ग्लोबलाइजेशन के दौर में ग्लोबल होती हिन्दी
समय बदल रहा है, देश बदल रहा है और ऐसे में यदि हिन्दी बदल रही है, तो इसमें परेशान होने की बजाय खुश होना चाहिए, क्योंकि भाषा की फ़ितरत ही है बदल जाना। बदलाव यदि न हो तो पानी भी दुर्गंध मारने लगता है, फिर भाषा को भी जीवित रहने के लिए बदलना तो पड़ेगा ही। क्योंकि जब तक भाषा बदलेगी नहीं, तब तक विकसित कैसे होगी?
"भूमंडल हिन्दी का पुराना शब्द है, लेकिन अंग्रेजी के ग्लोबलाइजेशन शब्द का हिन्दी अनुवाद भूमंडलीकरण अपेक्षाकृत नया और कुछ साल पहले से ही प्रचलन में आया शब्द है। इसे हिन्दी के साथ इस्तेमाल करते हुए अक्सर सुना जाता है। मातृभाषा दिवस पर आज उसी ग्लबोल होती हिन्दी पर चर्चा होगी, जो किताबी भाषा से निकलकर सामान्य बोलचाल की भाषा का रूप ले चुकी है।"
"लंबी गुलामी ने हमें अत्यंत संवेदनशील बना दिया है, जिसके चलते हम हर चीज़ को लेकर भावुक हो जाते हैं, फिर बात चाहे हमारे संबंधों की हो या फिर हमारी मातृभाषा हिन्दी की। असल में मातृभाषा से मनुष्य का लगाव वैसा ही होता है, जैसा कि अपनी मां से। ये वही भाषा होती है, जिसे सुनते, पढ़ते और सीखते हुए एक बच्चा बड़ा होता है। हमारी मातृभाषा हमें हमेशा एक गौरव प्रदान करती है, ऐसे मे ग्लोबल होती हिन्दी हमारी मातृभाषा की ताकत बनकर उभरी है, बस ज़रूरत है उस पर हाय-तौबा मचाने की बजाय उसे अपना लिया जाये।"
हिन्दी को अपनी प्रॉपर्टी मानने वाले लोग हिन्दी भाषा के भविष्य को लेकर अत्यंत सशंकित हैं। बताया जा रहा है, कि हिन्दी को सबसे बड़ा खतरा ग्लोबलाइजेशन से है। यह एक अजीबो-गरीब तथ्य है। ग्लोबलाइजेशन की परिधि में केवल भारत की सीमाएं ही नहीं आतीं, बल्कि वैश्वीकरण का विस्तार अब हर ओर हो रहा है। यह कैसा विरोधाभास है, कि विद्वानगण ग्लोबलाइजेशन को चीन, जापान, रूस, जर्मनी और फ्रांस के लिए चुनौती नहीं मानते, सिर्फ भारत तथा अन्य विकासशील देशों के लिए ही घातक मान रहे हैं और सबसे दिलचस्प बात तो ये है, कि हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान भी कभी इस तरह की आवाज़ नहीं उठाता, कि उर्दू या पंजाबी का अस्तित्व खतरे में है। और तो और बांग्लादेश भी बांग्ला के भविष्य को लेकर आश्वस्त है। पुर्तगाली, हंगरी, ग्रीक, इटली और पोलैंड की भाषाएं भी सुरक्षित हैं। फिर सिर्फ हिन्दी ही खुद को इतना असुरक्षित क्यों महसूस कर रही है?
सोवियत संघ के पतन के बाद विश्व में तेजी से अमेरिकी साम्राज्यवाद ने विश्व बाजार के नाम पर पूंजीवाद के नये रूप की परिकल्पना की। दरअसल भूमंडलीकरण उदारीकरण के नाम पर पूंजीवाद का विश्व बाजार बनाने का लक्ष्य था, जो कि अब पूरा होता नज़र आ रहा है, जिसके चलते नवविकसित, अर्धविकसित और पूर्णत: विकसित शब्दों के बाजार पर पूंजीवाद की इजारेदारी कायम की जा सके। उदारीकरण की यह छद्म तानाशाही वस्तुत: हमसे न केवल हमारी मनुष्यता छीनती है, बल्कि हमारी संवेदना का अपहरण करके हमें कुंठित बनाती है। दुनिया की हर चीज़ आज बाज़ार में या तो बिक रही है या फिर जीवित रहने के लिए बदल रही है, उन्हीं बदलती चीज़ों में सबसे बड़ी चीज़ है हमारी मातृभाषा हिन्दी। हिन्दी को बदलना था, क्योंकि उसे जीवित रहना था। वरिष्ठ साहित्यकार राजेंद्र यादव का कहना था, कि "भाषा कभी बनती, बिगड़ती या बदलती नहीं, बल्कि विकसित होती है।" और आज की हिन्दी यानी की हमारी मातृभाषा हिन्दी बनी या बिगड़ी नहीं है बल्कि विकसित हुई है।
"हिन्दी के साथ अंग्रेजी का मिश्रण आम बात हो गई है, जिसको लेकर कुछ लोग नाराज़गी भी ज़ाहिर कर रहे हैं औऱ कुछ ने समय के साथ चलते हुए भाषा के इस बदलते स्वरूप को सहर्ष स्वीकार कर लिया है।"
ग्लोबलाइजेशन की भाषा यदि अंग्रेजी है, तो उसके इंफ्लुयेंस में हिन्दी तो बदलेगी ही बदलेगी। हिन्दी में अंग्रेजी के शब्द आयेंगे और सिर्फ अंग्रेजी ही क्यों अब तो जर्मन, रशियन, फ्रेंच भी आ गये हैं। नये-नये आविष्कार हो रहे हैं, वैज्ञानिक चीज़ें आ रही हैं और उनके साथ-साथ उनके उच्चारण भी आ रहे हैं, जिनका कोई हिन्दी शब्द नहीं तो फिर उन्हें उनकी ही भाषा में पुकारा जाना मजबूरी है। अब हिन्दी वैसी नहीं रही जैसी कि हम उसे सुनते और पढ़ते आ रहे थे। टेक्नोलॉजी और विज्ञान ने हिन्दी का विस्तार करके उसे एक नया ही रूप प्रदान कर दिया है। कुछ सालों से हम देख पा रहे हैं, कि इंटरनेट या टेलीविजन पर भी हिन्दी का वह रूप दिखाई नहीं दे रहा है, जो हमारी किताबों, कहानियों और उपन्यासों में हुआ करता था। हिन्दी के साथ अंग्रेजी का मिश्रण आम बात हो गई है, जिसको लेकर कुछ लोग नाराज़गी भी ज़ाहिर कर रहे हैं और कुछ ने समय के साथ चलते हुए भाषा के इस बदलते स्वरूप को सहर्ष स्वीकार कर लिया है।
हिन्दी को बदलने में सबसे बड़ी भूमिका बाज़ार और मीडिया ने निभाई है। हिन्दी हमेशा से सिर्फ किसी एक प्रांत एक प्रदेश की भाषा नहीं रही है, बल्कि देश की भाषा है, जिसके चलते इसे दूसरे प्रांतों और देशों में समझने लायक बनना पड़ा। अंग्रेजी से ज्यादा टेक्नोलॉजी कई नये शब्द लेकर देश में दाखिल हुई। कंप्यूटर और इंटरनेट के माध्यम से नई-नई चीज़ें हमारे बीच आईं और इनके साथ-साथ एक अलग तरह की हिन्दी भी, जो सामान्य मानव की समझ के स्तर की थी। जो शब्द हमेशा आते हैं, वे या तो किसी वस्तु की व्याख्या करने, समझाने के लिए या फिर कॉन्सैप्ट की धारणा, अवधारणा के लिए आते हैं। वस्तुएं भी बाहर से आयेंगी और तकनीक भी तो उनके पीछे-पीछे आने वाली फिलॉसफी हिन्दी को अपने आप ग्लोबल कर देगी।
"जो लोग हिन्दी से दूर भागते थे और खुद को अंग्रेजीमय कहलाना पसंद करते थे, वे अब नई वाली हिन्दी की बदौलत ही हिन्दी में बोलने, लिखने और पढ़ने में गर्व महसूस करते हैं।"
कुछ समय पहले तक हिन्दी सिर्फ साहित्य तक ही सीमित थी, लेकिन समय के साथ-साथ साहित्यिक भाषा भी सामान्य बोलचाल की भाषा में तब्दील हो चुकी है, जिसे आज के साहित्यकार नई वाली हिन्दी का नाम देते हैं। इस नई वाली हिन्दी (जो कि ग्लोबल हिन्दी की ही बहन है) ने अंग्रेजी पाठकों को भी हिन्दी की ओर आकर्षित किया है। जो लोग हिन्दी से दूर भागने लगे थे और खुद को अंग्रेजीमय कहलाना पसंद करते थे, वे अब नई वाली हिन्दी की बदौलत ही हिन्दी में बोलने, लिखने और पढ़ने में गर्व महसूस करते हैं।
सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की उपस्थिति का विस्तार लगभग तमाम देशों तक हो चुका है। सॉफ्टवेयर का जितना निर्यात भारत से हो रहा है, वह चौंकाने वाले तथ्य प्रस्तुत कर रहा है। भारत की निर्यात से होने वाली आय में सॉफ्टवेयर निर्यात की महत्वपूर्ण भूमिका है। अनेक भारतीय सॉफ्टवेयर कंपनियां बहुराष्ट्रीय कंपनियों की श्रेणी में आ गई हैं। अनेक भारतीय उद्योगपति विदेशी कंपनियों का अधिग्रहण कर रहे हैं। उत्तरोत्तर विश्व सिमटता जा रहा है, जिसका सीधा प्रभाव हमारी भाषाओं पर भी पड़ रहा है। आज अंग्रेजी के शब्दकोश में हिन्दी के अनेक शब्द मिल जायेंगे। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत के बाजार में अपनी पैठ बनाने के लिए कस्बे और देहात तक पहुंचना पड़ रहा है। गांव की हाट तक पहुंचने के लिए वे हिन्दी का सहारा ले रहे हैं, जिसके चलते विदेशों में हिन्दी का प्रचार तेजी से हुआ है। हिन्दी के प्रति सबसे अधिक दिवानगी दक्षिण कोरिया में देखी जा सकती है। विश्वविद्यालयों में अल्पावधि हिन्दी पाठ्यक्रमों में दक्षिण कोरिया के छात्रों की संख्या काफी मात्रा में है। भारत में भी कोरिया की अनगिनत कंपनियां उपस्थित हैं। पूर्व कोरिया का झुकाव चीन की ओर था, लेकिन कुछ साल पहले से कंपनियों ने भारत की ओर रुख कर लिया। इतने पर भी जिन्हें लगता है, कि हमारी मातृभाष हिन्दी ग्लोबलाइजेशन की वजह से खतरे में है, तो उन्हें सबसे पहले यह समझना होगा कि ग्लोबल हो चुकी हिन्दी ने देश को दुनिया भर में एक अलग स्थान पर खड़ा कर दिया है।
हर बात के दो पहलू होते हैं, सकारात्मक और नकारात्मक। हिन्दी को लेकर यदि इसी तरह का नकारात्मक रवैया रखा जायेगा, तो हम एक खो चुकी भाषा का रोना रोते रहेंगे और उसे ही पकड़ कर बैठे रहेंगे, जो हमें खुद ही छोड़ कर जा चुकी है या फिर कहें तो छोड़ कर कहीं नहीं गई, बल्कि हमारे बीच बने रहने के लिए हमारे कपड़े, हमारे खानपान और हमारी सोच की तरह वो भी आधुनिक और विकसित हो गई है।इसलिए बेहतर होगा, कि सभी गिले-शिकवों को एक ओर रख कर हिन्दी को बेझिझक बिंदास ग्लोबल हो जाने दिया जाये।