नर्मदापुरम: गेहूं की नहीं बढ़ रही उपज, फर्टिलाइजर के बेतहाशा इस्तेमाल ने बढ़ाई चिंता
मध्य प्रदेश का नर्मदापुरम जिला ऐतिहासिक रूप से गेहूं उत्पादन में आगे रहा है. यहां की मिट्टी और जलवायु गेहूं की उपज के लिए सबसे अनुकूल है, लेकिन पिछले कुछ सालों से यहां पर गेहूं की पैदावार थम गई है. पैदावार बनाए रखने के लिए उर्वरक की मात्रा बढ़ाई जा रही है.
“हमारे गांव की मिट्टी कुछ अलग है. यहां की फसल पूरे जिले में अलग दिखाई देती है. पानी भी भरपूर है और अब तो यहां पर तीन फसलें ली जा रही हैं.” यह बताते राहुल सिंह तोमर का चेहरा गर्व से भर जाता है. अगले सवाल पर उनके माथे पर चिंता की लकीरें उभर आती हैं. “सब कुछ इतना अच्छा होने के बाद भी रैसलपुर में किसानों की फसल औसतन 18 से 20 क्विंटल प्रति एकड़ ही निकली है.” राहुल करीब 20 एकड़ के कास्तकार हैं और इनकी फसल भी 18 क्विंटल प्रति एकड़ रही है. बताते हैं, “इस साल मौसम, हवा, पानी सब कुछ गेहूं की फसल के इतने अनुकूल था कि हमें हर साल से ज्यादा उत्पादन की उम्मीद थी, पर परिणाम उम्मीदों के मुताबिक नहीं रहा.”
राहुल सिंह तोमर रैसलपुर गांव के ही किसान हैं. रैसलपुर के बारे में कहा जाता है कि यहां की मिट्टी काफी उपजाऊ है. हालांकि अब हालात ऐसे नहीं हैं. राहुल जैसे दूसरे किसानों की बंपर उत्पादन की उम्मीदों पर इस साल पानी फिर गया है.
रैसलपुर गांव उस नर्मदा घाटी का हिस्सा है, जिसके बारे में यह प्रसिद्ध है कि यहां की काली मिट्टी बेहद उर्वर है. इसी इलाके के पास सिवनी मालवा की मिट्टी का भी जिक्र दस्तावेजों में मिलता है. अंग्रेज रेली ब्रदर्स का विचार था कि मध्य प्रांत में सिवनी-मालवा की पिसी (गेहूं) सबसे अच्छी किस्म की थी. गेहूं पैदा करना होशंगाबाद के किसानों की विशेषता रही है और यहां की सफेद पिसी को भारी मात्रा में इंग्लैंड निर्यात किया जाता था, जहां इसका उपयोग अमेरिका की अच्छी किस्में मिलाने के लिए किया जाता था. हालांकि अब यहां भी कृषि उत्पाद बढ़ता नहीं दिख रहा है.
इस साल जलवायु भी गेहूं फसल के अनुकूल
ऐसी खासियत वाले जिले में साल 2022 उम्मीद लेकर आया. किसानों को भरोसा था कि इस बार उत्पादन पिछले सारे रिकार्ड तोड़ देगा. कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक स्वदेश दुबे कहते हैं, ”इस साल मौसम गेहूं की फसल के अनुकूल रहा. पहले अच्छी बरसात ने सिंचाई के सारे स्त्रोतों में पर्याप्त पानी भर दिया. फिर नवंबर से शुरू होकर मार्च के तीसरे सप्ताह तक पड़ने वाली सर्दी और इसके बीच मावठे का गिरना पौधों की बढ़वार के लिए सोने पर सुहागा रहा.” इस साल जिले में न ओले गिरे और न ही पाले की कोई खबर.
जब अनाज की नपती हुई तो किसानों के चेहरों का रंग फ़ीका पड़ गया. उत्पादन लगभग उतना ही था, जितना कई सालों से होता रहा है. यानी प्रति हेक्टेयर 45 से 50 क्विंटल. जबकि सात साल पहले भी कृषि विभाग ने ऐसे ही उत्पादन का अनुमान लगाया था. ऐसे में सवाल सामने आता है कि क्या सचमुच गेहूं का उत्पादन उस स्तर पर पहुंच गया है जहां से इसमें और बढ़ोत्तरी संभव नहीं है?
जिले में कृषि की स्थितियों पर बारीक नजर रखने वाले सामाजिक कार्यकर्ता सुरेश दीवान ने मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में निराशा के साथ कहा, “इस जिले का उत्पादन अब अपनी उच्च सीमा को पार कर गया है. इस बार के मौसम ने यह बता दिया है कि अब इससे अधिक उत्पादन की आशा हमें नहीं करनी चाहिए.”
इस बात की तस्दीक के लिए उत्पादन के आंकड़ों पर गौर करना जरूरी हो जाता है. कृषि विभाग से प्राप्त जानकारी के मुताबिक पिछले चार सालों में उत्पादकता 4,800 से 5,000 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर पर ही थमी हुई है. जबकि इस बीच प्रयोग किए जाने वाले उर्वरकों की मात्रा में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है. मध्य प्रदेश के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक पिछले पांच साल में मध्य प्रदेश में उर्वरक की खपत दोगुनी हो गई है, 2015-16 में राज्य में 19.65 मीट्रिक टन खाद का वितरण किया गया था. इस साल यह बढ़कर 39.75 मीट्रिक टन होने का अनुमान है.
राज्य के कृषि आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक 2001 तक प्रति हेक्टेयर 40 किग्रा उर्वरकों का प्रयोग किया जा रहा था, जो 2016 में बढ़कर दोगुना हो गया है. वैसे इस जिले से जुड़ा आंकड़ा अलग से मौजूद नहीं है पर किसानों का आकलन इससे कहीं ज्यादा खपत का है. इसी जिले के हिरनखेड़ा गांव के किसान मनीष गौर के मुताबिक उन्होंने इस साल गेहूं की फसल में प्रति एकड़ 200 किलोग्राम यूरिया और 150 किलोग्राम डीएपी खाद डाला है. इसे जोड़ कर देखा जाए तो प्रति हेक्टेयर 875 किलोग्राम हो रहा है जो तय मानक से बहुत ज्यादा है. मनीष मानते हैं कि यह मिट्टी की सेहत के लिए ठीक नहीं है और अब वह गोबर की खाद के लिए कोशिश कर रहे हैं. पर वह बताते हैं कि गोबर की खाद मिलना भी मुश्किल है क्योंकि अब गांव में पहले जैसे पशु नहीं बचे हैं. मनीष का कहना है कि जो किसान सिकमी (कान्ट्रैक्ट) पर जमीन लेकर उत्पादन ले रहे हैं उन्हें केवल उत्पादन से मतलब रहता है और वे किसान हमसे भी ज्यादा खाद का प्रयोग कर रहे हैं. मनीष बताते हैं कि ऐसा नहीं किया जाए तो उत्पादन में भारी कमी आने की आशंका होगी. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सबसे उपजाऊ जिले की मिट्टी में वह जान नहीं रही है?
आखिर कैसे बेजान हो गई सबसे उपजाऊ मिट्टी
77-साल के सुरेश दीवान ने पूरी उम्र रोहना गांव में गुजारी है. उन्होंने बदलावों को खुद देखा है. सत्तर के दशक में तवा बांध से निकली नहरों की वजह से एक बड़ा क्षेत्र दलदली होने लगा तो ‘मिट्टी बचाओ अभियान’ शुरू हुआ, दीवान भी इस अभियान के मुख्य सदस्य थे. कहते हैं, “इस जिले की मिट्टी जो हजारों साल में अपने सर्वोत्तम रूप में हमें मिली, उसे हरित क्रांति के बाद की नई कृषि पद्धतियों ने महज पचास साल के भीतर बर्बाद कर दिया. यह सब कुछ हम अपनी आंखों के सामने होता देख रहे हैं.”
कश्मीर सिंह उप्पल पंजाब से ताल्लुक रखते हैं. इटारसी महाविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे और सेवानिवृत्त होने के बाद खेती—किसानी पर शोध और लेखन शुरू किया. प्रोफेसर उप्पल कहते हैं, “नर्मदापुरम जिला भी पंजाब की राह पर चल पड़ा है, जहां पर उत्पादन तो भरपूर है, लेकिन मिट्टी भी उतनी ही तेजी से बर्बाद हो रही है. पहले किसी भी तरह की खाद का चलन नहीं था, सत्तर के दशक में गोबर की खाद डाली जाने लगी, फिर रासायनिक खाद आ गई अब हाल यह है अगर खाद नहीं डाली जाए तो कुछ पैदा न हो.”
उप्पल बताते हैं कि तवा बांध से सिंचाई सुविधा हो जाने के बाद नगदी फसलें बढ़ गईं और मिश्रित फसलें कम हो गईं. भले ही किसानों को मिश्रित फसलों का वैज्ञानिक सिद्धांत नहीं पता हो, पर वे इसी का पालन करते थे. आज यह बात जानते हुए भी इसकी अनदेखी की जा रही है और उसका परिणाम भी भुगत रहे हैं. जिला गजेटियर के अनुसार 1972 तक यहां कुल फसलों का 32 प्रतिशत गेहूं का हिस्सा था. कृषि विज्ञान केन्द्र के अनुसार 2017 में खरीफ सीजन का 86 प्रतिशत भाग गेहूं का है.
क्या हो रहा है इसका असर?
इटारसी के पास जमानी गांव के किसान हेमंत दुबे बताते हैं, “हमने देखा है कि अब खेतों की ऊपरी सतह पर एक बारीक सी सफेद परत जम जाती है, सिंचाई के बाद मिट्टी आसानी से घुलती (डिजाल्व) नहीं है, यह उर्वरकों और दवाओं के बेतहाशा उपयोग का असर है.”
जैविक खेती को प्रोत्साहित करने वाले सामाजिक कार्यकर्त्ता राजेश सामले पिछले कई सालों से उत्पादन के आंकड़े जमा करते हैं. वह बताते हैं कि पैदावार थमने का कारण है खेती-किसानी में अपनाई जाने वाली बुरी आदतें (बैड प्रेक्टिसेस) जिनकी सलाह कृषि वैज्ञानिक नहीं देते. राजेश ने ऐसी दस से ज्यादा व्यवहारों की सूची बनाई है जो खेती-किसानी की सेहत के लिए ठीक नहीं है. उनमें सबसे खतरनाक काम है नरवाई में आग लगा देना. आग के कारण जमीन की ऊपरी सतह में पाए जाने वाले सूक्ष्म तत्व नष्ट हो रहे हैं. पहले किसान गर्मियों में खेतों में गहरी जुताई करके खाली छोड़ देते थे, जिससे मिट्टी को ताकत मिलती थी, लेकिन अब उसे थोड़ी भी राहत नहीं है.
सरकार ने इस साल नर्मदापुरम और हरदा जिले में नरवाई जलाने का एक सेटेलाइट सर्वेक्षण किया है, जिसमें जिले में 2700 से ज्यादा खेतों में आग लगने के आंकड़े सामने आए हैं. भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान में साइल फिजिक्स के वैज्ञानिक डॉ नरेन्द्र कुमार लेंका बताते हैं कि मिट्टी को लंबे समय तक उपजाऊ बनाए रखने के लिए जरूरी होगा कि ज्यादा से ज्यादा जैविक खेती पर जोर दिया जाए. खेतों की नरवाई में आग मिट्टी को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा रही है, इस पर नियंत्रण करना होगा.
मिट्टी सुधारने की योजनाओं का हाल
मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने और उत्पादन क्षमता को बनाये रखने के लिए भारत सरकार ने 2015 में मृदा स्वास्थ्य कार्ड का एक कार्यक्रम की शुरुआत की. इसके तहत किसानों को हर दो साल में मृदा स्वास्थ्य कार्ड जारी किया जाना होता है ताकि किसानों को मिट्टी की गुणवत्ता की जानकारी मिल सके. सरकार का कहना है, “मिट्टी की जांच करने से खेती के खर्च में कमी आती है, क्योंकि जांच के बाद सही मात्रा में उर्वरक दिए जाते हैं. इस तरह उपज के बढ़ने से किसानों की आय में भी इजाफा होता है और बेहतर खेती संभव हो पाती है. इस कार्ड में मिट्टी की पोषण स्थिति और उसके उपजाऊपन की जानकारी सहित उर्वरक तथा अन्य पोषक तत्वों के बारे में सूचनाएं मौजूद होती हैं.” इसके अतिरिक्त इससे यह भी पता चलता है कि मिट्टी में सॉइल ऑर्गैनिक कार्बन की मात्रा कितनी है. रासायनिक खाद से नाइट्रोजन और फास्फोरस को अलग कर फसल के लिए उपलब्ध कराने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. हालांकि नर्मदापुरम के इस क्षेत्र में यह योजना भी खस्ता हाल में है.
इसी जिले में कृषि शोध के लिए 1903 में जवाहर लाल नेहरू जोनल कृषि एवं अनुसंधान प्रक्षेत्र स्थापित किया गया था. इस केंद्र ने गेहूं की कई नई किस्मों की खोज की. मिट्टी परीक्षण केंद्र भी इसका हिस्सा हैं.
मोंगाबे-हिन्दी ने हाल ही में इस केंद्र का दौरा किया और पाया कि यहां पदस्थ ओपी राजपूत साइल कार्ड बना रहे हैं. उनकी टेबल पर एंट्री किए हुए साइल कार्ड रखे हुए हैं, जिस पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की तस्वीर लगी है. राजपूत हर कार्ड पर दस्तख्त करते जा रहे हैं. उधर लैब में मशीनों पर धूल जमी हुई है, एक भी कर्मचारी वहां नहीं है. राजपूत लैब के बारे में कुछ भी बता पाने में खुद को अक्षम बताकर जिला कार्यालय में संपर्क करने को कहते हैं. अलबत्ता बाहर एक बोर्ड लगा है जिस पर परीक्षण के आंकड़े लिखे हुए हैं. इसे फरवरी 2021 के बाद से अपडेट नहीं किया गया है. नियमों के मुताबिक मृदा परीक्षण प्रक्रिया नमूना मिलने के तीन सप्ताह के भीतर पूरी की जानी चाहिए.
राजेश सामले बताते हैं कि अब कृषि विभाग के पास अमला नहीं है जो साइल कार्ड जैसी स्कीम का ठीक से लागू करवा सके. कर्मचारी लगातार सेवानिवृत हो रहे हैं और नए लोगों की भर्ती नहीं हो रही है, विभाग ने कुछ साल पहले ऐसी योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए हर गांव में कृषि मित्र बनाए थे, लेकिन वह भी दिखाई नहीं देते.
कृषि विभाग मुताबिक मध्य प्रदेश में 2015 से 2017 तक 88,72,377 और 2018 से 2019 तक 89,07,385 मृदा स्वास्थ्य कार्ड जारी किए गए. मप्र में कुल जोतों की संख्या 100,03,135 है. होशंगाबाद जिले में 2017-18 में 83,562 साइल कार्ड जारी किए गए थे.
(यह लेख मुलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: मध्य प्रदेश के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक पिछले पांच साल में मध्य प्रदेश में उर्वरक की खपत दोगुनी हो गई है, 2015-16 में राज्य में 19.65 मीट्रिक टन खाद का वितरण किया गया था. इस साल यह बढ़कर 39.75 मीट्रिक टन होने का अनुमान है. तस्वीर- राकेश कुमार मालवीय