बापू महान थे और रहेंगे, एक लेख से उनकी महानता कम नहीं हो सकती - आशुतोष
दिल्ली सरकार में मंत्री रहे आम आदमी पार्टी के एक नेता के समर्थन में लिखे लेख के बाद विवादों से घिरे पूर्व संपादक और पत्रकार आशुतोष का ताज़ा लेख ... महात्मा गाँधी के बारे में अपने विचारों को स्पष्ट करने की कोशिश
पिछले हफ्ते मेरे लिखे एक कॉलम से देश-भर में बवाल मच गया। कॉलम पर खूब बहस हुई, वाद-विवाद हुआ। समाज के हर क्षेत्र, हर वर्ग से जुड़े लोगों ने इस बहस में हिस्सा लिया। सबकी अपनी-अपनी दलीलें थीं, हर किसी की अपनी राय थी। कुछ लोगों का कहना था कि मैं दबंग बन गया हूँ, तो कुछ लोगों की नजर में मैं बेवकूफ था। आलम ये था कि कुछ लोगों ने तो मेरे राजनीतिक जीवन के अंत की भविष्यवाणी तक कर दी थी। मुझे कई लोगों से नफरत-भरी ई-मेल मिलीं। मेरा व्हट्सऐप अकाउंट भी लोगों की प्रतिक्रियाओं से भर गया था, कई सराहना कर रहे थे तो कई निंदा। इस लेख पर टीवी चैनलों पर भी खूब बहस हुई, अखबारों में संपादकीय भी लिखे गए। वरिष्ठ पत्रकारों ने इसी लेख को आधार बनाकर अखबारों में शीर्ष क्रम में लगने वाले लेख लिखे। इन सबके बीच मैं चुप रहा।
मेरा लेख राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी के बारे में नहीं था। हम भारतीयों को आजादी की हवा में सांस लेने में सक्षम बनाने वाली इस महान आत्मा का उद्धरण मेरे लेख में किया गया था। मेरे कई आलोचकों का कहना और मानना था कि मैं अनुभवहीन हूं, इतना काबिल नहीं हूँ कि उनके बारे में कुछ लिख सकूं और मेरा लेख इस महान व्यक्ति का अपमान है।
भारतवर्ष में जब लोग उनके बारे में जानते भी नहीं करते थे, उनके बारे में बात भी नहीं करते थे तब भारत के एक लाड़ले सपूत ने कहा था, ‘‘यह मेरे जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य है कि मैं श्रीमान गांधी को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं और मैं आपसे कह सकता हूं कि उनके जैसी शुद्ध, महान और साहसी आत्मा इस धरती पर नहीं आई है...... वे इंसानों के इंसान, नायकों के नायक, देशभक्तों के देशभक्त हैं और हम यह कह सकते हैं कि वर्तमान समय में भारतीय मानवता अपने सबसे उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है.’’ और ऐसा कहने वाले और कोई नहीं बल्कि भारत की एक और महान आत्मा गोपाल कृष्ण गोखले थे।
कई लोगों की नजर में मेरा लेख निंदा से भरा था, उसके ज़रिये दूसरों पर उंगलियाँ उठायी गयी थीं। क्या वास्तव में ऐसा था? इस बारे में मैं किसी और दिन चर्चा करूंगा। लेकिन अगर मैंने अपने जीवन में किसी व्यक्ति की प्रशंसा और सराहना की है तो वह हैं महात्मा गाँधी। हालांकि मैं उनका 'अँधा-भक्त' नहीं हूं लेकिन मैं पूरी ईमानदारी के साथ कहता हूँ कि अगर वास्तव में भारतीयों को अंग्रेज-राज से मुक्त करवाने का श्रेय अगर किसी को मिलना चाहिये तो वह ‘बापू’ हैं। अगर किसी एक व्यक्ति ने भारतीय सामूहिक चेतना को जागृत किया है तो वे महात्मा गांधी हैं, और उन्होंने ये काम बिल्कुल अनोखे अंदाज में किया। जहाँ ज्यादातर लोग हिंसा का रास्ता चुन रहे थे, हिंसा को लेकर प्रयोग हो रहे थे वहीं बापू ने एक बिल्कुल ही अलग रास्ता चुना, शांति को अपनाया। उन्होंने अपनी ज़िंदगी दांव पर लगाकर अहिंसा के मार्ग को चुना था, गांधीजी ने न सिर्फ अहिंसा अपनायी बल्कि दुनिया-भर में अहिंसा का प्रचार किया।
वर्तमान पीढ़ी को तो शायद इस बात का पता भी न हो कि एक समय वे भी हिंसा के समर्थक थे। उन्होंने स्वयं कहा है, ‘‘जब मैं इंग्लैंड में था तब मैं हिंसा का समर्थक था। उस समय मुझे अहिंसा में बिल्कुल भी विश्वास नहीं था।’’ लेकिन मशहूर रूसी लेखक लियो टाल्सटाय को पढ़ने के बाद मोहनदास करमचंद गाँधी का व्यक्तित्व बिल्कुल बदल गया। इस बात में दो राय नहीं कि गांधी बिल्कुल स्पष्टवादी थे। उन्होंने 1942 में लिखा, ‘‘जीवन के सभी क्षेत्रों में हिंसा और झूठ के स्थान पर अहिंसा और सच्चाई का प्रसार करने का विचार 1906 में मेरे मन में आया। विचार था अहिंसा और सच्चाई को ही जीवन का ध्येय बनाने का। ’’
हिंसा आकर्षित करती है, वो सनसनीखेज भी है और यादों में बस जाने की ताकत रखती है। इतिहास की किताबों में हिंसा से भरी कई घटनाओं का वर्णन है। हिंसा से अपनी शूरता का परिचय देने वाले कई नायकों की कई सारी कहानियों भी इतिहास में दर्ज हैं। इतिहास की किताबों में कई ऐसे प्रसंग मिलेंगे जहाँ हिंसा ने दुनिया की दशा-दिशा बदल दी। 1917 में हुई रूसी क्रांति को उस समय ‘नवीनतम विकास’ कहा गया। यह वह समय था जब मार्क्सवाद-साम्यवाद पूरी दुनिया में अपनी पैठ बना रहा था और इसी विचारधारा ने कई बेहतरीन नेताओं को जन्म दिया। मार्क्सवाद सर्वहारा के नाम पर श्रमिक वर्ग, वर्गहीन समाज के निर्माण के लिये, लोगों को पूंजीवाद की गुलामी और वर्ग-संघर्ष से उबारने के लिये हिंसा का समर्थन करते हुए उसे सही ठहराता था। लेनिन ने हिंसा से ही ज़ार के शासन को ख़त्म किया था। लेकिन हिंसा से कामयाबी के ऐसे उदाहरणों के जाल में फंसने वाले साधारण इंसान नहीं थे गाँधी।
उन्हें इस बात का पूरा विश्वास था कि अहिंसा का उनका रास्ता यानि ‘सत्याग्रह’ अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों की लड़ाई के लिये आशा की इकलौती किरण है। जब पूरा देश मदनलाल ढींगरा द्वारा सर कर्जन विली की हत्या को सही करार देने में लगा हुआ था तब भी गांधी नरम पड़ने के कोई संकेत नहीं दिखा रहे थे। तब भी उनकी सोच स्पष्ट थी और नजरिया साफ़ था। वे किसी भी प्रकार की हिंसा के खिलाफ थे।उन्होंने कहा था , ‘‘हत्यारों के राज में भारतवर्ष कुछ भी हासिल नहीं कर सकता – राज चाहे कालों का हो या गोरों का। ऐसे राज में भारत सिर्फ बर्बाद और उजड़ जाएगा।’’
गांधी के पोते राजमोहन गांधी ने अपनी किताब ‘मोहनदास’ में लिखा है, ‘‘उनके (सावरकर) द्वारा बाद में गांधी के प्रति दिखाई गयी घृणा शायद 1909 के समय से पल रही थी जब गांधी ने विली की हत्या के समर्थकों को ढींगरा से अधिक दोषी कहा था।’’ सावरकार को गांधी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर मुक़दमा चलाया गया था लेकिन बाद मे सबूतों के अभाव में उन्हें रिहा करर दिया गया।
गांधी की महानता सिर्फ उपदेशों में ही नहीं है; उनकी महानता उनके आचरण में हैं, उनके द्वारा प्रचारित किये जाने वाले सिद्धांतों की सत्यवादिता में है। उन्होंने कभी किसी ऐसी चीज का प्रचार नहीं किया जिसका अभ्यास और आचरण उन्होंने अपने जीवन में न किया हो और इसी वजह से उनके पूरे परिवार को काफी कुछ झेलना पड़ा, परेशानियों से दो-चार होना पड़ा। उनकी पत्नी कस्तूरबा ने सबसे ज्यादा भुगता, उन्होंने बहुच कुछ सहा। दक्षिण अफ्रीका में प्रवास के समय एक बार सत्याग्रह के दौरान वे गिरफ्तार हुए। और, इसी दौरान कस्तूरबा बीमार पड़ गयीं और उनकी हालत काफी बिगड़ भी गयी। गाँधी को पेरोल लेकर पत्नी के साथ रहने की सलाह दी गई लेकिन उन्होंने ठुकरा दिया, गाँधी सिद्धांतों पर अड़े रहे । उन्होंने एक ऐसा पत्र लिखा जो कोई आज के दौर का कोई भी पुरुष अपनी पत्नी को इस तरह से लिखने की सोच भी नहीं सकता। इसी लेख के बारे में एक किताब में लिखा गया है, ‘‘हालांकि उनका दिल उन्हें कचोट रहा था लेकिन सत्याग्रह ने उन्हें उनके पास जाने से रोका। अगर वे साहस बनाए रखें और पौष्टिक भोजन लें तो वे जल्द ही ठीक हो जाएंगी। लेकिन उनकी बदकिस्मती से सबसे बुरा होना तो बाकी था, उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिये कि जुदाई में जान देना उनकी उपस्थिति मे जान देने से अलग होगा।’’
पुत्र हरिलाल भी गाँधी के व्यवहार और बर्ताव से काफी नाखुश थे। हरिलाल अपने पिता से इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने उनसे संबंध विच्छेद तक कर लिये। वे अपने पिता से न सिर्फ उनकी शिक्षा की उपेक्षा करने को लेकर नाराज थे बल्कि उन्हें पढ़ाई के लिये इंग्लैंड न भेजे जाने को लेकर भी काफी रूठे थे। मैं कहता हूँ कि हर किसी को हरिलाल द्वारा गांधीजी को लिखे गए पत्र को जरूर पढ़ना चाहिये। इस पत्र में एक जगह लिखा है, ‘‘आपने हमें बिल्कुल अनजान बना दिया है।’’ कोई भी आसानी से कह सकता है कि गांधी एक पिता के रूप में असफल रहे, लेकिन सच्चाई यह है कि वे अपने सिद्धांतों और जीवन-मूल्यों से किसी भी किसी भी तरह का समझौता करने को तैयार नहीं थे, यहां तक कि अपने बेटे के साथ भी नहीं। सिद्धांतों को लेकर अगर वे हर किसी के साथ सख्त थे तो उनका बेटा भी कोई अपवाद नहीं था।
समकालीन भारत में जहाँ हर एक राजनेता अपने बच्चों को बढ़ावा देने में लगा हुआ है वहीं गांधीजी अब भी नैतिकता और आदर्श जीवन-मूल्यों की एक शानदार उदाहरण बने हुए हैं। उनके विचार में हर कोई बराबर था और वे सभी के साथ एक जैसा व्यवहार करने में विश्वास रखते थे। उनकी राय में हरिलाल से अधिक छगनलाल इंग्लैंड जाकर कानून की पढ़ाई करने के लिये छात्रवृति के हकदार थे। इसीलिये छगनलाल को प्राथमिकता मिली न कि उनके बेटे को जो बाद में पिता-पुत्र के बीच संबंध विच्छेद का कारण बना।
गांधी महान थे, इसकी एक वजह ये भी है कि वे सरल थे। वे बिल्कुल भी जटिल नहीं थे। उनके विचार बिल्कुल स्पष्ट थे, सब कुछ साफ़-सुथरा था और ऐसा कुछ भी नहीं था जो पर्दे के पीछे रहा हो। उनके लिये सत्यवादिता हर एक व्यक्ति और पूरे समाज के चरित्र की असल परीक्षा थी। लेकिन बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहां सत्यवादिता कहीं पीछे छुट गई है और समझदारी को तिरस्कार के रूप में देखा जाने लगा है। गांधी महान थे और हमेशा रहेंगे। एक लेख या स्तंभ इतिहास में उनके स्थान को कमतर नहीं कर सकता। मैं चाहता हूँ कि उनके जीवन और समयांतर को लेकर और अधिक बहस होनी चाहिए। गाँधी पर और भी ज्यादा शोध-अनुसंधान करने से इतिहास समृद्ध होगा। मैं चाहता हूँ कि इस मुद्दे पर बहस जारी रहनी चाहिये।