गहन अंधकार में टिमटिमाता एक दिया: इला भट्ट
इला भट्ट के द्वारा 1972 में स्थापित ‘सेवा’ यानी, सेल्फ इंप्लॉएड विमन एसोसिएशन एक ज़बरदस्त क्रांति से कम नहीं थी.
सैंकड़ों श्रमजीवी स्त्रियों को गरिमा और गरमाहट देने वाली इला भट्ट की देह, पंचतत्वों में विलीन हो गई. माटी की यह काया आखिर कितना साथ देती, उसे तो एक दिन जाना ही था, चली गई. लेकिन यह छोटी सी अकिंचन मानुष काया इस विराट पृथ्वी पर क्या-क्या कर पाई उसे देखना, जानना और उसका स्मरण हमारे लिए ज़रूरी है.
दुनिया की चकाचौंध में कई तथ्य ऐन हमारी आँखों के सामने होते हुए भी अदृश्य बने रहते हैं. मसलन, यह तथ्य कि हमारे देश में सरकारी और निजी दोनों मिलाकर कुल 7% नौकरियाँ हैं. बाक़ी सारी आबादी ख़ुद काम करती हैं. स्त्रियों के मामले में ये आँकड़े और भी भयानक रूप ले लेते हैं— पूरे देश में सिर्फ़ 6% स्त्रियाँ ही नौकरी करती हैं.
पर यक़ीन मानिए बाक़ी 94% प्रतिशत स्त्रियाँ हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठी हैं. उनमें से अधिकांश किसी न किसी स्वरोज़गार से जुड़ी हैं. इन असंख्य असंगठित कामगार स्त्रियों की गिनती रखने वाला दुर्भाग्य से इस देश में कोई रजिस्टर नहीं है. हमारे देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ स्वरोज़गार, यानी सैंकड़ों लोग जो ख़ुद अपना छोटा-मोटा कारोबार, कुटीर उद्योग, मज़दूरी या खेती करते हैं, वे लोग हैं, न कि चंद क़ार्पोरेट घराने हैं.
इला भट्ट के द्वारा 1972 में स्थापित ‘सेवा’– यानी, सेल्फ इंप्लॉएड विमन एसोसिएशन एक ज़बरदस्त क्रांति से कम नहीं थी. कपड़ा मिलों से चिंदी बटोरने वाली 7 स्त्री कामगारों के साथ शुरू किए गए इस महिला व्यापार संघ की आज देश भर में 22,00000 से अधिक सदस्य बहनें हैं.
भारत के पहले मज़दूर संगठन– ‘कपड़ा कामगार संघ’ के महिला प्रकोष्ठ के लिए 1968 से काम करते हुए इला बहन और अन्य स्त्रियों ने पाया कि मज़दूर संगठन के भीतर भी स्त्रियों की परेशानियों पर बात नहीं हो पाती है. संगठन हड़ताल कर रहा हो तब भी घर का चूल्हा तो किसी तरह जलाना होता है, बच्चों-बूढ़ों को खिलाना होता है. इसके लिए स्त्रियों को कचरा बीनने, बोझा ढोने से लगाकर कोई भी काम बहुत कम दाम पर करने पड़ते और कई बार बहुत अधिक ब्याज पर छोटे छोटे उधार भी लेने पड़ते.
इसी कारण से सात स्त्रियों ने मिलकर ‘सेवा’ की स्थापना की. 1974 में इन्हीं कचरा बीनने, सब्ज़ी बेचने वाली स्त्रियों के साथ इला बहन ने ‘ सेवा को-ओपरेटिव बैंक’ बनाया. यह बैंक उन तमाम अनपढ़ महिलाओं को स्वरोज़गार दिलाने के लिए पूँजी भी देता है और उनकी हर दिन की पाई-पाई पूँजी को सहेजता भी है. यदि आप अहमदाबाद जायें तो इस पूरी तरह से स्त्रियों के द्वारा, स्त्रियों के लिए चलने वाले बैंक में जाकर अवश्य देखिए– कि एक ‘अनपढ़’, ‘ग़रीब’, ‘कामगार’ स्त्री भी कैसे गरिमा और आत्मविश्वास की हक़दार होती है और जो कि उसे मिल भी सकता है.
यहाँ जब वे अपनी दिन की कमाई की रेज़गारी गिन-गिन के जमा करती हैं या अपने ही बचत खाते से चंद रुपय निकालकर ले जाती हैं तो उनके चहरे पर जो भाव होता है, वह मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि आपने कभी नहीं देखा होगा. जब इस बैंक को रजिस्टर करने की बात आई, तब अधिकारियों ने इला बहन से कहा था कि यह बैंक चल ही नहीं सकता, इसका डूबना और संकट में आना तय है क्योंकि ये स्त्रियाँ कभी भी अपने लोन नहीं पटा पाएँगी.
आज इस बैंक के इतिहास में एक भी डिफ़ॉल्टर नहीं है और यह बैंक कभी घाटे में नहीं गया. अब तो सेवा देश के सैंकड़ों गाँवों में घर घर जा कर स्त्रियों के लिए इस तरह की सुविधा मुहैया कराती है.
1979 में इला भट्ट ने दुनिया की कुछ अन्य स्त्रियों के साथ मिल कर WWB यानी वीमेन वर्ल्ड बैंकिंग का नेटवर्क बनाया क्योंकि उन्होंने पाया कि दुनिया के अधिकांश हिस्सों में अनपढ़, ग़रीब, कामगार स्त्रियों के हालात एक जैसे ही हैं. यह संस्था भी इसी तरह की छोटी-छोटी वित्तीय सहायता देने के उपाय करती है. इला बहन 84-88 तक इसकी प्रेसिडेंट रहीं.
सेवा में काम करने वाली सदस्य स्त्रियाँ सब्ज़ी का ठेला भी लगाती हैं और ट्रेनिंग पाकर कैमरा भी चलाती हैं, रेडियो स्टेशन भी चलाती हैं. सेवा के साथ जुड़कर वे जान पाईं कि वे कितना कुछ करना जानती हैं या सीख सकती हैं. जब मोबाइल फ़ोन नया-नया आया था तब इन स्त्रियों के साथ बात करके ही इला बहन ने जाना कि यह इन स्त्रियों के लिए कितना उपयोगी है क्योंकि ये और इनके घर के सारे सदस्य तो सुबह से शाम तक सड़कों पर, इधर-उधर यानी सचमुच मोबाइल रहते हैं और एक दूसरे की ख़बर नहीं रख पाते. सेवा की सदस्य स्त्रियों ने उस वर्ष बोनस के बतौर मोबाइल फ़ोन ही लिए और चूँकि वे इसे अपनी थैली में लेकर चलती थीं इसलिए इसका नाम हुआ– थैली फ़ोन.
जब अहमदाबाद शहर के मानिक चौक में वहाँ सब्ज़ी के टोकरे ले कर बैठने वाली स्त्रियों को हटाकर मॉल बनाने की बात आई, तब उन स्त्रियों के साथ बात करके सेवा ने अधिकारियों से उस मॉल में उन सब्ज़ी बेचने वाली स्त्रयों के लिए भी जगह की भी मांग की थी और कहा कि उसका नाम ‘माणिक चौक’ ही रखा जाए. यह मॉल अंततः नहीं बना, लेकिन माणिक चौक में इन स्त्रियों की ‘ दो टोकरियों’ की बाक़ायदा आवंटित जगह आज भी सुरक्षित है.
इला बहन और उनकी बनाई ‘सेवा’ (SEWA) संस्था को ज़ाहिर है उनके ऐसे अनूठे कामों के लिए देश और दुनिया के तमाम पुरस्कार मिले हैं, उनकी सूची आप ख़ुद देख सकते हैं. इसलिए उसे यहां नहीं लिख रही हूँ.
हाँ, इला बहन की लिखी कुछ किताबों का ज़िक्र करना चाहती हूँ, जिसे पढ़ना हर सम्वेदनशील, जागरूक व्यक्ति के जीवन में एक अनुभव जोड़ेगा. ‘We are poor but so many’ नामक किताब जो ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से छपी थी और जिसका हिंदी में अनुवाद ‘लड़ेंगे भी, रचेंगे भी’ नाम से वाग्देवी प्रकाशन से आया था, शहर में मज़दूरी करने, कचरा बीनने वाली स्त्री की एक आत्म कथा है. इसे पढ़कर न सिर्फ़ उसकी व्यथा का पता चलता है पर उसकी अदम्य जिजीविषा, साहस और गरिमापूर्ण जीवन जीने की आकांक्षा और उसके लिए लड़ने की तैयारी का भी पता चलता है. उसके हुनरमंद हाथों और दिमाग़ की बानगी भी मिलती है. और इला बहन की भाषा भी ऐसी है कि जिसे पढ़कर बहुतों को अनुपम मिश्र के लिखे की याद आएगी.
‘अनुबंध’ नाम से अंग्रेज़ी और हिंदी में उपलब्ध इनकी एक अन्य क़िताब जो ‘ नवजीवन ट्रस्ट’, अहमदाबाद से छपी है, एक तरह से गांधी जी के स्वावलंबी गाँव के विचार से प्रेरित होकर किए गए शोध और उस पर आधारित है. इस किताब में वे सौ मील के स्वावलंबी दायरों की बात करती हैं. और फ़िर ये दायरे आपस में एक दूसरे का पड़ोस रचते हुए, समुद्र में उठती तरंगों की तरह दुनिया भर में फैलते जाते हैं. इस पुस्तक से यह बात सामने आती है कि हमारा अपने आसपास से एक अटूट रिश्ता है. एक ऐसा ‘अनुबंध’ कि जिसके चलते, इस ताने-बाने के किसी भी हिस्से का नुक़सान हम सबके लिए नुक़सान का सबब बनता है. इस ताने-बाने के निचले से निचले और ग़ैर मामूली से ग़ैर मामूली हिस्से की सेहत, हमारी सेहत में इज़ाफ़ा करती है.
इसके अलावा स्त्री शक्ति पर केंद्रित ‘हम सविता’ और ‘लॉरी युद्ध’ नाम का एक बेहद दिलचस्प नाटक भी है, जो छोटे सब्ज़ी वालों और बाज़ार के बड़े व्यापारियों की लॉरीयों के बीच हुए काल्पनिक युद्ध पर आधारित है और जिसे ‘अनसूया’, भोपाल ने प्रकाशित किया है. सेवा संस्था अपने कामों से जुड़ा एक अख़बार ‘अनसूया’ नाम से गुजराती और हिंदी में वर्षों से निकाल रही है. यह श्रमजीवी बहनों का अपनी तरह का अनूठा पाक्षिक मुखपत्र है.
1996 में इला भट्ट ने अपनी बनाई संस्था के तमाम विविध अंगों के प्रमुख पदों से सन्यास ले लिया था और बागडोर नए हाथों में सौंप दी थी. अपने जीवन काल में ही उन्होंने कई मज़बूत हाथों को इन संस्थाओं को संभालते, सँवारते देख लिया था और आश्वस्त हो चुकी थीं कि कुल जमा 7 स्त्रियों द्वारा बनाए गए इस संगठन का दायरा बढ़ता ही चला जाएगा, चाहे वे दैहिक रूप से रहें या न रहें. ऐसा हमारे देश में बहुत कम संस्थाओं के साथ संभव हुआ है. प्रायः अच्छी संस्थाएँ अपने संस्थापकों के जाने के साथ दम तोड़ देती हैं.
अपने काम से सैंकड़ों स्त्रियों के जीवन को छूने, उनके जीवन में उजास लाने और उन्हें मानवीय गरिमा दिलाने वाली इला भट्ट का काम, उनकी स्मृति सदा दिये सी टिमटिमाती रहेगी.
Edited by Manisha Pandey