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किशन सरोज: जिनके गीतों में छलकता है विरह का दर्द

किशन सरोज के गीतों में रचनात्मक छल नहीं...

किशन सरोज: जिनके गीतों में छलकता है विरह का दर्द

Tuesday January 30, 2018 , 9 min Read

देश के प्रसिद्ध कवि किशन सरोज का आज (30 जनवरी) जन्मदिन है। वह एक ऐसे गीत-कवि हैं, जो अपनी रचनात्मकता को मुखरता के क्षणों में जो बोलते हैं, लिखते हैं, चुप रहकर उससे भी अधिक रचनात्मकता के निकट होते हैं। यही कारण है कि जब लंबी चुप्पी के बाद उनके होंठ खुलते हैं, तो आंखें भी कान बन जाने की आकांक्षा मन में पालने लगती हैं। उनकी रचना एक बांसुरी बन जाती है, तप्त लोहे से छेदी गई बांस की ऐसी बांसुरी, जो द्वापर में कृष्ण के सारे सम्मोहन का केंद्र थी। हिंदी के गीत जगत में प्राकृत रचनाकार अंगुलियों पर गिनने लायक भर हैं। बलवीर सिंह रंग, गोपाल सिंह नेपाली के बाद भारत भूषण और किशन सरोज ही ऐसे कवि हैं, जिनकी रचनाओं में कहीं कोई सृजनात्मक छल नहीं है...

कवि किशन सरोज

कवि किशन सरोज


 वह अपने तरल संवेदना, मधुर शब्द-संयोजन और चित्रात्मक बिम्बों और प्रतीकों से सजे-संवरे गीतों को अपनी विशिष्ट शैली में प्रस्तुत करके काव्यप्रेमियों से खचाखच भरे सभागारों में सभी का मन मोह लेते हैं। उन्हें पहली बार गोपालप्रसाद व्यास ने सन्‌ 1963 में लाल किले के राष्ट्रीय कवि सम्मेलन में बुलाया था।

किशन सरोज जैसे गीतकार के लिए हिंदी को शताब्दियों तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। किशन के अधिकांश गीत राग भाव की प्रासंगिक स्थितियों पर आधारित हैं तथा पाठक और श्रोता पर विजय प्राप्त करते हैं। कवि के 'तुम निश्चिन्त रहना' शीर्षक गीत की पंक्तियां, जो हिंदी लोक जगत में सर्वाधिक चर्चित रही हैं -

कर दिए लो आज गंगा में प्रवाहित

सब तुम्हारे पत्र, सारे चित्र, तुम निश्चिन्त रहना

धुंध डूबी घाटियों के इंद्रधनु तुम

छू गए नत भाल पर्वत हो गया मन

बूंद भर जल बन गया पूरा समंदर

पा तुम्हारा दुख तथागत हो गया मन

अश्रु जन्मा गीत कमलों से सुवासित

यह नदी होगी नहीं अपवित्र, तुम निश्चिन्त रहना

दूर हूँ तुमसे न अब बातें उठें

मैं स्वयं रंगीन दर्पण तोड़ आया

वह नगर, वे राजपथ, वे चौंक-गलियाँ

हाथ अंतिम बार सबको जोड़ आया

थे हमारे प्यार से जो-जो सुपरिचित

छोड़ आया वे पुराने मित्र, तुम निश्चिंत रहना

लो विसर्जन आज वासंती छुअन का

साथ बीने सीप-शंखों का विसर्जन

गुँथ न पाए कनुप्रिया के कुंतलों में

उन अभागे मोर पंखों का विसर्जन

उस कथा का जो न हो पाई प्रकाशित

मर चुका है एक-एक चरित्र, तुम निश्चिंत रहना

बाल कवि बैरागी के शब्दों में किशन सरोज अपने आप में एक ऋतु हैं। एक मौसम हैं। जब जब उनको सुना, तब-तब नई तरह की अतृप्त प्यास जगी। वह छंद-छंद अपना मौसम बना लेते हैं। उन्हें आप मधुवन में सुनें, निर्जन में सुनें, घोर तपते रेगिस्तान में सुनें, बूंद-बूंद मधुरस में आपको नहला देंगे। अपने रचे, अपने बुने बिम्बजाल में आप को शनैः-शनैः उलझाते चले जाएंगे। कई शब्द जो आपको आजीवन समझ में नहीं आए, उनके छंदों की निधि बनकर ज्यों ही आपके प्राण स्पंदन को स्पर्श करेंगे कि अपने आप उलटी लट की तरह सुलझ जाएंगे। शायर वसीम बरेलवी कहते हैं कि किशन सरोज ने प्यार को नभ में तलाशने के बजाए जमीनी पैकर में ढूंढा।

तभी तो उनका दर्द उनके गीतों में कभी कराह और कभी चीख बनता गया। उनकी काव्य-यात्रा जीवन से जुड़े अनगिनत रंगों के बजाय बस प्रेम रंग से आरंभ होती है और उसी पर समाप्त भी। वह फूल की सुगंध के नहीं, फूल की बिखरी पंखुड़ियों के चितेरे हैं। वह समुद्र के फैलाव नहीं, उसकी गहराइयों के कवि हैं। वह विरह के गम के मारे हुए एहसास जीते हैं, जिसे कभी सपने रास नहीं आए। वह पूरी सृष्टि को एक हंसते-बोलते, जीते-जागते पात्र के रूप में देखते हैं। उनका एक गीत है - 'ताल सा हिलता रहा मन' -

धर गये मेंहदी रचे

दो हाथ जल में दीप

जन्म जन्मों ताल सा हिलता रहा मन

बांचते हम रह गये अन्तर्कथा

स्वर्णकेशा गीतवधुओं की व्यथा

ले गया चुनकर कमल कोई हठी युवराज

देर तक शैवाल सा हिलता रहा मन

जंगलों का दुख, तटों की त्रासदी

भूल सुख से सो गयी कोई नदी

थक गयी लड़ती हवाओं से अभागी नाव

और झीने पाल सा हिलता रहा मन

तुम गये क्या जग हुआ अंधा कुँआ

रेल छूटी रह गया केवल धुँआ

गुनगुनाते हम भरी आँखों फिरे सब रात

हाथ के रूमाल सा हिलता रहा मन

गीत कवि किशन सरोज की सिर्फ़ दो पंक्तियां पढ़िए और समझ में आ जाता है कि प्यार क्या है? प्यार का मर्म क्या है? प्यार किसे कहते हैं? किशन सरोज लिखते हैं- 'कर दिए लो गंगा में प्रवाहित, सब तुम्हारे पत्र- सारे चित्र, तुम निश्चिंत रहना।' कितनी बड़ी बात कह जाते हैं सरोज जी। प्रेमी-प्रेमिका के बीच संबंध टूट गए हैं और प्रेमी अपनी प्रेमिका को भरोसा दिला रहा है कि तुम निश्चिंत रहना। हमारा प्यार इतना पवित्र था कि मैंने तुम्हारे पत्र-चित्र सब गंगा में बहा दिए हैं। अब तुम ये सोचकर परेशान मत रहना कि तुम नहीं मिली तो मैं भविष्य में इन्हें तुम्हारे ख़िलाफ़ इस्तेमाल करूंगा। कहां से कहां तक पहुंच गए हैं हम? एक प्रेमी पहले पत्र-चित्र गंगा में बहा देता है और दूसरा प्रेमी पुराने प्रेम एसएमएस टीवी कैमरों के सामने 'लाइव' दिखाता है और दावा भी होता है कि जब हमारे बीच प्यार था, ये तब के एसएमएस हैं। सिर्फ़ एक सवाल- क्या प्यार भी किसी ख़ास वक़्त पर होता है? क्या प्यार में कोई ये कह सकता है कि मैं उसे कल प्यार करता था जी, पर आज नहीं करता। क्या मोहब्बत किसी समय-सीमा की मोहताज हो सकती है?

वह कहते हैं कि प्यार का सिर्फ़ एक ही फ़ार्मूला है- प्यार होता है या प्यार नहीं होता। अगर कोई ये कहे कि मैं उसे पहले प्यार करती थी, अब नहीं करती तो इसका मतलब साफ़ है कि वो तब भी प्यार नहीं करती थी। प्यार कोई आलू-टमाटर नहीं है कि कल थे, और आज ख़त्म हो गए। किशन सरोज अपनी डूबी-डूबी आवाज में गीत सुनाकर आज भी अद्भुत सृजन-संसार रचते रहते हैं। वह सुनाते हैं- 'बस्तियों-बस्तियों, रास्तों-रास्तों, घाटियों-घाटियों, पर्वतों-पर्वतों, हम भटकते रहे बादलों की तरह, जब हमारे लिए तुम गगन हो गए।' उनके गीत कहते हैं - 'नागफनी आंचल में बांध सको तो आना, धागे बिंधे गुलाब हमारे पास नहीं।' उनका गीत है - 'कसमसाई देह फिर चढ़ती नदी की'-

कसमसाई देह फिर चढ़ती नदी की

देखिए तटबंध कितने दिन चले

मोह में अपनी मंगेतर के

समंदर बन गया बादल

सीढियाँ वीरान मंदिर की

लगा चढ़ने घुमड़ता जल

काँपता है धार से लिप्त हुआ पुल

देखिए सम्बन्ध कितने दिन चले

फिर हवा सहला गई माथा

हुआ फिर बावला पीपल

वक्ष से लग घाट के रोई

सुबह तक नाव हो पागल

डबडबाए दो नयन फिर प्रार्थना के

देखिए सौगंध कितने दिन चले

किशन सरोज गीत विधा के रागात्मक भाव के कवि हैं। उन्होंने अब तक सैकड़ो गीत लिखे हैं। उनके लगभग सभी प्रेमपरक गीत सहज अभिव्यंजना एवं नवीन उत्प्रेक्षाओं के कारण मर्मस्पर्शी बन पड़े हैं। वह अपने तरल संवेदना, मधुर शब्द-संयोजन और चित्रात्मक बिम्बों और प्रतीकों से सजे-संवरे गीतों को अपनी विशिष्ट शैली में प्रस्तुत करके काव्यप्रेमियों से खचाखच भरे सभागारों में सभी का मन मोह लेते हैं। उन्हें पहली बार गोपालप्रसाद व्यास ने सन्‌ 1963 में लाल किले के राष्ट्रीय कवि सम्मेलन में बुलाया था। उसके बाद उन्हें देशभर में कवि सम्मेलनों में बुलाया जाने लगा। उनकी जीवनयात्रा और काव्ययात्रा से जुड़े कई संस्मरण कहे-सुने जाते हैं।

किशन सरोज बताते हैं कि मैंने सन 1959 में लिखना प्रारंभ किया। गांव से मिडिल पास करके बरेली आया। यहां अजनबीपन के बीच आवारगी मेरा मुकद्दर बन गई। इसी निरुद्देश्य भटकाव में गुलाबराय इंटर कालेज में कवि सम्मेलन सुना। रात दो बजे तक चले काव्य समारोह ने सभी श्रोताओं को तथा मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया। उस रात की साहित्यिक घटना ने मेरा जीवन बदल दिया। मन के अधियारे में एक दीप चल उठा। उस कवि सम्मेलन में प्रेम बहादुर प्रेमी एवं सतीश संतोषी जी के गीतों से मैं बेहद प्रभावित हुआ। मेरे भीतर की व्यर्थता को जैसै सार्थकत्व का वरदान मिल गया। बाद में प्रेम बहादुर प्रेमी जी को मैंने अपना काव्य गुरु माना। कविता के प्रति मेरा रुझान जितना बढ़ा उतना ही औपचारिक शिक्षा में मेरा ग्राफ नीचे आता गया। किसी को भी सुनकर हंसी आएगी लेकिन यह सच है कि मैंने मिडिल फर्स्ट डिवीजन में पास किया, हाईस्कूल सेकंड डिवीजन में, इंटर थर्ड डिवीजन में, बीए में मेरी सप्लीमेंट्र्री आई और घबराहट के मारे एमए की परीक्षा ही नहीं दी।'

वह बताते हैं कि 'तब के जमाने में मंचों पर प्रेम गीत खूब सुने जाते थे। मेरे लिखने और सुनाने का बेहद प्रभावशाली ढंग था। मुझ पर उस चर्चित और छाए हुए नीरज जी और भारत भूषण जी का वरदहस्त रहा। भारत भूषण जी के गीत सुनकर मैं खूब रोता था। सोचता था कि गीत लिखने हों तो ऐसे लिखो। रामपुर में नीरज जी मेले। वे मुझे मेरा किराया खर्च करके पीलीभीत कवि सम्मेलन में ले गए। फिर भारतभूषण ने मेरठ में अपने कालेज में बुलाया। सन 1963 में पहली बार लालकिले के कवि सम्मेलन में गाया। वहां पढ़ा मेरा गीत 'चंदन वन डूब गया' आकाशवाणी के 'लीजिए फिर सुनिए' कार्यक्रम में लगातार दो वर्षों तक प्रति गुरुवार को प्रसारित होता रहा। इसने मुझे लोकप्रिय बना दिया। मेरे गीतों का कथ्य तो प्रेम और श्रृंगार ही रहा, लेकिन कहन, बिम्बों की नवीनता, अभिव्यक्ति के अनोखेपन ने मेरी विशिष्ट पहचान बनाई।

जब सामान्य कविता का व्याकरण नहीं समझता पर काव्य समारोहों में भी मां वीणापाणि की कृपा से मेरी ओर अदृश्य उंगलियां उठ जाती थीं, जो ये कहतीं कि ये देखो, ये है प्रेम कविता की नई कहन वाला सुकुमार कवि। किशन सरोज कहते हैं कि मैंने यथार्थ से जुड़ी अभिव्यक्तियों को जरूरी नहीं समझा और इसका मुझे कोई पछतावा भी नहीं है। प्रेम और सौंदर्य मेरे मन पर हमेशा भारी रहे हैं। मैं वैसा नहीं कर पा रहा हूं, जैसा दूसरे लोग कर रहे हैं लेकिन मैं जो लिखता हूं, उसे लिखते और सुनाते हुए मेरे जो आंसू निकलते हैं तो मुझे प्रसन्नता होती है, जो दूसरों को उनके लिखे मिलती होगी। मैं चाहता हूं कि इसी संतुष्टि के साथ जीवन की आखिरी सांस तक लिखता रहूं। मैं जो जीता हूं, वहीं लिखता हूं। मैं झूठा बिल्कुल नहीं लिख पाता हूं।

आज स्थितियां बदल गई हैं लेकिन एक जमाने में कविता जादू की तरह होती थी, कवि होना एक उपलब्धि थी। आज कविता के जादू को इंटरनेट, कम्प्यूटर, मोबाइल, टीवी चैनलों, वैज्ञानिक चमत्कारों और खुद कवियों ने भी खत्म कर दिया है। कविता पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से जिस सघनता के साथ लोगों तक पहुंचती थी, उस तरह आज इंटरनेट या सोशल मीडिया से नहीं। इंटरनेट पर कविता के नाम पर कुछ भी लिखा मिल जाएगा। उन्हें कौन रोके-टोके। कूप मंडूकता ही अब कवियों का भाग्य है। राग तत्व से हीन कविताएं कवि लिखता है और कवि ही उसे सुनते हैं, उनका सहृदय पाठक या श्रोता से क्या लेना-देना।

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