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वो शायर जिनके शेर कभी इंदिरा गांधी ने पढ़े तो कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने

वो घर भी कोई घर है, जहाँ बच्चियाँ न हों: बशीर बद्र

वो शायर जिनके शेर कभी इंदिरा गांधी ने पढ़े तो कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने

Thursday February 15, 2018 , 6 min Read

किसी जमाने में जो शेर कभी पाक के पीएम भुट्टों के सामने हमारे मुल्क की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पढ़े थे, उसे ही पिछले दिनो भारतीय संसद में मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुहराए - 'दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजायश रहे, जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों।' ये लाइनें हैं मशहूर शायर बशीर बद्र की, जिनका आज 15 फरवरी 83वां जन्मदिन है।

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आज भी हर ओर उनके नन्हे-नन्हे शेर हर आमोखास के बीच गूंजते रहते हैं। उन्होंने ने कामयाबी की बुलन्दियों को फतेह कर बहुत लम्बी दूरी तक लोगों की दिलों की धड़कनों को अपनी शायरी में उतारा है।

15 फरवरी 1935 को पैदा हुए बशीर बद्र की पढ़ाई-लिखाई अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में हुई। उनके जन्मस्थान को लेकर मतभेद है। उनके घर का नाम सैयद मोहम्मद बशीर है। कहते हैं कि वह जब सात साल के थे, तभी से शेरो-शायरी करने लगे थे। उन्हें 1999 में पद्मश्री और उर्दू के साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। उनकी रचनाएं अंग्रेजी, फ्रेंच सहित कई भाषाओं में अनूदित हुई हैं। 

उन्होंने दुनिया के दो दर्जन से ज्यादा मुल्कों में मुशायरे में शिरकत की। मशहूर शायर और गीतकार नुसरत बद्र इनके सुपुत्र हैं। करोड़ों लोगों की जनभावनाओं से जुड़े शेर लिखने वाले बशीर बद्र को आम आदमी का गजलकार कहा जाता है।

अपनी पत्नी के साथ बशीर बद्र (फोटो साभार- बशीरबद्र डॉट कॉम) 

अपनी पत्नी के साथ बशीर बद्र (फोटो साभार- बशीरबद्र डॉट कॉम) 


ज़िंदगी की आम बातों को सहजता और सलीके से ग़ज़लों में कह जाना बशीर साहब की ख़ासियत है। उन्होंने उर्दू ग़ज़ल को एक नया लहजा दिया -

यूँ ही बे-सबब न फिरा करो, कोई शाम घर में भी रहा करो

वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो

कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से

ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो

अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आयेगा कोई जायेगा

तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो

मुझे इश्तहार-सी लगती हैं, ये मोहब्बतों की कहानियाँ

जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो

कभी हुस्न-ए-पर्दानशीं भी हो ज़रा आशिक़ाना लिबास में

जो मैं बन-सँवर के कहीं चलूँ, मेरे साथ तुम भी चला करो

ये ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी शाम में, जो उदास पेड़ के पास है

ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आँसुओं से हरा करो

नहीं बे-हिजाब वो चाँद-सा कि नज़र का कोई असर नहीं

उसे इतनी गर्मी-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो

किसी को ग़ज़लगोई, शेरो-शायरी के शौक़ हो तो बशीर साहब की ग़ज़लें मोकम्मल उसे पूरा डालती हैं। सरल भाषा में अपनी बात, अपने भाव और एहसास को आम आदमी तक पहुंचा देना बहुत बड़ी कला है और बशीर में ये प्रतिभा कूट-कूटकर भरी है। ग़ज़ल को लोकप्रिय बनाने में बशीर का नाम अगली पंक्तियों में शुमार है। बशीर साहब की भाषा में वो रवानगी मिलती है जो बड़े-बड़े शायरों में नहीं मिलती। बशीर साहब कठिन भाषा के इस्तेमाल से हमेशा बचते थे और यह कहा भी करते थे कि फारसी और उर्दू के इस्तेमाल भर से सिर्फ शायरी ग़ज़ल नहीं बनती बल्कि ज़मीनी भाषा यानि आम आदमी जो ज़बान बोलता है, जिसमें वो बातें करता है, उसी में ग़ज़ल या शायरी भी सुनना-पढ़ना पसंद करता है, और तभी कोई रचना अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचती है। ग़ज़ल अपने अंदर गहरे एहसासों को समेटे हुए होती है, इसलिए वो ऐसी भाषा में कही जानी चाहिए कि लोगों के ज़हन में उतर जाए-

हँसी मासूम सी बच्चों की कापी में इबारत सी

हिरन की पीठ पर बैठे परिन्दे की शरारत सी

वो जैसे सर्दियों में गर्म कपड़े दे फ़क़ीरों को

लबों पे मुस्कुराहट थी मगर कैसी हिक़ारत सी

उदासी पतझड़ों की शाम ओढ़े रास्ता तकती

पहाड़ी पर हज़ारों साल की कोई इमारत सी

सजाये बाज़ुओं पर बाज़ वो मैदाँ में तन्हा था

चमकती थी ये बस्ती धूप में ताराज ओ ग़ारत सी

मेरी आँखों, मेरे होठों से कैसी तमाज़त है

कबूतर के परों की रेशमी उजली हरारत सी

खिला दे फूल मेरे बाग़ में पैग़म्बरों जैसा

रक़म हो जिस की पेशानी पे इक आयत बशारत सी

वह 1987 का साल था। मेरठ में सांप्रदायिक दंगा भड़क उठा। उस वक्त बशीर साहब मेरठ विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर थे। वह भी उसकी लपटों से बच न पाए। उनका सब कुछ जलकर खाक हो गया। उनसे मोहब्बत के सारे रिश्ते भी उस आग में झुलस गए। दोस्त के यहां परिवार समेत दिन गुजारने पड़े। दिल टूट चुका था, उनके अंदर का शहर उजड़ चुका था। अब उसे छोड़ जाना ही उन्हें जरूरी लगा और एक दिन उनकी दर बदल गई। वह भोपाल चले गए और वहीं के होकर रह गए। उस दर्द को उन्होंने इन लफ्जों में जुबान दी -

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में

तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में।

और जाम टूटेंगे इस शराब-ख़ाने में

मौसमों के आने में, मौसमों के जाने में।

हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं

उम्र बीत जाती है दिल को दिल बनाने में।

फ़ाख़्ता की मजबूरी ये भी कह नहीं सकती

कौन साँप रहता है उसके आशियाने में।

दूसरी कोई लड़की ज़िन्दगी में आयेगी

कितनी देर लगती है उसको भूल जाने में।

आज भी हर ओर उनके नन्हे-नन्हे शेर हर आमोखास के बीच गूंजते रहते हैं। उन्होंने ने कामयाबी की बुलन्दियों को फतेह कर बहुत लम्बी दूरी तक लोगों की दिलों की धड़कनों को अपनी शायरी में उतारा है। उन्होंने मासूमों, स्त्रियों, प्रेमिकाओं, दोस्तों, दुश्मनों यानी हर वर्ग, हर मन-मिजाज के इतने शेर कहे हैं कि गजल के एक युग की तरह लोग उन्हें आज भी उतनी मोहब्बत से याद करते हैं -

वो शाख़ है न फूल, अगर तितलियाँ न हों

वो घर भी कोई घर है जहाँ बच्चियाँ न हों

पलकों से आँसुओं की महक आनी चाहिए

ख़ाली है आसमान अगर बदलियाँ न हों

दुश्मन को भी ख़ुदा कभी ऐसा मकाँ न दे

ताज़ा हवा की जिसमें कहीं खिड़कियाँ न हों

मै पूछता हूँ मेरी गली में वो आए क्यों

जिस डाकिए के पास तेरी चिट्ठियाँ न हों

यह कहते हुए कि 'उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, ना जाने किस घड़ी में ¨जदगी का शाम हो जाए', उन्होंने उत्तर प्रदेश के कई शहरों में वक्त बिताए। कभी फैजाबाद, कानपुर तो कभी मेरठ, अलीगढ़। अपनी जिंदगी की सरहदों की तरह उन्होंने अपने लफ्जों को भी कभी भाषा के दायरे में नहीं बांधा। वह कहते हैं कि वह गजल के शायर हैं, किसी भाषा के नहीं। वह अपने को हिंदुस्तान का शायर कहते हैं -

कोई न जान सका वो कहाँ से आया था

और उसने धूप से बादल को क्यों मिलाया था

यह बात लोगों को शायद पसंद आयी नहीं

मकान छोटा था लेकिन बहुत सजाया था

वो अब वहाँ हैं जहाँ रास्ते नहीं जाते

मैं जिसके साथ यहाँ पिछले साल आया था

सुना है उस पे चहकने लगे परिंदे भी

वो एक पौधा जो हमने कभी लगाया था

चिराग़ डूब गए कपकपाये होंठों पर

किसी का हाथ हमारे लबों तक आया था

तमाम उम्र मेरा दम इसी धुएं में घुटा

वो एक चिराग़ था मैंने उसे बुझाया था

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