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कई बार गिरकर उठने और छा जाने का नाम है राजू भूपति, सात सितारा नौकरी छोड़ शुरू की 'हैलोकरी'

करोड़ों की नौकरी छोड़कर उद्यमी बने राजू भूपति ... पहली नौकरी की तनख्वाह थी महज़ एक हज़ार रुपये महीना ... पंद्रह साल आईटी में अलग-अलग ओहदों पर की नौकरी ... 3 करोड़ का सालाना वेतन छोड़कर शुरू की "हैलोकरी" ... "हैलोकरी" है दुनिया की पहला इंडियन फास्टफुड होम डिलेवरी चैन कंपनी ... "हैलोकरी" को बनाना चाहते हैं "मैकडॉनल्ड्स" जैसा ग्लोबल ब्रांड 

कई बार गिरकर उठने और छा जाने का नाम है राजू भूपति, सात सितारा नौकरी छोड़ शुरू की 'हैलोकरी'

Wednesday May 11, 2016 , 21 min Read

उनकी ज़िंदगी में इतने उतार-चढ़ाव हैं कि सोचा भी नहीं जा सकता। नाकामियां भी हैं, कुछ छोटी तो कुछ बड़ी। बड़ी इतनी कि कई सारे सुनहरे सपने एक पल में ध्वस्त हो गए। लेकिन, नाकामियों से सबक भी मिले। एक सीख ये भी मिली कि नाकामी का मतलब सिर्फ ये नहीं कि कोशिश नाकामियाब हुई है, उसका एक मतलब ये भी होता है कि कोशिश अभी कामयाब नहीं हो पायी है । नाकामियों ने कितनी ही बार उनका दरवाज़ा खटखटाया और कई बार जीवन में प्रवेश कर किया, लेकिन संघर्ष और कभी न हारने का अटूट भाव दिलोदिमाग में कुछ इस तरह भरा था कि कोशिशें जारी रही। निरन्तर जारी रहीं कोशिशों की वजह से ही नाकामियाँ हारकर लौट गयी। मेहनत रंग लाई, संघर्ष से फायदा भी हुआ। उतार-चढ़ाव, नाकामी-कामयाबी,दुःख-सुख इन सबसे भरी अब तक की ज़िंदगी एक अनोखी कहानी बन गयी।

कहानी जिस शख्सियत की है उनका नाम राजू भूपति है, जो कभी डॉक्टर बनना चाहते थे, बन भी जाते, लेकिन अगर बनते तो शायद फूड-इंडस्ट्री को एक नया और हौसलों से भरपूर उद्यमी नहीं मिलता। राजू भूपति के जीवन में जितनी बड़ी कामयाबियाँ हैं, उतने ही आश्चर्यकचित कर देने वाले पल भी है। मुश्किलों से भरे पल उन्हें ठोक बजाकर देखते हैं, और पूछते हैं कि क्या तुम इस परीक्षा में पास हो जाओगे और वो कुछ ऐसा फैसला लेते हैं कि कामयाबी उनके कदम चूमती है।

ऐपलैब जैसी बड़ी कार्पोरेट कंपनी के असिस्टेंट वाइस-प्रेसिडेंट और सीएससी की आईटीएस डिलेवरी सर्विसेस के चीफ के रूप में काम करने वाले राजू भूपति ने अपनी जिंदगी का असली सफर 1000 रुपये की नौकरी से शुरू किया था। उस समय उन्हें पता नहीं था कि एक दिन उनका वार्षिक वेतन 3 करोड़ रुपये हो जाएगा। लैब असिस्टेंट से शुरू हुआ सफर कंपनी में कर्मचारियों के शीर्ष स्थान के मुकाम पर भी पहुंचा। ज़मीन से आसमान पर पहुँचने की इस कहानी में एक बडा दिलचस्प मोड़ यह है कि राजू भूपति ने इतनी बड़ी नौकरी को भी एक दिन इसलिए ठुकरा दिया क्योंकि उन्हें उद्यमी बनने का अपना बहुत पुराना सपना पूरा करना था। 15 साल के बाद नौकरी से उनका मन उठ गया और उन्होंने अपना उद्यम स्थापित किया। आज वे देश-विदेश में ‘हैलो करी’ के संस्थापक के रूप में जाने जाते हैं।


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राजू भूपति की जीवन-यात्रा आसान नहीं रही है। उन्हें संघर्षों और मायूसियों के एक लंबे दौर से गुज़रना पड़ा। उनकी कहानी शुरू होती है, आंध्रप्रदेश के अमलापुरम से। उनके पिता नरसिम्हा राजू होमियोपेथी डाक्टर थे। उससे अधिक वे समाजसेवी थे और आध्यात्म से लगाव रखने वाले भी। लोगों का मुफ्त इलाज करते थे। उस माहौल में पल-बढ़ रहे बालक राजू भूपति के मन में भी पिता की तरह ही डाक्टर बनने का ख्याल आया।

राजू भूपति ने उन दिनों को याद करते हुए कहा,

"पिताजी पॉपुलर डाक्टर थे। आध्यात्मिक व्यक्ति थे। लोगों से पैसा नहीं लेते थे। हज़ारों मरीज़ों का इलाज उन्होंने किया होगा। मेरे घर में हमेशा मेला लगा होता। रोज़ाना इतने लोग पिताजी के आसपास होते कि पिताजी तक तक मेरा पहुँचना भी मुश्किल था। वो निरंतर विभिन्न गतिविधियों में सक्रिय रहते। मुझे भी लगा कि उन्हीं की तरह बनना चाहिए। उनकी विरासत को अपनाना चाहिए। हालांकि उनकी तरह आध्यात्मिक विचार मैं अपने भीतर बिल्कुल नहीं ला पाता था, लेकिन दिमाग़ में वो सारी चीजें थीं। मैंने भी डॉक्टर बनने का इरादा किया और इन्टर में बाईपीसी (जीव-विज्ञान, भौतिक-विज्ञान और रासायनिक-विज्ञान) से तालीम लेने के लिए कॉलेज में दाखिला लिया। तब तक मेरी कहानी ठीक चल रही थी, लेकिन विज्ञान की पढ़ाई मुश्किल थी मै न पढ़ सकता था न ध्यान दे सकता था। मैं खुद नहीं जानता था कि मैं क्या कर सकता हूँ।"


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दरअसल पिता भी राजू भूपति को डॉक्टर बनाना चाहते थे। भूपति ने मेडिकल कॉलेज में दाखिले के लिए ज़रूरी प्रवेश-परीक्षा "एमसेट" में दाखिल भी हुए, लेकिन रैंक इतना नहीं आया कि उन्हें एमबीबीएस कोर्स में प्रवेश मिल सके। इसे अपनी पहली बड़ी नाकामी बताते हुए राजू भूपति ने कहा,

"जब मेरा दाखिला बीपीसी कोर्स में किया गया तभी मुझे समझ में आ गया कि कोर्स बहुत मुश्किल है। मैं न पढ़-लिख पाता न ही किसी पर अपना ध्यान केंद्रित कर पाता। सातवीं तक तो मैं पढ़ाई-लिखाई में ठीक था। अच्छे नंबर भी लाये। लेकिन बाद में मैं कैसे बदल गया मुझे पता ही नहीं चला। मन बहुत ही अस्थिर हो गया था। आगे-पीछे करते-करते मैंने किसी तरह प्रवेश परीक्षा लिखी। रैंक मेरा पांच अंकों में था, जबकि मेडिकल कॉलेज में सीट के लिए दो अंकों वाला रैंक ज़रूरी था।" 

मेडिकल कॉलेज की प्रवेश परीक्षा में भूपति की नाकामी से पूरा परिवार सकते में आ गया। सभी हैरान और परेशान थे। एमबीबीएस में दाखिला मिलना नामुमकिन था, लेकिन डेंटल और होमियोपेथी के विकल्प खुले थे। चूँकि पिता भी होमियोपेथी के ही डॉक्टर थे, परिवारवालों और शुभचिंतकों ने राजू भूपति को भी होमियोपेथी का डॉक्टर ही बनवाने पर ज़ोर दिया। राजू भूपति के लिए अच्छा कॉलेज ढूंढने की प्रक्रिया शुरू हो गयी। लम्बी-चौड़ी खोज के बाद परिवारवालों को लगा कि भूपति के लिए कर्नाटक के हुबली का होमियोपैथी कॉलेज ही सबसे बढ़िया रहेगा। हुबली के कॉलेज में राजू भूपति की सीट भी पक्की हो गयी। फीस भरकर दाखिला लेने का समय भी आ गया। भूपति राजू कॉलेज पहुंचे और फीस भरने ही वाले थे कि एक अनिश्चित एवं अविश्वसनीय घटना घटी। इस घटना का उल्लेख करते हुए राजू भूपति बताते हैं, 

"हुबली में सब कुछ अच्छा था। कॉलेज का माहौल देखकर मैं पुराने दिन भूलने लगा था। मुझे लगा कि मैं नयी दुनिया का सफर शुरू करने वाला हूँ । मैं सुन्दर सपने देखने लगा - किस तरह मैं लड़कियों के साथ वहां घूमूंगा-फिरूंगा, कैसे मौज-मस्ती करूँगा। कैसे नए दोस्त बनाऊंगा। मेरा अपना अलग कमरा होगा। अपने घर-परिवार से दूर पूरी आज़ादी होगी।" 

उन्होंने आगे कहा,

"मैं अपने चाचा के साथ फीस भरने के लिए हुबली गया था । फीस भरकर गोवा जाने की योजना थी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। मेरे चाचा के दिमाग में क्या चल रहा था, पता नहीं। कॉलेज के गेट के सामने एक पीसीओ एसटीडी बूथ था। चाचा ने कहा कि तुम फीस काउँटर की लाइन में खड़े रहो, मैं फोन करके आता हूँ। मैं कुछ अलग मूड में था। सपनों में खोया था । कुछ देर में वो वापिस आये और चेहरे पर गंभीर भाव के साथ कहा, हमें वापिस जाना चाहिए। तुम्हारे पिताजी कुछ और विकल्प के बारे में सोच रहे हैं। उन्होंने कहा है कि वहाँ लोकल कॉलेज में ही प्रवेश मिल जाएगा। मैंने अपने चाचा से कहा कि मैं यहाँ से नहीं जाऊँगा। जब मुझसे कहा कि मुझे लौटना ही होगा मेरे सपने चकनाचूर हो गए। एक पल में सुन्दर-दुनिया ख़त्म हो गयी। मैंने छह सालों के लिए जो स्क्रीन प्ले बनाया था, वो हवा में कहीं उड़ गया। मैं बहुत दुखी हुआ।" 

राजू भूपति को हुबली की इस घटना से बहुत गहरा सदमा पहुंचा। उनकी ही शब्दों में,"कई मिनटों तक लाइन में खड़ा रहने के बाद मैं काउंटर के बिलकुल करीब पहुँच गया था। कुछ पल में मैं फीस जमा करने वाला था। जब मेरे चाचा ने आकर मुझे फीस न जमा करने और वापस लौट चलने की बात कही तो मेरा सर चकरा गया। मुझे बड़ा सदमा लगा। ऐसे लगा कि मैं एवेरेस्ट की चोटी पर पहुँचने ही वाला था कि किसी ने मुझे ऐसा धक्का दिया कि मैं सीधे नीचे ज़मीन पर आ गिरा।"


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ऐसी कई घटनाएँ नये–नये अजब-गजब मोड़ लेने के लिए राजू भूपति की प्रतीक्षा कर रहीं थीं। तकलीफों और विपरीत परिस्थियों से उन्हें जल्दी छुटकारा मिलने वाला नहीं था। हुबली से हताश और निराश लौटने के बाद उन्हें पता चला कि गुडीवाडा के मेडिकल कालेज में उन्हें दाखिला मिल सकता है। भूपति राजू एनसीसी कैडेट थे। उन्हें बताया गया कि मेडिसन में उन्हें एनसीसी कोटे से प्रवेश मिलने की संभावना बन रही है। वहाँ वेटिंग लिस्ट में उनका पहला नंबर था। भूपति राजू के मन में नयी उम्मीदें जगने लगीं। वे नए सपने देखने लगे। लेकिन इत्तेफाक देखिए कि जिस दिन उनका इन्टरव्यू था, उसी दिन सरकार ने एक आदेश जारी कर एनसीसी कोटा कम कर दिया। फिर वह दरवाज़ा बी बंद हो गया। एकाएक फिर सब कुछ उजड़ गया - सपने, उम्मीदें, संभावनायें।

भूपति राजू फिर वापिस वही पुराने कॉलेज जाकर अपने दोस्तों को अपना मुँह दिखाना नहीं चाहता थे। इसलिए स्थानीय कॉलेज में किसी भी कोर्स में प्रवेश नहीं लिया। उन्होंने फिर से एमसेट लिखा, उसके लिए दूसरे शहर जाकर प्रशिक्षण प्राप्त किया, लेकिन इस बार रैंक 5 डिजिट से बढ़कर 6 डिजिट में चला गया। एक बार फिर मायूसी। मायूसी भी प्रवेश-परीक्षा में रैंक की तरह ही बढ़ी, पाँच डिजिट से छह डिजिट। 

 प्रवेश-परीक्षा में दूसरी लगातार नाकामी के बाद उन्होंने सोचा कि वे अपने शहर वापस नहीं जाएँगे। डॉक्टर बनने के सब ख्वाब चकनाचूर हो चुके थे। चूँकि राजू भूपति ने इंटर में बीपीसी विषय चुने थे, डॉक्टर बनने की सम्भावना ख़त्म होते ही उनके पास ज्यादा विक्लप नहीं थे। बीएससी करना ही उनके सामने मौजूद सबसे अच्छा विकल्प था। उन्होंने आंध्रप्रदेश के काकिनाडा के एक डिग्री कॉलेज में प्रवेश लिया। उन लम्हों को याद करते हुए राजू कहते हैं,

"आज नहीं कह सकता कि मैं डाक्टर होता तो कैसा होता, लेकिन मुझे लगता है कि दिमाग से ही मैं डाक्टर नहीं हूँ। अगर मैं डॉक्टर बन भी जाता तो डिज़ैस्ट्रस डॉक्टर होता। मुझे हमेशा लगा कि मैं कुछ और ही चीज़ के लिए बना हूँ। बचपन से ही मेरा मन ढुलमुल था। मेरी प्रकृति और प्रवृत्ति अलग थी। शायद एक उद्यमी मन में छुपा बैठा था, लेकिन मुझे खुद को पता नहीं था।"

कहते हैं कभी-कभी जिंदगी को उसके अपने रास्ते पर छोड़ देना चाहिए। राजू भूपति ने भी ऐसा ही किया। उन्होंने डिग्री के बाद आर्गेनिक केमिस्ट्री में पीजी करने का निर्णय लिया। हालाँकि उन्हें पता था कि डिग्री के तीनों वर्षों में उन्हें केमिस्ट्री में लगातार तीन साल 35 नंबर ही मिले थे। 35 नंबर परीक्षा पास करने के लिए ज़रूरी थे। 35 से एक नंबर भी कम का मतलब फेल हो जाना था।

पास होने के लिए ज़रूरी न्यूनतम अंक ही ला पाने के बावजूद राजू भूपति ने पीजी के लिए अपना मुख्य विषय आर्गेनिक केमिस्ट्री को ही बनाया। भोपाल के एक कालेज से राजू भूपति ने एमएससी की डिग्री हासिल कर ली।

इसके बाद फिर उनकी ज़िंदगी ने नई राह पकड़ी। राजू बताते हैं,

"कभी-कभी हालात जिधर ले जाना चाहते हैं, उधर जाना चाहिए। मेरे बड़े भाई आईटी क्षेत्र में थे। उनकी सलाह पर मैंने एक महीने आईटी की ट्रेनिंग ली। हालाँकि वह विषय भी मेरे बस का नहीं था, लेकिन मैंने प्रोग्रामिंग सीख ली। उन्हीं दिनों अमेरिका से आये मेरे एक पड़ोसी ने एक कंपनी शुरू की थी। पड़ोसी ने मुझसे एक दिन ये पूछा कि क्या तुम मेरी कंपनी में काम करोगे? ये मेरे लिए नौकरी का पहला प्रस्ताव था। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कोई इस तरह से नौकरी की पेशकश करेगा।"

राजू ने बताया कि भाई की सलाह लेकर उन्होंने नौकरी करने का प्रस्ताव मान लिया। उन्हें लगा कि शायद नौकरी के बहाने ही सही खुशियाँ लौट आएंगी। कमाई भी होगी। आमदनी मिलने से परिवारवालों को भी संतोष होगा।

लेकिन, एक बार फिर उन्हें झटका लगने वाला था। इस बार भी वे इसके लिए तैयार नहीं थे। भूपति राजू ने बताया,"पड़ोसी ने मुझे अपनी कंपनी में लैब असिस्टेंट के तौर पर नियुक्त किया। कंपनी के मालिक ने बताया कि मेरा वेतन 1000 रुपये होगा। मुझे फिर सदमा पहुंचा। उन दिनों मैं 5000 रुपये तो अपनी बाइक के लिए पेट्रोल पर खर्च कर रहा था। मैं जानता था कि एक मज़दूर को भी इससे अधिक रुपये मिलते हैं। मैंने सोचा कि क्या मैं इनता अयोग्य हूँ? लेकिन, मेरे पास कोई विकल्प नहीं था और मैंने वो नौकरी खामोशी से स्वीकार कर ली । मैंने शर्म के मारे अपने माता-पिता को भी इसकी जानकारी नहीं दी। मगर, पहले महीने का वेतन पाकर मुझे ताज्जुब हुआ, मालिक ने मुझे 1500 रुपये देते हुए कहा कि तुमने हमारी उम्मीदों से अधिक कार्य किया है इसीलिए मैं तुम्हें तय रकम से ज्यादा दे रहा हूँ।"

भावुकता से भरी आवाज़ में भूपति राजू ने कहा, "मेरे लिए वह पहला आदमी था, जिसने मेरे काम को सराहा था। मुझमें विश्वास पैदा हुआ कि मैं भी कुछ कर सकता हूँ। मेरे लिए वो दिन बहुत यादगार है। "

पहले ही महीने मिली तारीफ से भूपति राजू का मन आत्मविश्वास से भर गया। उन्होंने वहाँ छह महीने तक खूब मन लगाकर काम किया। इसी बीच उनके सामने कई नए लोग कंपनी में आये, इन नए कर्मचारियों को 9 हज़ार तथा दस हज़ार के वेतन पर लिया गया। राजू को तब भी 1500 रुपये ही मिल रहे थे। उन्हें आश्चर्य इस बात पर हुआ कि पोस्टग्रैजुएट होकर भी उन्हें 1500 और उनके बाद आने वाले कर्मचारियों को 10 हज़ार क्यों दिए जा रहे हैं? बावजूद इसके की वे पोस्ट ग्रेजुएट थे, जबकि नए कर्मचारी सिर्फ ग्रेजुएट।


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राजू सोचते कि आखिर उन युवकों के पास क्या है? सिर्फ इतना की उनके पास बीटेक की डिग्री है, क्या यह डिग्री इतनी महत्वपूर्ण है ? क्या भारत ऐसी जगह है, जहाँ केवल डॉक्टर और इंजीनियरों को ही अच्छी नौकरियाँ मिलेंगी? जो दरमियाँ में हैं उनका क्या होगा? उनके लिए क्या बैंक और सरकारी कार्यालयों में कलर्क की ही नौकरियाँ होंगी?

भूपति राजू को यह स्वीकार नहीं था। उन्होंने फैसला किया कि वे एक साल में उनके बराबर हो जाएँगे। उन्होंने इसे चुनौती की तरह लिया। वे एक साल में ही अपने मिशन में कामयाब भी हो गए , भूपति राजू नए कर्मचारियों से आगे निकल गए । वह उद्यमता की पहली भावना थी, जो उनके मन में जागी थी। मेहनत रंग लाई थी। हौसले फिर से बुलंद हुए थे।

भूपति राजू कहते हैं कि नान टेक्निकल बैकग्राउंड के लोगों को कम ही आंका जाता है । मान लिया जाता है कि आईआईएम और आईआईटी से आये लोग ही बढ़िया काम कर सकते हैं। बिना सोचे कि वे क्या काम करेंगे उन्हें अच्छे पदों पर नियुक्त किया जाता है। जबकि अच्छी योग्यता वाले दूसरे बैकग्राउंड के लोगों को उस नज़र से नहीं देखा जाता।

भूपति राजू 2001 में ऐपलैब जैसी कंपनी में नियुक्त हुए थे। अपनी योग्यता और मेहनत से कामयाबी की सीढ़ियाँ चढ़ते गये। दस साल में उन्होंने मैनेजर से प्रिंसपल कंसल्टेंट और एसिस्टेंट वाइस-प्रेसिडेंट तक का सफर पूरा किया। फिर एक दिन ऐपलैब की सीएससी कंपनी में ही वाइस प्रेसिडेंट बनाये गये। इस सफर में उनके लिए हर लम्हा चुनौतीपूर्ण रहा। विशेषकर दो ऐसी घटनाएँ उनके जीवन में हुईं, जिसे वे कभी नहीं भूलते। एक बार वे अमेरिका में नहीं रहना चाहते थे, इसलिए वापस लौट आये और दूसरी जब वहाँ बसना चाहते थे, तब हालात ने उन्हें वापस भारत आने पर मजबूर किया। राजू बताते हैं," छह-सात साल काम के बाद मैं कंपनी की ओर से अमेरिका चला गया। वहां पहुँचने के बाद मुझे लगा कि यह जगह मेरे लिए नहीं है। मैंने वापिस जाने की ठानी, लेकिन कंपनी को मुझ पर काफी उम्मीदें थीं। सीईओ ने कहा कि आप को अगर वापस जाना है तो कंपनी में आपके लिए कोई जगह नहीं है। मैं अमेरिका में था। पत्नी गर्भवती थी। मेरे पास ज्यादा पैसे भी नहीं थे। मैं तय कर चुका था कि भारत लौटना ही है। मुझे किसी हाल वापिस जाना है। मैं भावनात्मक रूप से फैसला कर चुका था। दूसरे दिन मैं कंपनी छोड़ने के लिए गया, तो सीईओ ने मुझे समझाया कि तुम्हारी पत्नी गर्भवती है, तुम्हारे पास इतने पैसे भी नहीं हैं कि इन हालात में अपने को एडजेस्ट कर सको। दो महीने और काम करो फिर चले जाना।वह मेरे लिए हिम्मत और हौसले की बात थी। मेरे लिए बड़ी मदद थी। कंपनी ने नये ढंग से मेरी मदद की थी और मेरी भी जिम्मेदारी थी कि कंपनी के लिए कुछ करूँ। कंपनी मैंने नहीं छोडी। वापिस यहाँ आकर भी काम करता रहा। मैं पाँच-छह साल के बाद फिर अमेरिका गया। इस बार हालात कुछ यूँ बने कि मैं वहाँ रह जाऊँ। माँ के निधन पर जब मैं हैदराबाद आया तो देखा कि सारे रिश्तेदार अमेरिका में सेटल हो चुके हैं। तो भला मैं क्यों यहाँ रहूँ, मुझे भी अमेरिका में ही रहना चाहिए। यूके गया, कैनडा गया, लेकिन वहाँ बसने का ख्याल नहीं आया। अमेरिका में 500 लोगों को मैनेज कर रहा था। मैंने अमेरिका में एक झील से सामने एक बढ़िया बांग्ला भी ले लिया था। नए बंगले में रहने के लिए इंतज़ाम भी सारे लगभग पूरे हो गए थे। सोफे और सामान ठीक करके मैं घर में लगायी गयी टीवी चेक करने के लिए रिमोट दबा ही रहा था कि सीईओ का फोन आया। वो मुझे फिर भारत बुला रहे थे। मैंने उन्हें अमेरिका में रहने की बात कही, लेकिन उन्होंने जो ऑफर दी उसे मैं इन्कार नहीं कर सका। वह ग्लोबल पोजिशन थी। जहाँ मैं 500 लोगों को मैनेज कर रहा था अब 5000 लोगों का प्रमुख बनना था। 15 दिन में पैकप करके वापस भारत आया।"

राजू भूपति ने उन 12 सालों में 14 बार घर बदला था, लेकिन इस बार एक बड़ी उपलब्धि के लिए, बड़ा काम था। सात सितारा नौकरी थी। कभी पीछे की बैंच पर बैठने वाले लड़के के लिए अब बात करने के लिए असंख्य लोग थे। एक बड़ी पोजिशन थी , जिस पर सारे लोग गर्व करते हों, लेकिन गंतव्य यह भी नहीं था। उनके दिमाग में एक नयी हलचल शुरू हुई... क्या यह सब सही है मेरे लिए? इसके बाद क्या होगा? क्या इसके बाद भी कुछ है?आईटी क्षेत्र में मैं जिस मुकाम पर हूँ उससे आगे कुछ नहीं है। मैंने सोचा कि मैं जो कुछ कर सकता था वो इस फील्ड में कर चुका हूँ। बहुत हो चुका है। आईटी में मुझे अब नहीं रहना है। मैंने नौकरी छोड़ी और फिर संगीत का शौक पूरा करने में लग गया। अपना एक एलबम निकाला। लेकिन, जैसे फिल्मों में होता है, उसी तरह की कहानी मेरी भी थी। करोड़ों की नौकरी छोड़ी तो फिर सडक पर आ गया।

उन दिनों मन में होती उथल-पुथल को सांझा करते हुए भूपति राजू ने बताया, "15 साल तक मैंने बहुत अच्छा काम किया था, लेकिन मैं कौन हूँ मुझे पता नहीं था। इतनी बड़ी नौकरी छोड़ना आसान नहीं था, लेकिन अब मुझे कोई रोकने वाला नहीं था। पत्नी मुझे हर रूप में समझती थी। नौकरी छोड़ने का मुझे एक बार भी अफसोस नहीं था। क्या करना है, मुझे नहीं पता था। मैंने अपने पिता नरसिम्हा राजू पर किताब लिखनी शुरू की। दो महीने में काम पूरा हुआ। मैंने बहुत कम समय उनके साथ गुज़ारा था, लेकिन उनके ज़िंदा रहते मैं जितना नहीं जान पाया उससे बहुत ज्यादा मैं उनके मरने के बाद उन्हें जान पाया। वे एक लाख से अधिक लोगों तक पहुँचे थे। उनकी लिखी किताबें मैंने पढ़ीं, उन्हें नए सिरे से समझा। वाकई उनका व्यक्तित्व जादूई था। वे आध्यात्मिक नेता थे। महान शख्सियत। "

राजू भूपति ने उसके बाद किसी और कंपनी में नौकरी करने का इरादा नहीं किया। लेकिन, एक शुभचिंतक की गुज़ारिश पर कंसल्टेंसी स्वीकार की। इसके बाद राजू भूपति ने अपने बेहद नज़दीकी साथी संदीप के साथ मिलकर फुड-बिजनेस में कदम रखा। उनके अनुसार,शुरू में यह व्यापार आसान लगा। इडली 5 रुपये में बनती है और 50 रुपये में बिकती है। यानी सीधे 45 रुपये का मुनाफा। इसी तरह से मुनाफा कमाने के मकसद ने हमने फुड-बिजनेस शुरू किया। फुड-बिजनेस में भी कुछ बिलकुल नया करने के उद्देश्य से टेकअवे चैन शुरू की। फिर होम डिलेवरी के क्षेत्र में व्यापार खड़ा किया। जिसके बारे में वे दावा करते हैं कि यह दुनिया की पहला इंडियन फास्टफुड होम डिलेवरी चैन है। इस "स्टार्टअप" की शुरुआत के कुछ ही महीनों में फंडिंग शुरू हुई और कारोबार आगे बढ़ता गया। अब वो दुनिया भर में फैलकर ग्लोबल होना चाहते हैं।


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क्या वो खुद खाना बनाना जानते हैं? इस सवाल के जवाब में राजू ने कहा," मैं आमलेट बनाना भी नहीं जानता था। लेकिन, मैंने बड़े फैसले लिये। सात सितारा नौकरी छोड़कर आया था, एक छोटे से गैरेज में ही कारोबार शुरू किया। शून्य से हैदराबाद में शुरू हुई कंपनी कुछ ही दिनों में पहले हैदराबाद और बाद में दक्षिण भारत में नंबर 1 हो गयी। अब हम ग्लोबल कंपनी बनने के रास्ते में आगे बढ़ रहे है। भारतीय ब्रैंड को ग्लोबल बनाने का मकसद शुरू से ही है। लंबी यात्रा है। यह फिल्म नहीं व्यापार है। काफी समय लगेगा। एक दो दिन में बिलियन रुपये बनाने नहीं हैं।इस व्यापार में चुनौतियों के बारे में वे कहते हैं कि यहाँ हर लम्हे, हर पल चुनौती है। 8000 और 9000 रुपये पाने वाले डिलीवरी बॉयज का काम कैसा होगा अंदाज़ा लगाया जा सकता है। वे कभी भी आपका साथ छोड़ सकते हैं। अगर ग्राहकों की बात करें तो कब कौन किस खाने की तारीफ करेगा, और किस खाने को गालियाँ देगा नहीं मालूम। पहाड़ भी हैं और वादियाँ भी। इसलिए व्यापार को सही दिशा देने तथा ग्राहकों की मानसिकता को समझने के लिए टेक्नोलोजी कंपनियोँ का अधिग्रहण किया। कई दूसरी कंपनियों को भी अपनाया।

राजू भूपति के अनुसार, नौकरी करना सबसे आसान काम है । कंपनी के बारे में कोई और फिक्र कर रहा होता है। कर्मचारी के लिए बहुत कुछ पहले से तय होता है। काम करने का समय, छुट्टी के दिन, तनख्वाह सब तय होते है। कर्मचारी भी इन्हीं तय चीज़ों के मुताबिक अपनी ज़िंदगी की प्लानिंग करते हैं। जो कुछ होने वाला है, पहले से पता होता है। लेकिन, सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि अलग-अलग लोगों का नजरिया अलग होता है। कुछ को नौकरी में सुख है तो कुछ को उद्यमी बनने में। किसी को किसी दूसरे के कंपनी के लिए काम करना पसंद है तो कोई अपनी खुद की कंपनी में ही काम करना पसंद करता है। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो बिलकुल अलग, दुनिया में कुछ अनोखा करना चाहते हैं।"

खुद की सोच, अपने लक्ष्य और भविष्य की चुनौतियां के बारे में पूछे गए सवालों के जवाब में भूपति राजू ने कहा," हैलो करी को सीमाओं पार ले जाना मेरा ख्वाब है। हालाँकि कुछ ही वर्षों में कुछ असफलताओं का सामना भी हुआ है। बैंगलूर में बड़ी उम्मीद के साथ 6 आउट लेट शुरू किये। 4 नाकाम हुए। बिना शर्माए हमने कुछ स्टोर बंद कर दिये। क्यों असफल हुए इसका पता चलाया। मुझे लगा कि अपनी पूरी योग्यता का उपयोग करना चाहिए और योग्यता की सही पहचान भी की जानी चाहिए। जब आप दो किलोमीटर नहीं चलते तो मैराथन में नहीं जाना चाहिए। पिछले साल दिसंबर में फिर से हम जीरों पर आ गये थे। कई कंपनियाँ नीचे जा रही थीं। आर्डर तो मिल रहे थे, लेकिन रियल बिजनेस नहीं हो रहा था। परीस्थितियों के अनुसार सुधार शुरू हुआ और हम फिर वापस अच्छी स्थिति में आ गये।"

भूपति राजू अपनी सफलता के रहस्य को एक खास शब्द देते हैं... फोकस.. वे कहते हैं, लक्ष्य हासिल करना है तो हर काम पूरा ध्यान लगाकर करने की ज़रुरत होती है। एक दो महीने काम करके नाकामी को स्वीकार नहीं करना चाहिए। पूरे विश्वास के साथ आगे बढ़ना ज़रूरी है। राजू एक घटना का उल्लेख करते हुए कहते हैं,

"मैं तेलुगु मीडियम का था, नौकरी के शुरुआती दिनों में लोगों के साथ अंग्रेज़ी में कम्युनिकेट नहीं कर सकता था। उसी दौरान दो अमेरिकन आये थे। मुझे उन्हें कंपनी के बारे में बताना था, लेकिन बहुत कोशिश के बावजूद मैं उन्हें अपनी बात नहीं समझा सका। मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई। वे लोग मेरी बातें नहीं समझ पाये। मैंने अपनी कमज़ोरी को महसूस किया, उस समय मैंने अंग्रेज़ी में बातचीत करने की कोई तैयारी नहीं की थी। फिर छह महीने में मैंने अपने को तैयार किया और कंपनी में अपनी अहमियत जतायी। आगे चलकर मैंने तीन हज़ार से ज्यादा लोगों के सामने अंग्रेजी में भाषण दिया और सभी ने मेरी तारीफ़ की।"

राजू भूपति अपनी जिंदगी से मिली सीख दूसरे से सांझा करने में बिलकुल नहीं हिचकिचाते। वे बेबाक होकर कहते हैं कि जिंदगी के सफर में फैसला लेना ही सही है। चाहे वह सही हो या गलत हो। फैसला लेने और उनके मुताबिक काम करने के बाद नतीजों के लिए तैयार रहना चाहिए। राजू भूपति आगे कहते हैं कि उन्हें जिंदगी में बस डर शब्द से डर लगता है। वे कहते हैं कि जो कुछ करना है, निडरता के साथ करना चाहिए। हार भी हो तो जिंदगी फिर शुरू की जा सकती है। युवाओं को उनका सुझाव है - 

"समय व्यर्थ मत करो। 35 से पूर्व ही जोखिम उठाओ, जो करना है करो। उसके बाद अनुभव काम आता है। केवल रुपये बनाने की योजना नहीं होनी चाहिए, बल्कि कुछ कर गुज़रने की भावना होनी चाहिए।"


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