सामाजिक समरसता की अप्रतिम मिसाल है अमर शहीद हकीम खान सूर और महाराणा की मित्रता
भारत के मध्यकालीन इतिहास में सामाजिक समरसता की मिसाल कायम करने वाले पहले राजा, वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप ही थे। हकीम खान सूर और महाराणा की मित्रता उनके सामाजिक सद्भाव और पंथ निरपेक्षता का सबसे अप्रतिम उदाहरण है।
दीगर है कि हकीम खान सूर, शेरशाह सूरी का वंशज था। शेरशाह सूरी के वंश का होने के कारण भारत के सिंहासन से उसका सम्बन्ध था। मुगलों ने पठानों को सत्ता से बाहर कर भारत के सिंहासन पर अपना अधिकार जमाया था, इससे पठानों की तेजस्विता को धक्का लगा था।
निःसंदेह स्वाधीनता के अमर सेनानी महाराणा प्रताप सामाजिक समरसता, पंथ निरपेक्षता के प्रबल समर्थक थे। इतिहास के पन्नों को पलटने पर महाराणा प्रताप के सम्पूर्ण जीवन काल में एक भी ऐसा अवसर नहीं दिखाई पड़ता है, जिसमें उन्होंने जाति, रंग, नस्ल, लिंग और पंथ के आधार पर भेद किया हो। हकीकत तो यह है कि भारत के मध्यकालीन इतिहास में सामाजिक समरसता की मिसाल कायम करने वाले पहले राजा, वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप ही थे। हकीम खान सूर और महाराणा की मित्रता उनके सामाजिक सद्भाव और पंथ निरपेक्षता का सबसे अप्रतिम उदाहरण है।
वही हकीम खान सूर, जिसने वीरता के मानकों को ही परिवर्तित कर दिया था। जिसके जिक्र के बगैर हल्दीघाटी का किस्सा ही अधूरा रहेगा। जिसने मेवाड़ की धरती पर अपने पराक्रम से जिस इतिहास की रचना की है, उससे प्रेरणा लेकर आज भी राष्ट्र की एकता और अखण्डता का तेज उद्दीप्त रखा जा सकता है। जी हां, बात हो रही है महाराणा प्रताप के सेनापति हकीम खां सूर की, जो विश्व के एक मात्र ऐसे सेनापति हैं जो समर भूमि में तलवार लेकर शहीद हुये और तलवार के साथ ही दफनाये भी गये। उनके एक हमले से अकबर की सेना कई कोस दूर भागने पर मजबूर हो गई थी।
18 जून, 1576 की सुबह, जब दोनों सेनाएं टकराईं तो प्रताप की ओर से अकबर की सेना को सबसे पहला जवाब हकीम खां सूर के नेतृत्व वाली टुकड़ी ने ही दिया। महज 38 साल के इस युवा अफगानी पठान के नेतृत्व वाली सैन्य टुकड़ी ने अकबर के हरावल पर हमला करके पूरी मुगल सेना में आतंक की लहर दौड़ा दी। मुगल सेना की सबसे पहली टुकड़ी का मुखिया राजा लूणकरण आगे बढ़ा तो हकीम खां ने पहाड़ों से निकल कर अप्रत्याशित हमला किया। मुगल सैनिक इस आक्रमण से घबराकर चार पांच कोस तक भयभीत भेड़ों के झुंड की तरह जान बचाकर भागे। यह सिर्फ किस्सागोई की बात नहीं है, अकबर की सेना के एक मुख्य सैनिक अल बदायूनीं का लिखा तथ्य है, जो खुद हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप के खिलाफ लडऩे के लिए आया था।
दीगर है कि हकीम खान सूर, शेरशाह सूरी का वंशज था। शेरशाह सूरी के वंश का होने के कारण भारत के सिंहासन से उसका सम्बन्ध था। मुगलों ने पठानों को सत्ता से बाहर कर भारत के सिंहासन पर अपना अधिकार जमाया था, इससे पठानों की तेजस्विता को धक्का लगा था। इसका बदला लेने के लिए स्थान खोजते-खोजते हकीम खान सूर मेवाड़ पहुंचा और उदयसिंह के अन्तिम समय में मेवाड़ की सेना में भर्ती हो गया। महाराणा प्रताप ने उसकी प्रतिभा को पहचाना और उसके गुणों को पहचान कर अपनी सेवा में उसको महत्वपूर्ण पद दिया। जनश्रुति है कि हकीम खान के सेनापति बनाये जाने पर उनके धर्म को लेकर कुछ सरदारों ने आपत्ति जतायी थी। सामंतों के अनुसार अकबर बादशाह के हकीम खां सहधर्मी थे इसलिए सरदारों के अपने तर्क भी अपनी जगह जायज थे। जब यह खबर पठान वीर योद्धा हकीम खान तक पहुंची तो उन्होंने मेवाड़ के भरे दरबार में राणा प्रताप को अपनी वफादारी की दुहाई देकर यह कहा कि राणा जी, शरीर में प्राण रहेंगे तब तक इस पठान के हाथ से तलवार नहीं छूटेगी। इतिहास साक्षी है कि मेवाड़ की आन-बान-शान बचाने के लिए हकीम खान के साथ-साथ उनके कुटुंब के सभी लोग अपने प्राणों का बलिदान, रण भूमि में कर गये।
हकीम खान सूर को महत्व देना महाराणा प्रताप की भावना के प्राकट्य के साथ-साथ युद्धक रणनीति का एक अंग था। उन्होंने मुगल विरोधी संघर्ष को विदेशी गुलामी के विरुद्ध संघर्ष का स्वरूप प्रदान किया। तमाम मुगल विरोधी तत्वों को एकजुट करने का उनका प्रयत्न निश्चय ही प्रशंसनीय था। उनकी इसी नीति के कारण हकीम खान सूर एवं जालौर के ताजखान ने उन्हें सहयोग दिया। राजस्थान के कई भागों से मुगल विरोधी तत्व मेवाड़ में आकर प्रताप के साथ हो गए। वास्तव में हल्दीघाटी में मुगल सेना को पहली बार किसी सशक्त विरोधी का सामना करना पड़ा था और हकीम खान सूर ने उस विरोध को अपनी शक्ति से समर्थ बना दिया। महाराणा प्रताप एकमात्र ऐसे राजा थे, जिनका राज्य छोटा था किन्तु उनका राजवंश बड़ा तेजस्वी था। वह एकमात्र ऐसे राजा थे, जिन्होंने मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं की थी। महाराणा प्रताप का क्षेत्र कुम्भलगढ़ के अन्तर्गत माना जाता था। गोगुन्दा में उसका विशेष सैन्य अड्ïडा था, जहां से छापामार लड़ाई का संचालन वह किया करते थे। अकबर ने राणा को इस स्थान से हटाने के लिए एक बड़ी सेना देकर मानसिंह को मेवाड़ में भेजा।
मानसिंह इस निश्चय के साथ युद्ध करने आया था कि या तो महाराणा को बन्दी बना कर लाएंगे या महाराणा को मार डालेंगे। मुगल सैन्य टुकडिय़ों के साथ मानसिंह खमनौर जा पहुंचा। राणा ने खमनौर की ओर बढ़ कर अपना मोर्चा जमाया।वहल्दीघाटी के युद्ध की स्थिति का वर्णन सबसे महत्वपूर्ण है। अलबदायूंनी के अनुसार राणा की सेना में लगभग तीन हजार घुड़सवार थे। पैदल सैनिकों की संख्या उसने नहीं दी है। राणा के पक्ष में पैदल सैनिकों के रूप में पूंजा के वीर धनुर्धर थे, जो राजपूत सैनिकों के पीछे खड़े होते थे और पेड़ों की ओट, चट्टानों के बीच से तीर चलाने में माहिर थे। मुगल सेना में दस हजार सेना होने का उल्लेख किया है, जिसमें चार हजार सैनिक तो मानसिंह के खुद के कुल के थे। पांच हजार मुस्लिम सैनिक थे और एक हजार अन्य सैनिक थे। जनश्रुतियों के अनुसार मुगल सेना में 80 हजार सैनिक थे। महाराणा के पास 20 हजार थे, जिनमें 08 हजार ही बचे थे।
मुगल सेना की ओर से हरावल का नेतृत्व जगन्नाथ कछवाहा कर रहा था, जिसके साथ अली आसिफ खान माधोसिंह और मुल्ला काजी खान तथा सीकरी के शेखजादे थे, इसकी साथ ही बारा के सैयद भी थे। राणा के हरावल में नेतृत्व हकीम खान सूर कर रहा था। साथ में डोडियों के सामन्त भीमसिंह, रामदास राठौड़, ग्वालियर के राजा रामसिंह तोमर अपने तीनों बहादुर पुत्रों के साथ मन्त्री भामाशाह और ताराचन्द भी थे।
अलबदायूंनी के अनुसार हल्दीघाटी युद्ध में हकीम खान सूर के नेतृत्व में महाराणा के हरावल की सेना आगे बढ़ी। उसका सामना करने के लिए जगन्नाथ कछवाहा के नेतृत्व में सेना सामने आयी। हकीम खान सूर के आक्रमण का वेग इतना प्रखर था कि मुगल सैनिक उसे झेल नहीं पाए और भाग खड़े हुए। अलबदायूंनी जो युद्ध का प्रत्यक्षदर्शी सेनानायक भी था और मुगलों की तरफ से लड़ रहा था, युद्ध की स्थिति देख कर लिखता है कि हकीम खान सूर के नेतृत्व में राणा के सैनिक शेर की तरह मुगल सेना पर टूट पड़े थे, जबकि मुगल सैनिक भेड़-बकरियों के समान भाग खड़े हुए थे। रास्ता इतना दुर्गम था कि ऊबड़-खाबड़ मैदान जंगल तथा टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डियां और चारों तरफ कंटीली झाडियां थीं। इसलिए घुड़सवार या पैदल जवाबी हमला न कर सके। बदायूंनी के अनुसार महाराणा प्रताप के नेतृत्व में केन्द्र में रहने वाली सेना भयानक आक्रमण के साथ हकीम खान सूर की सेना से आ मिली। युद्ध भयानक हो उठा और एक बार तो ऐसा लगने लगा कि महाराणा ने युद्ध जीत लिया है क्योंकि बॉरा के सैय्यद यदि युद्ध के मैदान में डटे न रहे होते तो मुगलों की पराजय निश्चित थी। इसका कारण यह है कि अन्य सेनापतियों के शिविर छिन्न-भिन्न हो गए थे। अधिकांश सैनिक भाग गये थे।
युद्ध का नक्शा उस समय बदल गया, जब मुगलों की सुरक्षित सेना का सरदार मेहतार खान यह चिल्लाता हुआ युद्ध में शामिल होने आया कि शहंशाह पधार गए हैं। यद्यपि यह समाचार पूरी तरह झूठा था किन्तु युद्ध में झूठ या सच का महत्व नहीं होता, हार या जीत का महत्व होता है। उसकी इस खबर से भागते हुए सैनिक (मुगल) पलट गए और युद्ध करने लगे। इधर राजपूतों में खलबली मच गई और आक्रमण वाली रणनीति तुरन्त बदल दी गई और सुरक्षा के उपाय सोचे जाने लगे। सबसे पहले महाराणा प्रताप के युद्ध-भूमि से बाहर ले जाने का विचार किया गया। समस्या यह खड़ी हो गई कि महाराणा प्रताप युद्ध -भूमि से बाहर जाने के लिए किसी भी कीमत पर तैयार नहीं हुए। महाराणा प्रताप पर मुगल सेना के चारों ओर से प्रहार होने लगे। झालामान ने महाराणा प्रताप के चंवरछत्र अपने अधिकार में किया।
मुगल सेना का दबाव महाराणा प्रताप से घटा, कम हुआ, क्योंकि महाराणा समझ कर मुगल सैनिक झालामान पर टूट पड़े थे। जब महाराणा प्रताप किसी भी कीमत पर युद्ध-भूमि से बाहर जाने को तैयार नहीं हुए तो हकीम खान सूर आगे बढ़े। महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक की रास अपने हाथ में पकड़ी और उन्हें भामाशाह के पास पहुंच कर यह कहा कि इन्हें बाहर सुरक्षित जगह पर ले जाओ और महाराणा से कहा कि आपके सैनिक, शत्रुओं को हराने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा देंगे, जब तक हमारे शरीर में प्राण है, हम शत्रुओं को आगे नहीं बढ़ने देंगे। आप निश्चिन्त होकर जायें। हकीम खान सूर एक बार फिर युद्ध-भूमि में अपने पराक्रम से शत्रुओं पर भारी पड़ने लगा। किन्तु आखिरकार वह वीरगति को प्राप्त हुये। सत्य का पक्ष लेकर युद्ध में लड़ते-लड़ते वह शहीद हो गये। महाराणा की ओर से लड़ने वाले बड़े-बड़े वीर इस युद्ध में काम आए, किन्तु हकीम खान सूर का रंग अपना निराला ही है।
हल्दीघाटी के युद्ध में जिन लोगों ने प्राणों पर खेल कर पराक्रम का इतिहास लिखा है, उनमें बीदा झालामान सिंह का नाम इसीलिए अमर है, क्योंकि उन्होंने अपने प्राण देने के लिए ही अपने को महाराणा घोषित किया था किन्तु हकीम खान सूर वह वीर पुरुष हैं, जिसने हल्दीघाटी के युद्ध के शुरू से आखिर तक लड़ाई में अपनी जगह बनाई। युद्ध शुरू होते ही बलिदान की बेला में सबसे पहले उन्होंने आगे बढ़ कर अपना खून दिया है और दुश्मनों को मार भगाने में अपनी जान कुर्बान कर दी। मुश्किल के वक्त महाराणा प्रताप को युद्ध-भूमि से बाहर भेजने का दायित्व सूर ने सफलतापूर्वक निभाया है, जिससे महाराणा प्रताप अपनी सुरक्षित सेना के साथ युद्ध-भूमि से बाहर निकले एवं गोगुन्दा के बाहर उन्होंने ऐसे व्यूह की रचना की, जिससे मुगल सेनाएं भूखों मरने के लिए विवश हुईं।
हल्दीघाटी के पूरे प्रसंग में हकीम खान सूर का व्यक्तित्व छाया हुआ है। उन्होंने मरते दम तक मुगलों से लोहा लिया है तथा मर कर, अमर हो गए । इतिहास की किताबों में दर्ज है कि युद्ध भूमि में शहीद हुए इस पठान के हाथ से जीवित रहते हुए उसकी तलवार नहीं छूटी थी। और जब उन्हें सुपुर्द-ए-खाक किया जा रहा था तब भी इस पठान से मृत शरीर के हाथ से तलवार नहीं छूट सकी थी। हर संभव उपाय करने के बाद आखिर में शरीर के साथ तलवार को भी कब्र में दफना दिया गया। राष्ट्र की एकता और अखण्डता का प्रश्न जब भी आने वाली नस्ल के मष्तिष्क में घूमेगा, हकीम खान सूर का नाम हमेशा याद आता रहेगा।
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