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जी कर बच निकलती महिलाएं: मृणाल वल्लरी

सोशल मीडिया के उभार ने स्त्री के लिए सत्ता केंद्रों और मठों के वर्चस्व को ढहा कर, अभिव्यक्ति के नए आसमान खोल दिए हैं।

जी कर बच निकलती महिलाएं: मृणाल वल्लरी

Wednesday March 08, 2017 , 4 min Read

"किसी भी तकनीक या नए संचार माध्यम की स्त्री के संदर्भ में व्याख्या करने के लिए यह देखना अहम है, कि उसके जरिए स्त्री बनाम पुरुष या समाज में मौजूद शक्ति-संबंध में किस तरह का बदलाव आया है।"

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"अभिव्यक्ति के मंचों की शक्ल में सोशल मीडिया के उभार ने एक ऐसा स्वतंत्र मंच खड़ा किया है, जिस पर अब तक हाशिये पर छोड़ दिए गए तबके थोड़ी सांस लेने वाली जगह पा रहे हैं। इनमें भी खासतौर पर स्त्री अपने लिए एक ऐसा स्पेस पा रही है, जहां वह खुद को अपनी तरह से अभिव्यक्त कर पा रही है।

सोशल मीडिया के मुखर होने से पहले की ही यह बात है, यदि स्त्री कुछ लिखती थी या अपने विचारों-भावनाओं को अभिव्यक्त करती थी तो उसे जगह मुहैया कराना कुछ महंथों की 'कृपा' पर निर्भर था और सोशल मीडिया ने उस निर्भरता को पूरी तरह से खतम कर दिया।

अब सोशल मीडिया का मंच स्त्री को अपनी जगह देता है, जहां वह खुद यह तय करती है कि वह अपनी तस्वीर साझा करे, अपनी लिखी चार पंक्तियों की कोई कविता, कोई विचार सबके सामने रख सके, खुद को अभिव्यक्त कर सके। इस तरह उसने यह जाना है, कि एक तंग और बंद समाज में एक स्त्री का बोलना या मैदान में सामने आना कितनी चुनौतियों से भरा हो सकता है। इस वृहत्तर दायरे में अपने सवालों से टकराने, दूसरों से जूझते हुए स्त्री को चुपचाप एक अहम हासिल यह हुआ, कि अपने विरोध और समर्थन के बीच उसके सशक्तीकरण का नया रास्ता खुला।

"स्त्रियों के तय किए गए पारंपरिक दायरे जब टूटते हैं तो सामाजिक संबंधों का विस्तार होता है और उसके अच्छे-बुरे अनुभव स्त्री को मजबूत ही बनाते हैं।"

दरअसल, सदियों तक मानसिक, सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक गुलामी झेल चुकी और काफी हद तक अब भी झेल रही स्त्रियों के संदर्भ में प्रतिरोध का निकला स्त्री स्वर ही उनके सशक्तीकरण का पैमाना है। यह देखने की जरूरत है कि वर्चस्ववादी समाज में अभिव्यक्ति के औजार से कौन मजबूत और कौन कमजोर हो रहा है। जहां सामाजिक वर्चस्व के केंद्रों और मठों पर पुरुषों का नियंत्रण रहा, वहां शासित तबके के रूप में स्त्रियों को अपनी जगह बनाने में तमाम जद्दोजहद करनी पड़ी। स्त्री की बात अगर समाज के एक हिस्से तक पहुंच पाती थी, तो वह भी सत्ता केंद्र के रूप में पुरुषों की मेहरबानी का नतीजा थी। लेकिन आज सोशल मीडिया के उभार ने उन सत्ता केंद्रों और मठों के वर्चस्व को ढाह दिया है और अभिव्यक्ति के नए आसमान खुल गए हैं।

"स्त्री सोचती है, लिखती है। वह अपना संपादक खुद है और उसके असर को लेकर बेफिक्र है। सच यह है, कि अब तक दहलीज में बंधी स्त्री ने चारदिवारी के भीतर ही दुनिया का आसमान उतार लिया है।"

यहां स्त्री के सपने हैं, स्त्री की नजर है, स्त्री के हिसाब से है और स्त्री के खिलाफ एक जड़ता की व्यवस्था के खिलाफ स्त्री का प्रतिरोध है, स्त्री के ऊंचे होते स्वर हैं। स्त्री सोचती है, लिखती है। वह अपना संपादक खुद है और उसके असर को लेकर बेफिक्र है। सच यह है कि अब तक दहलीज में बंधी स्त्री ने चारदिवारी के भीतर ही दुनिया का आसमान उतार लिया है। सोशल मीडिया ने उसे यह आसमान दिया है। जाहिर है, इसके बाद दहलीज और चारदिवारी में इतनी ताकत नहीं बच जाती कि वह अपने 'कैदियों' को रोक सके।

अब स्त्री के सामने घर, परिवार और मोहल्ले से आगे एक बहुत बड़ा संसार का दरवाजा खुल गया है। अब वह सोशल मीडिया पर केवल अपनी तस्वीरें और मीठी शिकायतें दर्ज नहीं करती, बल्कि किसी बात पर दुख और गुस्सा जताती है और खुशी के पल भी साझा करती है। वे समाज, राजनीति, कानून और अपने अधिकारों पर समांतर स्तर पर जिरह करती हैं... एक दूसरे को हौसला देती हैं... और कई बार किसी नए चलन को कोसती भी हैं। अपनी अभिव्यक्ति को स्वीकार मिलता देख वह इठलाती है और इसे भी सबको साझा करती है।

हिंदी की एक विदुषी स्त्री जब इरीना रतुशिन्सकाया की कविता ‘मैं जिऊंगी और बच निकलूंगी’ शीर्षक से फेसबुक पर साझा करती है तो उसकी दोस्ती की सूची में शामिल कस्बे की कॉलेज जा रही लड़की का दिमाग कौंधता है कि यह जीना और बच निकलना क्या है? सोवियत रूस में राजद्रोह के अपराध में दमन झेल चुकी कवयित्री के बोल... ‘और मैं कहूंगी उस पहली खूबसूरती की बात... कैद में जो देखी मैंने’। 

सोशल मीडिया पर समाज के तहखानों और कैदखानों से निकल कर महिलाओं की जो वृहत्तर आवाज है, वह इक्कीसवीं सदी की बड़ी उपलब्धि है। कह सकते हैं, कि सोशल मीडिया की स्त्री दरअसल जीकर बच निकलने और अब आगे बढ़ने को तैयार खड़ी है।

-मृणाल वल्लरी, पत्रकार