किराये की कोख और कानून
जो सरोगेसी कभी गुपचुप तरीके से होती थी, अब ये वैश्विक कारोबार के रूप में फैल चुकी है। पिछले कुछ सालों में भारत सरोगेसी के बड़े बाजार के रूप में तेजी से उभरा है। जहां एक तरफ सरोगेसी से माता-पिता बनने वाले दंपतियों की संख्या बढ़ी है वहीं दूसरी तरफ इसके दुरूपयोग की शिकायतें भी बढी हैं।
"कृत्रिम गर्भधारण का इतिहास दो सौ वर्ष पुराना है, लेकिन भारत में इसे लेकर आज भी कोई साफ कानून व्यवस्था नहीं है। केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने पिछले साल ही सरोगेसी से जुडे़ विधेयकों को मंजूरी दी थी। हालांकि अभी तक इस सरोगेसी (नियंत्रण) विधेयक 2016 को संसद से पारित किया जाना बाकी है।"
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आंकड़ों पर जायें, तो भारत में हर साल 2000 विदेशी बच्चों का जन्म होता है, जिनकी सरोगेट मां भारतीय होती हैं। देश भर में लगभग 3,000 क्लिनिक विदेशी सरोगेसी सेवा उपलब्ध करा रहे हैं। वैसे तो दशकों से इन विट्रो फर्टिलाइजेशन तकनीक से गर्भ धारण किया जा रहा है, लेकिन यदि पीछे मुड़ कर देखा जाये, तो सरोगेसी का पहला केस अमेरिका में हुआ था।
सरोगेसी एक ऐसी तकनीक है, जिसमें एक स्त्री और पुरुष के शुक्राणु और अण्डाणु को किसी तीसरी महिला (सरोगेट माता) के गर्भ में प्रत्योपित कर दिया जाता है। बच्चे का भ्रूण सरोगेट माता के गर्भ में ही विकसित होता है। बच्चे के जन्म के बाद उसके माता-पिता को बच्चा सौंप दिया जाता है। पिछले कुछ सालों में भारत सरोगेसी के बड़े बाजार के रूप में तेजी से उभरा है। जहां एक तरफ सरोगेसी से माता-पिता बनने वाले दंपत्तियों की संख्या बढ़ी है, वहीं दूसरी तरफ इसके दुरूपयोग की शिकायतें भी बढ़ी हैं।
बात चाहे शाहरुख खान-गौरी खान की हो या फिर आमिर खान-किरण राव खान की, सोहैल खान-सीमा सचदेवा खान की हो या तुषार कपूर की या फिर हाल ही में सरोगेसी तकनीक से दो बच्चों के पिता बने करण जौहर की। इन सभी ने परिवार को बढ़ाने के लिए सरोगेसी तकनीक का सहारा लिया है। सुषमा स्वराज ने शायद इसी ट्रेंड को ध्यान में रखते हुए कुछ दिन पहले कहा था, जो तकनीक ज़रूरत और सुविधा के लिए शुरू की गई थी, वो अब विलासिता का रूप ले चुकी है। वे सेलेब्रिटी भी, जिनके पास पहले से बच्चे हैं वे भी सरोगेसी का इस्तेमाल कर रहे हैं। सुषमा स्वराज का बयान कड़वा तो था, लेकिन एक बात इस पर गौर करने की आवश्यकता है। संसद में उन्होंने तो अपने बयान में ये तक कह दिया था, कि फिल्म स्टार की पत्नियां दर्द से बचने के लिए सरोगेसी का सहारा लेती हैं।
सरोगेसी तकनीक को लेकर समाज सेवियों के उठने वाले सवाल गलत नहीं हैं। बहुत हद तक संभव है, कि इस प्रक्रिया से जन्मे बच्चों का इस्तेमाल अंगों के कारोबार अथवा देहव्यापार में भी होने लगे। क्योंकि सेलेब्रिटीज़ तक तो ठीक है, लेकिन जब बात आम जनता पर आती है, तो चीज़ें उतनी साफ और आसान नहीं रह जातीं, जितनी की दूर से दिखाई पड़ती हैं।
केंद्र सरकार के सरोगेसी (नियंत्रण) विधेयक 2016 को मंत्रिमंडल ने पिछले साल अगस्त में मंजूरी दे दी थी, लेकिन अभी इसे संसद में पेश किया जाना बाकी है।
कृत्रिम गर्भधारण का इतिहास दो सौ वर्ष पुराना है, लेकिन भारत में इसे लेकर आज भी कोई साफ कानून व्यवस्था नहीं है। एक समय ऐसा भी था, जब ये सबकुछ गुपचुप तरीके से किया जाता था, लेकिन अब वैश्विक कारोबार के रूप में स्थापित हो चुका है और भारत इसका बड़ा केंद्र बन कर उभरा है। भारत में सरोगेट मदरहुड की ज़रूरत एक बड़ी अड़चन है। भारत में सरोगेसी तकनीक दूसरे अमीर देशों की अपेक्षा सस्ती है इसलिए इस देश के लिए अफसोसजनक सच्चाई ये रही है, कि विदेशी दंपति शिशु प्राप्त करने के बाद सरोगेट मदर को अपने हाल पर छोड़ जाते हैं।
किराये की कोख को लेकर इस तरह के सवाल भी उठते रहे हैं, कि इस प्रक्रिया से जन्मे बच्चों का इस्तेमाल अंगों के कारोबार अथवा देहव्यापार में भी होना संभव है।
2014 में किराये पर कोख के लिए और बच्चों के हितों की रक्षा को मद्देनज़र रखते हुए कानून बनाने के लिए लोकसभा में एक महत्वपूर्ण गैर-सरकारी विधेयक पेश किया गया था। भृतुहरि मेहताब (बीजू जनता दल के वरिष्ठ सदस्य) द्वारा पेश किए गए किराये की कोख: विनियमन: विधेयक 2014 के कारणों और उद्देश्यों में कहा गया था, कि देश में किराये पर कोख देने वाली माताओं और किराये पर कोख देने के माध्यम से पैदा हुए बच्चों के हितों की रक्षा के लिए जरूरी उपबंध करना जरूरी है। आयोग की 228वीं रिपोर्ट में भी उपयुक्त कानून बनाकर वाणिज्यिक सरोगेसी पर रोक लगाने और जरूरतमंद भारतीय नागरिकों के लिए नैतिक परोपकारी सरोगेसी की अनुमति की सिफारिश की गई है।
भारत में सरोगेसी प्रक्रिया सस्ती होने के कारण किराये पर कोख देने संबंधी सेवाएं लगातार बढ़ रही हैं और ये विभिन्न देशों के दंपत्तियों के लिए सरोगेसी केंद्र के तौर पर उभरा है। इस प्रक्रिया की मदद से एक ओर निराश दंपतियों के जीवन में खुशी आई है, तो वहीं दूसरी तरफ इसके अत्याधिक दुरुपयोग और इसमें शामिल विभिन्न नैतिक मुद्दों के कारण इसकी आलोचना भी हो रही है। विधेयक 2014 के अनुसार महत्वपूर्ण लिंग चयन और सामान्य गर्भ धारण वाले मामलों में भी इसका उपयोग किए जाने जैसी समस्याएं आईं। किराये पर कोख देने की प्रथा को विनियमित करने के लिए किसी भी विधायी ढांचे के अभाव ने किराये की कोख देने संबंधी चिंताओं को बढ़ा दिया है। गौर किया जाये, तो अनैतिक गतिविधियों, सरोगेट मदर के शोषण, सरोगेसी से जन्मे बच्चों को छोड़ने और भ्रूणों एवं युग्मकों की खरीद-बिक्री में बिचौलियों के रैकेट से संबंधित घटनाओं की सूचनाएं लगातार मिलती रहती हैं।
सरोगेसी की सुविधा एजेंसियों द्वारा उपलब्ध करवाई जाती है, जिन्हें आर्ट क्लीनिक कहा जाता है। ये एजेंसियां इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के दिशानिर्देशों पर अमल करती हैं।
कुछ साल पहले जापानी आर्थोपेडिक सर्जन डॉ. यामाडाइकुफुमी और उनकी पत्नी सेरोगेट मदर के जरिये बच्चे को जन्म देने के लिए गुजरात की चिकित्सक डॉ. नयना पटेल से मिलीं तो कोख किराये पर लेकर डॉ. नयना ने गर्भधान कराया। इसके बाद दंपति तो जापान लौट गये और वहां उनमें तलाक हो गया, इस बीच इंडिया में सेरोगेट मदर ने बच्ची को जन्म दे दिया। डॉ. यामाडाइकुफुमी जब बच्ची को लेने गुजरात पहुंचे, तो नगर पालिका ने बच्ची का बर्थ सर्टिफिकेट जारी नहीं किया। पासपोर्ट न बन पाने की वजह से बच्ची को जापान नहीं ले जाया जा सका। तलाक हो जाने के बाद तो मां ने बच्ची मांझी को अपनाने से भी इंकार कर दिया। राजस्थान हाइकोर्ट में रिट दायर की गई कि मांझी भारत की नागरिक है। उसको जापान न ले जाया जाये, इसके खिलाफ मांझी की दादी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गईं। आखिरकार मांझी को जापान ले जाने के निर्देश मिल गये। लेकिन किराये की कोख को लेकर इस किस्म की मुश्किलें आम हैं।
सरोगेट मां की सरोगेसी के दौरान यदि मृत्यु हो जाये या फिर एक से अधिक बच्चे पैदा हो जायें, तो स्थितियां और भी जटिल हो जाती हैं। कभी-कभी तो कुछ को लड़का चाहिए होता है और लड़की हो जाये या फिर कुछ को लड़की चाहिए होती है लड़का हो जाये तो ऐसे मामलों में लोग बच्चों को अपनाने से इंकार भी कर देते हैं।
वैसे तो बच्चे पाने की खुशी दुनिया भर की दौलत से भी ज्यादा होती है, लेकिन सामाजिक चिंतक मानते हैं, कि इस चिकित्सा प्रणाली के बिज़नेस के तौर पर उभरने से भयावह नतीजे सामने आ सकते हैं। वैज्ञानिक भी इस पर सवाल उठाते हुए कहते हैं, कि ये तकनीक अनाथ बच्चों को जन्म देगी। 60 साल की महिला का बच्चा सयाना होने की उम्र में मां को खो चुका होगा। साथ ही इस तकनीक का सदुपयोग होने की बजाय दुरुपयोग अधिक मात्रा में होगा।
भारत में वर्ष 2008 में एक विधेयक लाया गया था, जिसमें 30 से 42 वर्ष तक की आयु सीमा सुनिश्चित की गई थी। डॉ. पई कहते हैं, कि आईवीएफ मातृत्व का सुख देने में मददगार है। इसके समाजिक-आर्थिक पहलू में मेडिकल साइंस का हस्तक्षेप नहीं है। आर्थिक मजबूरी में सरोगेसी के लिए अपनी कोख को किराये पर देना किसी महिला के लिए पेशेवर फैसला हो सकता है। डॉ. शेफाली का का कहना है, कि भारत में सामाजिक कानूनी अड़चनों से लोग विज्ञान का सहारा लेने से हिचकते हैं।
कानूनी उलझनों के कारण ही एक अमेरिकी दंपती सरोगेसी के बाद जयपुर में अपने ही बच्चे को लेकर 8-9 साल तक स्वदेश नहीं लौट पाया। विदेशी सस्ती कोख की तलाश में भारत आते हैं। देश में 3 हज़ार ऐसे क्लिनिक हैं, जो सरोगेसी तकनीक से बच्चों के जन्म में मदद करते हैं। बचपन को बेचने से ज्यादा खरीदार ही कानून के आगे लाचार है और जिसके चलते होने वाले बच्चे का बचपन अपने आप मुश्किल में है।