पारिजात की खोज में नासिरा
साहित्य अकादमी ने भारतीय भाषाओं के रचनाकारों को साहित्य अकादमी पुरस्कार देने की घोषणा की है। हिंदी में इस वर्ष साहित्य अकादमी का प्रतिष्ठित पुरस्कार प्रसिद्ध लेखिका नासिरा शर्मा को उनके उपन्यास 'परिजात' के लिए दिया जायेगा। ये पुरस्कार नासिरा शर्मा को अगले साल 22 फरवरी को दिया जायेगा। पुस्कारों की घोषणा साहित्य अकादमी के सचिव डॉ. के श्रीनिवास राव ने की है।
वरिष्ठ साहित्यकार नासिरा शर्मा के साहित्य अकादमी सम्मान-2016 की घोषणा से साहित्य प्रेमियों में खुशी की लहर तो दौड़ी है, लेकिन भीतर ही भीतर कहीं आक्रोश भी दिख रहा है, कि नासिरा शर्मा को जो सम्मान बहुत पहले मिलना चाहिए था, वो इतनी देर से क्यों दिया जा रहा है। नासिरा को यह सम्मान मिलने में कुछ सालों की देर तो हुई, लेकिन सम्मान मिलने की खुशी भी बेपनाह है। कुछ लोगों ने 500 पेज के उनके उपन्यास पारिजात को उनके अन्य उपन्यासों के मामले में एक कमज़ोर कृति ज़रुर माना था और उनके दूसरे उपन्यासों पर ज्यादा नज़र थी, खासकर कुंईयांजान (सामयिक प्रकाशन) और कागज की नाव (किताब घर) मौजूदा समय के दो सबसे बड़े संकट का महाआयाख्यान प्रस्तुत करते हैं।
साहित्य अकादमी के 60 साल से ऊपर के इतिहास में हिंदी साहित्य में नासिरा शर्मा वह चौथी महिला हैं जिन्हें साहित्य अकादमी 2016 सम्मान मिला है। इसके पहले कृष्णा सोबती, अलका सरावगी और मृदुला गर्ग को यह सम्मान मिल चुका है, साथ ही नासिरा शर्मा पहली मुस्लिम लेखिका हैं जिन्हें हिंदी का साहित्य अकादमी सम्मान मिला है।
नासिरा शर्मा उन विरले रचनाकारो में से एक हैं जिनकी हर कृति का कैनवास बहुत विराट है और इनमें से किसी एक को चुनने में मुश्किल होती है। इनके उपन्यासों में गहरे शोध की छाया है जो कहानी में एक नए किस्म का मेटाफर प्रस्तुत करती है। नासिरा शर्मा के उपन्यास पारिजात के बारे में शायद सबको पता न हो, कि परिजात एक फूल का नाम है, जिसकी स्मृतियां स्वर्ग से जुड़ती हैं और वही पारिजात इस धरती पर भी कहीं बचा पड़ा है। फूल के उसी पौधे की खोज में लेखिका निकल पड़ती हैं। नासिरा के लिए अपने उपन्यास को बीच में रोक कर पारिजात की खोज यात्रा शुरु होती है। ऐसी कोशिश नासिरा जी ही कर सकती हैं, कि वे उपन्यास में पारिजात को मेटाफर की तरह इस्तेमाल करने से पहले उसके दर्शन कर पूरी तसल्ली कर लें।
नासिरा शर्मा की कहानियों में स्त्री-पुरुष संबधों की प्रमुखता पढ़ने को मिलती है। इनकी कहानियां सिर्फ एक कहानी मात्र न होकर पूरा का पूरा ज़िंदगीनामा हैं, जो शब्दों के द्वारा तर्कपूर्ण विस्तृत ब्यौरा प्रस्तुत करती हैं।
उपन्यास लिखते समय पारिजात फूल नासिरा के दिमाग में इस कदर बस गया था, कि उसे देखना उनकी अनिवार्यता बन गई थी। उसे देखने के लिए उचित मौसम का इंतजार बहुत धैर्यशाली लेखक ही कर सकते हैं। उपन्यास को बीच में छोड़कर वे निकल पड़ी थीं दुनिया के इकलौते बचे पारिजात वृक्ष की खोज में। उन्हें वह वृक्ष मिला भी, उत्तरप्रदेश की घाघरा नदी के तट पर स्थित बाराबंकी जनपद के बदोसराय कस्बे के पास, जहां एक शाम वे उसके फूल को खिलते देखती हैं। उन्हें चुनती हैं और दुआ करती है कि ये फूल उनके दामन में गिर जायें। अब वे फूल गिरे हैं अकादमी सम्मान के रुप में, पारिजात के नाम। किस्सागोई के फन में माहिर नासिरा जी के इस उपन्यास में पारिजात सिर्फ मेटाफर की तरह नहीं बल्कि नए पुराने रिश्तों की दास्तान है। लुप्त होती संवेदनाओं की पड़ताल है। लखनऊ और इलाहाबाद की ज़मीन पर बुना गया कथानक है, जिसमें से पारिजात की खुशबू आती है.
नासिरा जी के उपन्यासो की बात करें तो हरेक में कोई भारतीय समाज के एक पक्ष को लेकर चिंतायें दिखाई देंगी। सात नदियां एक समंदर (1984) ईरानी क्रांति पर लिखा दुनिया का पहला उपन्यास है। शाल्मली (1987) स्वतंत्रता के बाद अस्तित्व में आयी उस महिला की कहानी है जो वैचारिक रुप से परिपक्व है और वैवाहिक जीवन में प्रेम और बराबरी पर विश्वास रखती है। इसी तरह ठीकरे की मंगनी (1989) में आजादी के बाद की संघर्षशील लड़की जो अपनी मेहनत और काबिलियत से साबित करती है कि पितृसत्ता में औरत की एक अपनी पहचान भी होती है। जिंदा मुहावरे (1992), अक्षयवट (2003), कुंईयां जान, जीरो रोड, अजनबी जजीरा, कागज की नाव सरीखे उपन्यास अलग से रेखांकित किए जाने लायक हैं।
नासिरा जी के भीतर जो पत्रकार बसता है वह उन्हे ऊंगली पकड़ कर शोध की राह पर ले जाता है। जैसे मोहब्बत पर लिखना हो तो वे ताजमहल की सैर किए बिना नहीं लिखेंगी वैसे ही उनका हरेक उपन्यास उनकी खोज यात्रा की देन है।
नासिरा शर्मा ने स्वतंत्र पत्रकार भी रह चुकी हैं। इन्होंने इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत के कई राजनीतिज्ञों और प्रसिद्ध बुद्धिजीवियों का साक्षात्कार किया जो बहुत चर्चित हुए। साहित्य अकादमी का यह निर्णय कई वजहों से उल्लेखनीय है। साहित्य अकादमी के साठ साल से ऊपर के इतिहास में हिंदी में नासिरा शर्मा सिर्फ़ चौथी महिला हैं जिन्हें यह सम्मान मिला है। इसके पहले कृष्णा सोबती, अलका सरावगी और मृदुला गर्ग यह सम्मान हासिल कर पाईं।
निस्संदेह नासिरा शर्मा को यह सम्मान उनके महिला या मुस्लिम होने की वजह से नहीं मिला है। वे अपने आप में एक समर्थ लेखिका हैं, जिन्हें सम्मानित किये जाने के पीछे वजह उनकी लेखनी है, न कि उनका कुछ होना न होना। समकालीन हिंदी साहित्य और बौद्धिकता के संसार में कुछ गिने-चुने लोग ही होंगे जिनके पास विषयों का इतना बड़ वितान हो और एक साथ इतनी सारी भाषाओं की समझ हो। हिंदी के अलावा अंग्रेज़ी, उर्दू, फ़ारसी और पश्तो पर अपने अधिकार के साथ उन्होंने जितना कुछ लिखा है, वह हिंदी साहित्य और समाज के लिए मूल्यवान है। वह भारत की ही नहीं, एशिया की सांस्कृतिक धरोहर है। ‘सात नदियां एक समंदर’, ‘शाल्मली’, ‘कुइयांजान’, ‘अक्षयवट’, ‘ज़ीरो रोड’ जैसे आधा दर्जन से ज्यादा उपन्यासों, ‘इब्ने मरियम’, ‘शामी कागज़’, ‘पत्थर गली’ और ‘ख़ुदा की वापसी’ जैसे कई कहानी संग्रहों, ‘अफ़गानिस्तान बुज़कशी का मैदान’, ‘मरजीना का देश इराक’, और ‘राष्ट्र और मुसलमान’ जैसी ढेर सारी कृतियों के माध्यम से इन्होंने सिर्फ़ स्त्री लेखन की ही नहीं, साहित्य लेखन की सरहदें भी तोड़ी हैं।
वर्ष 2008 में अपने उपन्यास 'कुइयांजान' के लिए यूके कथा सम्मान से सम्मानित किया गया. अब तक दस कहानी संकलन, छह उपन्यास, तीन लेख संकलन, इनकी सात पुस्तकों का फारसी में अनुवाद हो चुका है.
जिस उपन्यास ‘पारिजात’ पर उन्हें साहित्य अकादमी सम्मान मिल रहा है, वह भी संस्कृति और परंपरा की बा़ड़ेबंदियों के आरपार जाकर संबंधों के नए सूत्र खोजने की कोशिश के बीच बनता है। रोहित और रूही और कई अन्य किरदारों के बीच बनी यह कहानी नासिरा शर्मा की जानी-पहचानी सांस्कृतिक चिंताओं का सुराग देती है। नासिरा शर्मा को मिल रहा ये सम्मान बस यह बता रहा है कि हिंदी भाषा और साहित्य का दायरा अब पहले से बड़ा हुआ है। वहां धीरे-धीरे ही सही, मगर सवर्ण और पुरुष वर्चस्व टूट रहा है। इसका कुछ वास्ता शायद इस सच्चाई से भी है कि हिंदी की सवर्ण मध्यवर्गीय पट्टी अपने रोटी-रोज़गार के लिए अंग्रेज़ी से जुड़ी है और हिंदी मूलतः उन दलितों-आदिवासियों और पिछड़े वर्गों की भाषा रह गई है जिनके हाथ में पहली बार कागज-कलम आए हैं।
नासिरा की कहानियां पढ़ते हुए ऐसा बिल्कुल नहीं लगता कि कहानी किसी महिला लेखिका द्वारा लिखी जा रही है, बल्कि नासिरा अपनी कहानियों के हर चरित्र को उस चरित्र में बैठकर लिखती हैं।
यह सच है कि अमूमन पूरा हिंदी साहित्य अपने चरित्र में यथास्थितिविरोधी भी है, बाज़ारविरोधी भी और सांस्कृतिक बहुलता के प्रति सदय-संवेदनशील भी, लेकिन नासिरा शर्मा के लेखन में उन सांस्कृतिक तंतुओं को कहीं ज्यादा सघनता से पहचाना जा सकता है जो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं, बल्कि इसके पार की पश्चिम एशियाई पट्टी तक पसरे हुए हैं और जिनकी सभ्यतागत रगड़ के बीच इस पूरे समाज की रचना होती है।