूँ

खुद से अनजान हूँ

खुद से बेखबर हूँ

न कोई ठिकाना है

न कोई परवाना है

घूमते घूमते जा पहुंची

एक घर जो देखा मैंने वहाँ

हुई आश्चर्यचकित

घर में एक बूढी माँ थी

क्या कर रही थी, उससे अनजान थी

अपने फौजी बेटे की याद में

उसे नींद नहीं रही थी

घूमते घूमते फिर जा पहुंची

एक मंदिर

वहां जो देखा लुभावना था

पूजा हो रही थी

अर्चना चल रही थी

दुआएं मांगे जा रहे थे

सब अपनी धुन में लीन थे

घूमते घूमते फिर एकदम आ गिरी

ज़मीन पर

अब कहाँ जाना था?

कब कहाँ घूमना था?

अब तो बस मिट्टी में मिल जाना था.

उड़ती साइकिल

- अल्तमश खान, 11 साल

अगर साइकिल उड़ पाती

इधर उधर घूम कर आती

आकाशों की सैर कराती

आसमान में दीखता सूरज

आसमान में पानी होता

भीग–भिगाती साइकिल पूरी

आओ आश्चर्य से ऊपर देखें

साइकिल जो पतंग जैसी लहराती

अगर साइकिल उड़ पाती.

Meanwhile, teachers and other members of the school start flocking to the workshop - Reena Bareth writes another poem – Shahnaz Pathan, the teacher in-charge of last year’s workshop writes a poem too – the pleasant surprise, however is a poem by Usha Mehta, cousin of the school’s founder-chairman – these poems are featured below –

सड़क

– रीना बरेठ

चली जा रही थी मैं सीधे–सीधे

बेखबर दीन–दुनिया, किसी भी मौसम से परे

पहुंचा रही थी सबको एक गंतव्य से दूसरे तक

बिना किसी शिकायत या बाधा के

कभी मुझपर भी हलचल हुआ करती थी

कभी मैं भी थी कोलाहल से भरपूर

आज जब वक़्त ने मेरा साथ छोड़ दिया है

तब साड़ी दुनिया ने भी मुझे भुला दिया है

जब कोई चारा न था सब मेरा उपयोग करते थे

आज नयों के आने से मैं भुला दी गई हूँ

जैसा नियम है इस जग का

दुनिया मतलब से पूछती है

आज मेरे भी दिन फिर गए हैं

मैंने जिन्हें अपनी मंजिलों तक पहुचाया था कभी

आज वे मुझे मुड़कर भी नहीं देखते

क्या कभी उनका वक़्त नहीं आएगा?

कागज़

- शहनाज़ पठान

जब तक पेड़ का अंश था बागबान था

आज विकास का हिस्सा हूँ मगर बेज़ुबान हूँ

राम–रहीम की कथा लिखी हो तो चूमते हैं मुझे

गाँधी की तस्वीर छपी तो पूजते हैं मुझे

कुछ गुस्साए दुखी लोग फेंक देते हैं मुझे

किन्तु नहीं जानते कि मैं तो बेज़ुबान हूँ!

मुझे अलफ़ाज़ तो कलम देती है

सिसकते होंठों और बहती आँखों की कहानी

तो कलम कहती है

फिर क्यों लोग मुझे कोसते हैं

एक कागज़ के टुकड़े ने ज़िन्दगी बदल दी

ऐसा सोचते हैं?

खिड़की के सलाखों के पार

- उषा मेहता

खिड़की के सलाखों के पार

आकाश टूट गया

दरारों भरा कलेवर दिखा,

एक ही चित्र में उलझ उलझ

आँसू बहा.

सारा इतिहास सुना गया.

The evening is as good as it gets – a Hindi play, Mohan Ka Masala, that focuses on the ingredients that transformed Mohandas Karamchand Gandhi into the Mahatma is shown – the two-hour-long play, directed by Prateek Gandhi, is a solo performance by Manoj Shah – the message of non-violence and standing up against exploitation and injustice is loud and clear – by the end of the play, everyone breaks in tears.

Day 4 – Two Failed Experiments

The day begins with a discussion on impressionism – I read a poem I had written on the play we had watched last evening – the poem, titled मोहनदास, although average, conveys the message – I read poems by Mangalesh Dabral, Chandrashekhar Kambar, and Nishant that borrow imagery from music, folktales, paintings and render them in forms of poetry – I also read a poem of mine तारों भरी रातों में रातों भरा वैन गो, that helps convey the idea.

Impressionism is a difficult form of poetry – we acknowledge that – but the attempt is to try, even if we fail – I ask my little friends to start thinking in terms of imagery next time they watch a good film, or listen to a good song. Students attempt impressionist poetry – to be frank, none of them succeed – but the idea of experiencing the world differently is conveyed – they come up with the following poems –

डोरेमोन

– भूमि नाहर, 11 साल

दिखता डोरेमोन कार्टून की तरह

पर है इसकी ऊंचाई बहुत छोटी

देता ये साथ नोबिता का

जियान और सुनियो से बचाता उसको

सोचती हूँ मैं ये

काश! उसकी तरह गैजेट हो मेरे पास

हर मुश्किल से लड़ लेता है वो

हर कठिनाई को पार कर देता है वो

सोचती हूँ मैं ये

काश! उसकी तरह मेरे पास हो बम्बू कॉप्टर

जाना चाहो जहाँ, जल्दी पहुँच जाओ वहाँ

मज़ा आता है हवा में उड़ने का

सोचती हूँ मैं ये

कितना बहादुर है ये

जो भी उससे पंगा ले

वह मिट्टी में मिल जाए.

तीन बेवक़ूफ़

– कृष्ण कला, 13 साल

किताबों से मिला ज्ञान

बनाता सिर्फ हमें एक एम्प्लोयी

संसार से मिला ज्ञान

बनाता हमें महान

यह समझाया हमें तीन बेवकूफों ने

जो बन गए दुनिया के तीन बड़े सुपरस्टार

ये थे दुनिया के तीन फ़रिश्ते

जिसने समझाया दुनिया को जीने का तरीका

चाहे कितनी भी परीक्षा हो या कितने भी इम्तेहान

बस हमेशा कहते – आल इज वेल

आल इज वेल.

पीके

– अश्प्रीत वाधवा, 11 साल

ये फिल्म है बड़ी निराली

ये नाटक है या कव्वाली

भगवान् ने बनाया सभी को एक

तो फिर धरती पर क्यों ये भेद भाव

एक–दूसरे के प्रति क्यों गिले–शिकवे के भाव

ढूँढा भगवान् को कैसे मिटाए ये अन्धकार.

क्यों हैं हम सबके धर्म अलग?

क्यों हैं हम सब अलग?

भगवान् ने बनाया हमें एक

बस लोगों ने किया हमें अनेक.

The workshop is meant to go on for two more days, but today is my last day – I plan to spend a day in Bhopal and meet friends and poets in the city – “last year, when you had left early, we were sent to the judo workshop, where the experienced students had a field day,” a girl says.

Vidya takes charge. Since she has been translating my poems for a while now, she takes a session on translation and ask the students to translate each other’s work to English – however, their knowledge of English leaves much to be desired.

Another experiment fails - but in each failure lies an opportunity – I provide the teacher in-charge with 50 poems by these students, which they need to translate over the next two days, with help from the English faculty – the students oblige.

Meanwhile, children read out the other poems they have written over the past few days, some of which are shared below –

My Brown World

– Bhumi Nahar, 11 years

My house is brown

Windows are brown

Doors are brown

Walls are brown too

Everything in my house is brown

Brown water

Brown fish

In fact, the trees are brown too

Brown is my favourite colour

In my house there are brown plants on which brown butterflies flutter

My school bag

My pen,

My dresses

My poems are brown too

I eat brown chapatis

With brown vegetables

And brown fruits

My dreams are brown too.

पत्थर सुन्दर नज़र आता नहीं

– पंखुरी गुप्ता, 12 साल

पत्थर सुन्दर नज़र आता नहीं

मगर काम तो आता है

आग चीज़ों को जलाती है

मगर काम तो आती है

कोयला काला होता है

मगर काम तो आता है

बदल बिजली गिराता है

मगर पानी भी तो देता है.

काश मैं उड़ पाता

– आकाश गौड़, 13 साल

काश मैं उड़ पाता

आसमान का नज़ारा देख पाता

ऊपर से जंगल देख पाता

काश मैं उड़ पाता

काश मैं उड़ पाता

परियों के महल में जा पाता

हवाई जहाज़ से रेस लगाता

काश में उड़ पाता!

फूल

– पंखुरी गुप्ता, 12 साल

पेड़ पर खिल रही थी

अपने जीवन को ढूंढ रही थी

सूरज की खोज में

पानी की तलाश में

खिल रही थी

कुछ ही दिनों का जीवन है मेरा

फिर क्या? मुरझा कर टूट जाना है

मंदिर में, घर में

ईश्वर की चरणों मैं

कहीं जाकर गिरना है

बारिश में भीगना है

सूरज में जलना है

अपना जीवन ढूंढना है

बादल का पानी

– आकाश गौड़, 13 साल

बादल का पानी, बादल का पानी

है भर देता कुँए और नहर

है उगती फसल, है धरती धानी

बादल का पानी, बादल का पानी

बादल का पानी, बादल का पानी

है बरसता बहुत सारा पानी

है बरसता पीने का पानी

बादल का पानी, बादल का पानी

बादल का पानी, बादल का पानी

सब पीते हैं तेरा पानी

सब जीते हैं तेरी बानी

बादल का पानी, बादल का पानी

अगर मैं तितली होती

– पंखुरी गुप्ता, 12 साल

अगर मैं तितली होती

खुले आसमान में मैं भी उड़ती

फूलों पर मैं भी मंडराती

अगर मैं तितली होती

सब मुझे पकड़ते

पर किसी के हाथ न आती

बहुत ऊंचा मैं उड़ जाती

अगर मैं तितली होती

पंख फैलाए उड़ जाती

सब से बेखबर, बेपरवाह होती

मेरी अपनी अलग दुनिया होती

अगर मैं तितली होती

उन्मुक्त पंछी

– कृष्ण कला, 13 साल

हूँ मैं उन्मुक्त गगन का राहगीर

करता हूँ अपनी मनमानी

न स्कूल जाने का दर्द

न ही टीचर की डांट का डर

बस, हरे वृक्ष पर घोंसला बनाते,

और मस्त मस्तमौला ज़िन्दगी गाते

बिना पैसे के घूमने जाते

बिना पैसों के खाना खाते

छोटे से वृक्ष पर ज़िन्दगी बिताते

पूरे परिवार के साथ दाना चुगते

मुझे है मेरी ज़िन्दगी पर गर्व

जैसे मोर को अपनी सुन्दरता पर है

शेर को अपनी बहादुरी पर

मैं यही चाहता हूँ कि मैं सात जन्मों तक

उन्मुक्त गगन का राहगीर बनकर घूमूँ

गलतियाँ क्यों ज़रूरी हैं

– भूमि नाहर, 11 साल

गलतियाँ ज़रूरी हैं

सुधार के लिए

गलतियाँ ज़रूरी हैं

डांट खाने के लिए

गलती ही तो है

जो इंसान की ज़िन्दगी बदल सकती है

गलती करने से इंसान उसे बार बार नहीं दोहराता

गलतियां ज़रूरी हैं

इन्हें करने में कोई पाप नहीं

सिर्फ पुण्य ही पुण्य है

क्योंकि हमारे सुधार के लिए

गलतियां ज़रूरी हैं

Poetic Justice

In the little time we have left, I read out to them some of the poems they had written last year – nostalgia takes over – the children realize how far they have come in a year’s time – the message is plain and simple – writing like any craft, comes from practice, and hence, never stop writing.

Some of their best poems from the last year’s workshop are featured below –

स्वर्ण मंदिर

– नानक वाधवा, 10 साल

मैं स्वर्ण मंदिर हूँ

मेरे अंदर गुरूनानक का निवास है।

मेरे अंदर सुबह शाम गुरू ग्रन्थ साहिब का पाठ होता है।

मेरे अंदर कई लोग मत्था टेकने के लिए आते है।

मै सोने का बना हूँ।

मै स्वर्ण मंदिर हूँ।

गुड़िया

– जेसिका रेथुदिया, 12 साल

बच्चे मुझे बाज़ार से खरीद कर हैं लाते

मुझसे खेलते और बहुत खुश भी होते।

पर बच्चे खेलते–खेलते कभी मेरी आँख तोड़ते

कभी मेरा हाथ, तो कभी मेरा पांव

मुझे बहुत दुःख होता

पर मैं कुछ नही बोल सकती।

फिर जब मैं पुरानी हो जाती,

तो रोड पर या कचरे के डिब्बे मे फेंकी जाती।

बहुत इंतज़ार करती, पर आता नही मुझे कोई लेने।

वहीं मुझे लोग कचरे के साथ जला देते।

बरतन

– दीपाली भटनागर, 14 साल

कुछ खट–पट हुई है,

कुछ शोर मचा है।

लगता है जैसे घर में

तूफ़ान मचा है।

पड़ोसी घर से बहार निकले,

पूछ रहे हैं – क्या हुआ यह?

क्या कबाड़ वाला फिसल गया है,

या घर के लोग लड़ रहे?

कैसी है यह धड़ाम–धूम,

कुछ ज़ोर से बज रहा है।

अरे!

यह तो घर के बरतन हैं,

उन्हीं का यह शोर मचा है।

माँ के हाथ के खाने का,

हमसे पहले कोई स्वाद चख लेता है।

वो घर के बरतन ही तो हैं,

जिसमें, पकवान परोसे जाते हैं।

आज वही थाली उलटी गिरी है,

कटोरी थोड़ी टेढ़ी हुई।

गिलास लोट रहा है ज़मीन पर,

चम्मच शायद, कहीं छिप गयी।

आज शायद रसोई में,

माँ नहीं कोई और है।

वरना माँ घर के बरतन,

आसानी से संभाल लेती।

खम्भा

– कुशल वाधवा, 14 साल

मैं बरसों से खड़ा हूँ

खड़े खड़े थक चुका हूँ

आराम करना चाहता हूँ

मैं अभी तक चुप हूँ

बोलना चाहता हूँ

इंसानों की तरह

सोना चाहता हूँ

घूमना चाहता हूँ

और जीवन का आनंद लेना चाहता हूँ

मैं दुनिया के सुख दुःख भोगना चाहता हूँ।

मैं ज़िंदा नहीं हूँ

मैं अमर हूँ

मैं मरना चाहता हूँ।

आँख

– अंशुमती चौहान, 12 साल

देखा सारी दुनिया को

देखा प्यारे बच्चों को, देखा मन के सच्चों को

देखें हैं मैंने लाखों सपनों को

प्यारे–प्यारे अरमानों को

देखा है मैंने सारे सुख–दुख को

खुशी–खुशी सहा है मैने गम को और खुशी को

प्यारी–प्यारी नन्ही सी हूँ

देखूंगी सारे जग को

देखा है लोगों ने मुझे

देखूंगी मैं लोगों को

देखा है मित्रता ने मुझे

देखा है शत्रु ने मुझे

सच्चाई ने देखा है मुझे

देखा है झूठ ने मुझे

प्यारी–प्यारी नन्ही सी हूँ

देखूंगी सारे जग को

पतंग

– पियूष विक्रम, 12 साल

अगर मैं पतंग होता

उड़ता मैं खुली हवाओं में

आज़ादी से उड़ता मैं

नीली पीली पतंगों के साथ

उड़ता मैं बादलों के संग

नभ की मस्ती में लहराता

गोटा खाकर फिर उड़ जाता

आसमान से बातें करता

पक्षियों के साथ मैं भी उड़ता

अगर मैं पतंग होता।

ट्रक

– वैदिक गोयल, 12 साल

एक था ट्रक

उसके टायर पंचर थे

और कांच टूटे हुए

शरीर पर घाव के निशान।

ट्रक की दशा खराब थी

एक मुसाफिर को ट्रक ने उड़ा दिया था

और उस एक्सीडेंट के बाद बेकार हो गया था

ट्रक की हालत बहुत बेकार हो गई थी

उसका आकार बिगड़ गया था।

ट्रक के चक्के सड़क पर

आगे निकल कर लोट रहे थे।

क्या यह कोई सपना था?

– वेदिका दुबे, 11 साल

आज सुबह जब मैं उठी

और छत पर गयी

आ रही थी वहां से अजीब अजीब आवाज़ें।

मैंने जाकर देखा तो चिड़िया बातें कर रही थीं

तोते खेल रहे थे

और कोयल गा रही थी।

मैंने भी उनसे बात की,

खेली और गाना गया

माँ ने मुझे बुला लिया

नीचे जाकर मैं आम के पेड़ के साथ खेली

अंदर गयी तो कमरे की सारी चीज़ें बोल उठीं

मुझे उनकी आवाज़ बहुत अच्छी लगी

जब मैं सोई तो कमरा लोरी गाने लगा।

ऐसा लग रहा था कि यह सपना है

पर क्या यह सच था?

Before signing off, I speak to each student individually and tell them what more they need to do to get better – the common message is to read more and try different things – I give away the books I was referring from and plan to send more books once I reach Bangalore – I advise them to form their own kunba, where they can discuss poetry, and help each other improve.

The bell rings – the class falls silent – I thank them for the experiences and memories they have given me – the students slowly walk out of the class – they have a bus to catch – when the class becomes empty, Vidya walks up to me and smiles.

That evening, when the Bombay-based classical music group SaReGaMa render different ragas and plays contemporary tracks based on them, I quietly catch glimpses of my students sitting in the crowd, and wonder about the poems they’ll come up with when we come back next year and start yet another exploration of poetry, innocence, and springtime.