महिला सशक्तिकरण के दो मूलमंत्र: शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता-एल. कुमारमंगलम
"चाहे घरेलू हिंसा हो, दहेज़ हो, बलात्कार हो, इन अत्याचारों से पीड़ित हर महिला को सबसे पहले पुलिस के उदासीन, संवेदनहीन और निष्ठुर रवैये से जूझना पड़ता है और यह अत्यंत डरावनी स्थिति है।“
न्याय की मांग करने वाली महिलाओं के सामने पुलिस व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार सबसे डरावना पहलू बनकर सामने आता है: ललिता कुमारमंगलम जब यह कहती हैं तो उसके पीछे महिलाओं के साथ काम करने का उनका सुदीर्घ अनुभव होता है। राष्ट्रीय महिला आयोग (एन सी डबल्यू) की अध्यक्ष के रूप में वे बताती हैं कि उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती महिलाओं के प्रति पुरुषों का रवैया है और विशेष रूप से उनका, जो प्रभावशाली लोग हैं और उच्च पदों पर आसीन हैं।
"चाहे घरेलू हिंसा हो, दहेज़ हो, बलात्कार हो, इन अत्याचारों से पीड़ित हर महिला को सबसे पहले पुलिस के उदासीन, संवेदनहीन और निष्ठुर रवैये से जूझना पड़ता है। और यह अत्यंत डरावनी स्थिति है। अपने स्तर पर मैं खुद इसे महसूस करती हूँ और उसके विरुद्ध मुझे मोर्चा खोलना पड़ता है। इसलिए मैं कल्पना कर सकती हूँ कि एक सामान्य भारतीय महिला को इस मुसीबत का कितना अधिक सामना करना पड़ता होगा। इसीलिए मेरे मन में उन महिलाओं के लिए अपार श्रद्धा है जो हर तरह की विपरीत परिस्थितियों से लोहा लेकर अंततः विजयी हुई हैं। यह नर्क में प्रवेश करने के बाद बचकर वापस आने जैसा है!" HerStory को उन्होंने बताया।
पिछले साल जब ललिता ने सेक्स के व्यवसाय को कानूनसम्मत बनाने की वकालत की तो जैसे उन्होंने बंद कमरे में सांप छोड़ दिया था! उनके विचार में सेक्स व्यवसाय को नियमित करने पर इस व्यवसाय से जुड़ी महिलाओं की माली हालत में सुधार होगा लेकिन इस पर बड़ा विवाद मचा। जैसा कि उन्होंने कहा, इस व्यवसाय को कानूनसम्मत बनाने पर मानव तस्करी पर रोक लगेगी और एच आई व्ही और दूसरे यौन रोगों से संबंधित घटनाओं की संख्या में भी कमी आएगी। वेश्यावृत्ति पर प्रतिबंध लगाने के पक्षधर संगठनों ने उनके विचारों पर बड़ा बावेला मचाया।
इसमें शक नहीं कि ललिता बहुत साहसी और स्पष्टवादी महिला हैं। और जिस तरह महिलाओं पर अत्याचारों की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हो रही है, हम आशा करते हैं कि वे सरकारी तंत्र को प्रभावित करने में सफल होंगी और भारत में महिलाओं की सुरक्षा और उनके लिए न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में आवश्यक कानूनी बदलाव लाने हेतु सरकार को बाध्य करने में कामयाब होंगी।
व्यक्तिगत रूप से आश्वस्त करते हुए वे कहती हैं कि न्याय की गुहार लगाने वाली हर पीड़ित महिला के लिए उनके कार्यालय के दरवाज़े सदा खुले हैं!
“अगर वे मुझ तक पहुँच जाएँ तो मैं जो कुछ भी बन पड़ेगा, करूँगी। अगर मेरे बुरे वक़्त में मुझे इतने सारे लोगों का समर्थन और सहयोग न मिला होता तो मेरा गुज़ारा मुश्किल था। तो क्यों नहीं मैं इसे दूसरों को सौंप दूँ। आप जानते हैं, आप किसी निर्जन स्थान में नहीं रहते, आप समाज में रहते हैं। और अत्यंत अप्रत्याशित जगहों में भी आपको मित्र मिल जाते हैं,” वे कहती हैं। ललिता का जन्म तमिलनाडु में हुआ था और वे प्रख्यात राजनीतिज्ञ मोहन कुमारमंगलम की सुपुत्री हैं। उनके दादा पी सुब्बरायण मद्रास सूबे के मुख्य मंत्री थे। ललिता की माँ, कल्याणी मुखर्जी, बंगाल के मुख्य मंत्री, अजय चक्रवर्ती की बेटी थीं। ललिता विख्यात राजनीतिज्ञ रंगराजन कुमारमंगलम की बहन हैं।
इसके अलावा ललिता स्वयं एक मानी हुई पेशेवर हस्ती हैं। उन्होंने दिल्ली के सेंट स्टीफन्स कॉलेज से अर्थशास्त्र विषय में डिग्री हासिल की है और मद्रास विश्वविद्यालय से एम बी ए किया है। उन्होंने दो बार, 2004 और 2009 में लोकसभा चुनाव भी लड़ा था मगर दोनों बार हार गई। वे एक एन जी ओ भी चलाती हैं, जिसका नाम 'प्रकृति' है।
HerStory के साथ एक अनौपचारिक बातचीत में ललिता ने महिलाओं के प्रति भारतीय समाज के रवैये पर अपने विचार व्यक्त करते हुए आशा व्यक्त की कि कैसे थोड़े समय में ही उसमें सकारात्मक परिवर्तन होने जा रहा है।
एच एस: राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष के रूप में आपके सामने किस तरह की चुनौतियाँ पेश आती हैं?
एल के: चिंता का सबसे बड़ा कारण है, महिलाओं के बारे में भारतीय समाज का दकियानूसी सोच। शताब्दियों से यह संकीर्ण और ओछी मानसिकता पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। महिलाओं के बारे में लोग सोचते हैं कि उसे आज्ञाकारी और पुरुषों का पिछलग्गू होना चाहिए, कि वे परिवार के संचालन में कोई दखल नहीं रख सकतीं और न ही स्वतंत्र रूप से मनचाहा जीवन बिता सकती हैं। लेकिन इसमें बदलाव आ रहा है। इसमें बहुत अधिक समय लग रहा है लेकिन यह बहुत बड़ी आबादी वाला एक विशाल देश है, तो समय तो लगेगा लेकिन बहुत धीमी गति से ही सही, परिवर्तन स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। इस मामले में शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता सबसे ज़रूरी दो बातें हैं।
मेरे ख्याल से दूसरी चुनौती है, शिक्षा की कमी। लड़कियाँ जानती ही नहीं कि पढ़ाई-लिखाई कितनी जरूरी है। भविष्य में आप पढ़ाई का कोई भी क्षेत्र चुनें और उसमें सफल हों लेकिन अगर आपकी शिक्षा सीमित है तो वह किसी न किसी प्रकार से आपकी उन्नति में बाधा बनकर खड़ी हो जाती है। जो प्रशिक्षण और अनुशासन आपको शिक्षा प्रदान करती है वह और कहीं नहीं मिल सकता।
एच एस: सरकार में शामिल होने से पहले आपका जीवन कैसा रहा था?
एल के: इस सरकारी पद के लिए प्रधानमंत्री ने मेरी अनुशंसा की थी। उससे पहले मै भा ज पा की प्रवक्ता के रूप में काम करती थी। वैसे, मैं कुछ ठोस काम करना भी चाहती थी।
मैंने सेंट स्टीफन्स से अर्थशास्त्र में ऑनर्स और मद्रास विश्वविद्यालय से एम बी ए किया है। मेरा परिवार दक्षिण भारत का रहने वाला है। मेरे पिता दिल्ली में थे इसलिए मैं भी तेरह साल दिल्ली में उनके साथ रही। वे इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में मंत्री थे लेकिन जब मैं बहुत छोटी ही थी, एक विमान दुर्घटना में उनका देहांत हो गया था।
स्कूल के बाद मैंने स्टीफन्स में प्रवेश लिया (हालांकि मैं हमेशा पढ़ाई में अच्छी रही थी, स्टीफन्स में प्रवेश मुझे किस्मत से ही मिला था) और ऑनर्स के बाद एमबीए करने मद्रास चली गई। मैंने अशोक लीलैंड और कुछ और कंपनियों में नौकरी की है और पर्यटन क्षेत्र में भी काम किया है। सन 1991 में हर चीज़ से मुझे ऊब हो गई और मैंने अपना एन जी ओ शुरू किया। मैं एच आई वी एड्स की रोकथाम की दिशा में काम किया करती थी।
एच एस: इस क्षेत्र में काम करने का विचार आपके मन में कैसे आया?
एल के: इस क्षेत्र में समस्या की विशालता और उसके निदान के बीच बहुत बड़ी खाई दिखाई देती है। और मेरी जमीनी कामों में शुरू से रुचि रही है-आज भी मैं यही करती हूँ। कुर्सी पर बैठकर काम करने से ज़्यादा, हालांकि राष्ट्रीय महिला आयोग के संदर्भ में यहाँ के काम की प्रकृति को देखते हुए कहा जा सकता है कि बैठकर काम करने का भी मुझे पर्याप्त प्रशिक्षण प्राप्त है। खैर... तो मैं उस काम में काफी समय लगी रही और वह काम मुझे पसंद भी आ रहा था क्योंकि जब आप हाशिये पर पड़े लोगों के बीच काम करते हैं और बड़ी शिद्दत के साथ करते हैं तो उसके इतने सकारात्मक और संतोषजनक नतीजे प्राप्त होते हैं कि नौकरशाही का हिस्सा बनकर कुर्सी पर बैठे रहना, उसके सामने कोई मानी नहीं रखता।
वास्तव में मैं कभी भी राजनीतिज्ञ नहीं रही और मैं राजनीति में आना भी नहीं चाहती थी। मेरे भाई के देहांत के बाद ही मैंने इसमें गोता लगाने का निर्णय किया। मेरा भाई बहुत युवा और तेजस्वी राजनीतिज्ञ और वाजपेई सरकार का लोकप्रिय चेहरा था। जब उसकी मृत्यु हुई, मुझ पर राजनीति में आने का काफी दबाव था, जो धीरे-धीरे बढ़ता चला गया।
पद और ताकत का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। मैंने बड़ी संख्या में शक्तिशाली लोगों को देखा है, जो हमारे बहुत करीबी थे और वह सब बिजली की कौंध की मानिंद पलक झपकते गायब हो जाता है। मैं बहुत रूखी और स्पष्टवादी हूँ। मैं बहुत सुमधुर और नम्र भी हो सकती हूँ लेकिन मैं बहाने पसंद नहीं करती। शायद मैं लोगों से उनकी क्षमता से कुछ ज़्यादा की अपेक्षा रखती हूँ।
एच एस: आप पर सबसे शुरुआती प्रभाव किनका रहा?
एल के: मुझे हमेशा स्वयं का आदर करने की शिक्षा दी गई थी। सिर्फ इसलिए कि मैं लड़की हूँ, यह नहीं था कि मैं खुद अपने आप से कोई बड़ा काम करने की अपेक्षा ही न कर सकूँ। मुझे सिखाया गया था कि मैं अपने काम में श्रेष्ठता प्राप्त करूँ, जो कुछ भी करूँ, अच्छे से अच्छा करूँ। प्रतिद्वंद्विता से मैं कतई परेशान नहीं होती थी, चाहे प्रतिद्वंद्वी लड़के ही क्यों न हों। हमारे परिवार में ही बच्चों में बहुत आपसी प्रतिद्वंद्विता थी। उनमें से सभी एक से बढ़कर एक सफल व्यक्ति रहे हैं। मैं बहुत स्वतंत्रचेता हूँ। सौभाग्य से मेरे पहले मेरे परिवार में एक बहुत मज़बूत महिला पैदा हो चुकी थी। मेरी चाची, पार्वती कृष्णन भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी की ओर से तीन बार लोकसभा का चुनाव जीतकर संसद सदस्य रह चुकी थीं और साथ ही वे ट्रेड यूनियन की बड़ी नेत्री भी थीं। वह मेरे पिता की बहन थीं। मेरी माँ की चाची, गीता मुखर्जी भी संसद सदस्य थीं और लोग आज भी उनका नाम बड़े आदर के साथ लेते हैं। मैंने उन सबसे बहुत कुछ सीखा।
एच एस: क्या आप समझती हैं कि राष्ट्रीय महिला आयोग के पास पर्याप्त अधिकार हैं? क्या उसे हाशिए पर नहीं डाल दिया गया है?
एल के: सच बात है। छोटे मुँह बड़ी बात न समझी जाए तो कहना चाहूँगी कि राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना Cabinet द्वारा की गई थी और वह महिला एवं बाल विकास मंत्रालय का एक हिस्सा है। दुर्भाग्य से, जैसा कि आप जानते हैं, भारत में महिलाओं और बच्चों को अधिक महत्व नहीं दिया जाता। बड़े-बड़े कार्यक्रम हैं, प्रभावशाली योजनाएँ हैं और बहुत सारा धन इन योजनाओं के लिए आवंटित है। इस पर अर्थ मंत्रालय द्वारा विचार तक नहीं किया जाता, जब कि किया जाना चाहिए, क्योंकि महिलाएँ देश की आबादी का 48% हिस्सा हैं।
हमें एक साधारण CSR (व्यापारिक घरानों द्वारा सामाजिक जवाबदेही के अंतर्गत किया जाने वाला सामजिक कार्य) के अंतर्गत काम करने वाला कार्यालय समझा जाता है। इस मंत्रालय को ही उतना महत्व नहीं दिया जाता, जितना दिया जाना चाहिए। उसे मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एच आर डी मंत्रालय) के बराबर महत्व तो दिया ही जाना चाहिए। दूसरे, एक तरह से हमारे अधिकार अनुशंसात्मक ही हैं, आदेशात्मक नहीं। इसलिए हमने, विशेष रूप से वर्तमान मंत्री, मानेका गांधी ने, राष्ट्रीय महिला आयोग के अधिकारों और शक्ति में वृद्धि हेतु मज़बूत दावा पेश किया है।
वर्तमान सरकार को बहुत से कार्य सिद्ध करने हैं, जिनमें ज़्यादातर जल्दबाज़ी में नहीं, लंबे समय में पूरे हो सकने वाले महत्वपूर्ण कार्य हैं। पेट्रोलियम की कीमतों को सबसे ऊपरी वरीयता प्राप्त है लेकिन बहुत से काम, जिनसे हम निपटने की कोशिश कर रहे हैं, वे भी बहुत महत्वपूर्ण हैं, जैसे, महिला सुरक्षा। मैं प्रयत्नशील हूँ कि महिलाओं के मामले भी प्रमुखता से सबके सामने लाए जाएँ और खुद महिलाओं को उनके जायज़ बराबरी के अवसर प्राप्त हो सकें। हम अब अधिक पेशेवराना रुख अख्तियार कर रहे हैं और उसके लिए अधिक व्यवहारिक प्रस्ताव लेकर आ रहे हैं। और सिर्फ वही नहीं, जिन्हें किसी कारण से पुरस्कार स्वरुप कोई पद दे दिया गया है। बहुत से राजनीतिज्ञ हैं जो भली भाँति प्रशिक्षित हैं और काम के प्रति उनका रुख भी पेशेवराना है। और मैं उन्हीं लोगों की तलाश में हूँ।
इस देश में महिलाओं से संबंधित हर बात संघर्ष की मांग करता है। उसे कतई प्राथमिकता नहीं दी जाती। प्रधानमंत्री अवश्य आगे बढ़कर कामों को अंजाम तक पहुँचाना चाहते हैं लेकिन वे भी अकेले क्या क्या कर सकते हैं? और हमारी व्यवस्था महिलाओं से अत्यंत घृणा करने वाली व्यवस्था है इसलिए स्वाभाविक ही, किसी भी बदलाव में बहुत अधिक वक़्त लग जाता है।
एच एस: एक व्यक्ति के रूप में इतनी सारी चीज़े करने के लिए कौन सी बात प्रेरित करती है?
एल के: एक तरह से देखें तो कहा जा सकता है कि काफी हद तक मैं भाग्यशाली रही हूँ। हालांकि मैं सार्वजनिक रूप से अपनी निजी ज़िन्दगी के बारे में बात करना पसंद नहीं करती लेकिन इतना कहूँगी कि यह इतना आसान नहीं था। छोटी उम्र में मैंने अपने पिता को खोया, फिर भाई, जो भारत के सबसे शक्तिशाली व्यक्तियों में से एक था, मेरी आँखों के सामने चला गया। 18 साल पहले मैंने अपने पति को भी खो दिया और तब मेरी दो लड़कियाँ थीं, जिनकी परवरिश करनी थी। इस देश में यह आसान काम नहीं था। मैं भाग्यशाली रही कि मेरे सिर के ऊपर छत मौजूद थी और दूसरी बहुत सी जीवन-यापन संबंधी चीजों के लिए मुझे कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा। मुझे हमेशा ही अपने परिवार से पूरा सहयोग और सहायता मिलती रही। लेकिन फिर भी यह काम दुरूह था। मेरे खयाल से शायद इसीलिए, जब हम जीवन के उस पहलू को, जीवन के उस ज़्यादा कठिन पक्ष को खुद भुगतते हैं तभी हमें असलियत का पता चलता है। अन्यथा आप गुज़ारा नहीं कर सकते। आप जानते हैं कि आप सारा जीवन रोते-सुबकते नहीं रह सकते। फिर आप जीवन में बहुत सारे समझौते करने पर मजबूर होते चले जाते हैं। मुझे यह करने की शिक्षा नहीं मिली थी।
एच एस: क्या आपको लगता है कि आपने अपना कैरियर योजनाबद्ध तरीके से शुरू किया था?
एल के: बिल्कुल नहीं, मैं कभी भी राजनीति में नहीं आना चाहती थी। मैं अपने एन जी ओ के काम से बहुत खुश थी और मैं वहाँ काफी अच्छा काम कर रही थी। मैं वहाँ दुनिया के लगभग सभी दानदाताओं के साथ काम कर रही थी। मैंने लगभग 27-28 देशों की यात्राएँ कीं और ज़्यादातर अपने उसी काम के दौरान कीं। 2002 के आसपास मुझे भा ज पा का राष्ट्रीय सचिव बनाया गया था और मैं दोनों काम नहीं कर पा रही थी। एन जी ओ तब भी चल रहा था और ठीक-ठाक काम कर रहा था लेकिन मेरे पास वक़्त की बड़ी कमी हो गई थी। और अब तो बिलकुल समय नहीं है। राजनीति बहुत समय खाने वाला काम है। अगर आप कोई काम ठीक तरह से करना चाहते हैं तो उसके लिए आपको पूरा समय देना पड़ता है।
एच एस: जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे क्या आप और अधिक सक्रिय होती गईं?
एल के: महत्वाकांक्षा अच्छी बात है मगर अति महत्वाकांक्षी होना अच्छा नहीं है। मेरे लोग, मेरे परिवार वाले, मेरी पार्टी मेरी कुछ प्रमुख जिम्मेदारियाँ हैं। गांधीजी ने कहा था कि देश अधिक महत्वपूर्ण है, मैं नहीं। इसीलिए वे इतना सफल हो पाए।
एच एस: वापस आपकी बेटियों पर लौटते हैं-आजकल वे क्या कर रही हैं?
एल के: मेरी बड़ी बेटी वकील है और आजकल सर्बिया में रह रही है। मेरी छोटी बेटी पत्रकार है लेकिन अब वह एक एन जी ओ के लिए काम कर रही है। वह दिल्ली में रहती है और सुखी वैवाहिक जीवन गुज़ार रही है।
एच एस: महिला सशक्तिकरण हेतु किन मुख्य बातों को तुरंत शुरू किया जाना चाहिए?
एल के: आर्थिक सशक्तिकरण, समान अवसर, सुविधाओं तक समान पहुँच और शिक्षा। इसके अलावा दक्षता या किसी कौशल का प्रशिक्षण भी शिक्षा का अनिवार्य अंग हो। अगर हम दहेज देना बंद कर दें तो हम लड़कियों की हत्याओं पर भी रोक लगा सकेंगे।
एच एस: अपनी शिक्षा के बारे में आप क्या कहना चाहेंगी?
एल के: हम सेंट स्टीफंस के पहले बैच की लड़कियाँ थीं। स्टीफंस एक मुश्किल जगह थी लेकिन हमने लड़कों को अपने मित्रों की तरह लड़कियों की तरफ भी समान नज़रों से देखना सिखाया।
हमारे कॉलेज में कुछ बहुत अच्छे प्राध्यापक थे। दिल्ली में कॉलेज का अनुभव देश के दूसरे कॉलेजों की तुलना में बहुत अलग सा है। वहाँ का वातावरण बहुत खुला और स्वतंत्र है। स्टीफन्स का अपना एक अलग सौन्दर्य और सम्मोहन है। उसकी अपनी कुछ समस्याएँ भी हैं। लेकिन हमारे साथ बहुत सम्मानजनक व्यवहार होता था। निश्चित ही, नियम भी थे और लड़कियाँ उनका पालन करती थीं। कोई भी हमारी उपेक्षा नहीं कर सकता था।
एच एस: कोई एक व्यक्ति जिसने आपको प्रेरित किया।
एल के: बहुत से! मेरे पिता बहुत सफल, शक्तिशाली और करिश्माई व्यक्तित्व के मालिक थे। लेकिन माँ मेरे जीवन की रीढ़ थीं। मैं साढ़े पंद्रह साल की थी जब मेरे पिता का देहांत हुआ। माँ के दृढ़ समर्थन और सहयोग के बिना मैं कुछ नहीं कर सकती थी। अपनी पीढ़ी के लिहाज से वे बहुत प्रगतिशील महिला थीं। वे हमेशा मुझसे कहतीं कि तुम लड़कियाँ तेज़ी से प्रगति कर रही हो। हम जो एक दूसरे से चाहते थे, उस पर हमारा झगड़ा होता था। मुझे लगता है, उस पीढ़ी में अधिक साहस था। और मेरी बेटियों ने मुझे इतनी सारी दुर्घटनाओं का सामना करते देखा है कि वे भी बहुत मज़बूत और हिम्मती हो गई हैं। वे उससे ज़्यादा मज़बूत हैं, जितना मैं उनकी उम्र में थी। पर मैं खुश हूँ, क्योंकि ज़िंदा रहने के लिए आपका मज़बूत होना बहुत ज़रूरी है।
एच एस: दिक्कतों के बावजूद जीवन के प्रति आपका नज़रिया सकारात्मक नज़र आता है। कैसे?
एल के: जी हाँ। अन्यथा आपका गुज़ारा नहीं हो सकता! आपको अपने आप पर हँसना सीखना होगा। आपको पता होना चाहिए कि आपकी रोतली सूरत कोई नहीं देखना चाहता। सबकी अपनी-अपनी निजी समस्याएँ हैं। तो आपको इन सबसे ऊपर उठना पड़ता है। अंततोगत्वा, यह आप पर निर्भर है। जितना आप चाहें, लोग आपकी मदद कर सकते हैं लेकिन यदि आप खुद अपनी मदद नहीं कर सकते तो आपने जहाँ से शुरू किया था, उससे एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाएँगे। ईश्वर भी उन्हीं की मदद करता है, जो अपनी मदद खुद करते हैं। मुझे भी खुद इन संकटों से उबरना था और मैंने पाया कि जब मैंने ऐसा करने की कोशिश की तो कुछ भी मुश्किल नहीं था। जीवन तो जीना ही पड़ता है, हँस के जियो चाहे रोकर।