अपनी तरह के विरल सृजनधर्मी 'गंगा प्रसाद विमल'
गंगा प्रसाद विमल देश-दुनिया के एक दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से अब तक समादृत हो चुके हैं, यहां पढ़ें उनके जन्मदिन पर विशेष...
संभवतः बहुतों को ज्ञात न हो, गंगा प्रसाद विमल हिंदी के उन विरले प्रख्यात साहित्यकारों में शुमार हैं, जिनसे दिविक रमेश जैसे देश के शीर्ष कवि-लेखकों तक को दिशा और प्रेरणा मिली है। वह साहित्य की बहुमुखी विधा के विरले सृजनधर्मी हैं। अब तक उनके सात कविता संग्रह, ग्यारह कहानी संग्रह, चार उपन्यास, एक नाटक और आलोचना पर तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
गंगा प्रसाद विमल को हिन्दी साहित्य में 'अकहानी आंदोलन' के जनक के रूप में जाना जाता है।a12bc34de56fgmedium"/>
"कई बार लगता है, मैं ही रह गया हूँ अबीता पृष्ठ, बाकी पृष्ठों पर जम गई है धूल। धूल के बिखरे कणों में रह गए हैं नाम, कई बार लगता है, एक मैं ही रह गया हूँ अपरिचित नाम। इतने परिचय हैं और इतने सम्बंध, इतनी आंखें हैं और इतना फैलाव पर बार-बार लगता है, मैं ही रह गया हूं सिकुड़ा हुआ दिन..."
संभवतः बहुतों को ज्ञात न हो, गंगा प्रसाद विमल हिंदी के उन विरले प्रख्यात साहित्यकारों में शुमार हैं, जिनसे दिविक रमेश जैसे देश के शीर्ष कवि-लेखकों तक को दिशा और प्रेरणा मिली है। वह साहित्य की बहुमुखी विधा के विरले सृजनधर्मी हैं। अब तक उनके सात कविता संग्रह, ग्यारह कहानी संग्रह, चार उपन्यास, एक नाटक और आलोचना पर तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके अलावा उन्होंने अनेक पुस्तकों का संपादन एवं अनुवाद किया है।
गंगा प्रसाद विमल देश-दुनिया के एक दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से अब तक समादृत हो चुके हैं। उन्हें हिन्दी साहित्य में 'अकहानी आंदोलन' के जनक के रूप में जाना जाता है। हिमालय के एक छोटे से कस्बे उत्तरकाशी में जन्में विमल व्यक्तित्व और कृतित्व, दोनो में ग्लेशियर सी शीतलता, सादगी और निर्मलता का विस्तार हैं। उनमें हिमनदों की तासीर तो निर्झरों की प्रवाहमानता है। प्रकृतिक निश्छलता इनके सृजन का केंद्रीय स्वभाव है। वह अपनी रचनाओं में हिमनदों और वनों के विनाश के विरुद्ध शब्द-स्वर मुखर करते है।
प्रकृति से एकात्म होते हुए वह एक-एक तरु के आचरण को साफ-साफ पढ़ लेते हैं, उसके वर्तमान और इतिहास, दोनों पक्षों को खंगालते हुए-
"सच है एक पेड़, जब तक वह फल देता है, तब तक सच है, जब यह दे नहीं सकता, न पत्ते, न छाया, तब खाल सिकुड़ने लगती है उसकी और फिर एक दिन खत्म हो जाता है वह, इतिहास बन जाता है, और गाथा, और सच से झूठ में बदल जाता है चुपचाप।"
वह अपने शब्दों में 'स्वयं' कुछ इस तरह व्यक्त होते हैं,
"कई बार लगता है, मैं ही रह गया हूँ अबीता पृष्ठ, बाकी पृष्ठों पर जम गई है धूल। धूल के बिखरे कणों में रह गए हैं नाम, कई बार लगता है, एक मैं ही रह गया हूँ अपरिचित नाम। इतने परिचय हैं और इतने सम्बंध, इतनी आंखें हैं और इतना फैलाव पर बार-बार लगता है, मैं ही रह गया हूं सिकुड़ा हुआ दिन।"
वह पूछते हैं, कि कौन कहां रहता है, घर मुझमें रहता है या मैं घर में! घर में घुसता हूँ तो सिकुड़ जाता है, कुर्सी या पलंग के एक कोने में। घर मेरी दृष्टि में, स्मृति में तब कहीं नहीं रहता। वह रहता है मुझमें, मेरे अहंकार में।
गंगा प्रसाद विमल का मानना है, कि हमारे समय में स्त्री विमर्श सर्वाधिक प्रासंगिक और जरूरी हो गया है। हमे अपने यहां की स्त्री को पश्चिम से भिन्न दृष्टि में लेना होगा। पश्चिम की स्त्री-विमुक्ति की धारणाओं का सीधा संबंध अतिभोग और भौतिक समृद्धि के चरम सीमांत हैं, जबकि हमारे यहां गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा, अन्याय धर्म, परम्परा और कुलीनता की आड़ में मौजूद स्त्री विरोधी खेल चलता है। स्त्री के प्रति भारतीय दृष्टि पाखण्ड भरी है। उसका शोषण पशुवत है। स्त्रियों के साथ अत्याचार की ताजा रपटें बताती हैं, कि उन पर जातिवादी आड़ में घृणित अत्याचार हो रहे हैं। कारगर उपाय है, आर्थिक समानता परन्तु सामाजिक स्तर पर इस तरह की कोई तैयारी भारतीय समाज में नहीं दिखायी देती है। इस अंधी गली की अंतिम दीवार केवल यह प्रदर्शित करती है कि आगे कोई रास्ता नहीं है।