अपने दिल की आवाज़ सुनकर दिल के डाक्टर बने संजय अग्रवाल ने साबित किया कि भीड़ से अलग चलने पर ही बनती है अलग पहचान
जानते थे कि परिस्थितियां विपरीत हैं, चुनौतियां अपार हैं, फिर भी लिया भीड़ से अलग चलने का फैसला ... क्या घरवाले - क्या बाहरवाले, सभी से सुनी थीं निरुत्साहित करने वाली बातें... लेकिन सभी से अलग करने की जो ठानी, उसी फैसले पर रहे अडिग ... संजय अग्रवाल ने दो दशक पहली ही कार्डियक सर्जन बनकर बनाई थी अपनी अलग पहचान ... अपनी कामयाबी से लोगों को ये सीख दी कि भीड़ के साथ चलने से कुछ समय के लिए साहस तो मिलता है मगर अलग पहचान नहीं बन पाती ... पांच हज़ार से ज्यादा दिल के ऑपरेशन कर चुके संजय अग्रवाल की सभी को यही है सलाह - "फॉलो योर पैशन"
डाक्टर संजय अग्रवाल वो मशहूर शख्शियत जिन्होंने बहुत पहले भीड़ से अलग चलने का फैसला लिया था । फैसला साहसिक था । सभी ने फैसले का विरोध भी किया था, निराश करने वाली बातें कही थीं। लेकिन इन बातों की परवाह किये बिना संजय अग्रवाल ने वो राह चुनी थी जिसपर उनसे पहले बहुत ही कम लोग गए थे। राह आसान नहीं थी। पग-पग पर चुनौतियां थी, कई सारी अड़चनें थी। मुसीबतें बाहें खोले खड़ी थीं। लेकिन, आगे चलकर इसी मार्ग पर उन्हें बहुत बड़ी कामयाबी मिली। समाज में उनकी अलग पहचान बनी। वे कईयों के लिए प्रेरणा का स्रोत बने। बहुत सारे लोगों ने फिर वही रास्ता चुना जिसपर संजय अग्रवाल चले थे।
संजय अग्रवाल ने अस्सी के दशक में ही कार्डियक सर्जन बनने का फैसला लिया था। ये फैसला वक्त से लड़ाई के बराबर था, लेकिन संजय अग्रवाल ने अपनी हिम्मत, लगन और प्रतिभा से ये लड़ाई जीत ली। उनकी गिनती आज भारत के श्रेष्ठ कार्डियक सर्जनों में होती है। इन जैसे साहसी डाक्टरों की वजह से देश में कार्डियक सर्जनों की एक फौज तैयार हुई है और हृदय से जुड़े बड़े-बड़े ऑपरेशन अब भारत में ही किये जाने लगे हैं। संजय अग्रवाल जैसे डाक्टरों की मेहनत का ही नतीजा है कि ह्रदय की बीमारी अब लाइलाज नहीं रही। ह्रदय रोग के इलाज से जुड़ी ऐसी कोई तकनीक नहीं रही जिसका इस्तेमाल भारत में न किया जा रहा हो।
एक बेहद ख़ास मुलाक़ात में डाक्टर संजय अग्रवाल ने हमें अपनी कामयाबी की कहानी के कई दिलचस्प पहलु बताये। अपने जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं के बारे में जानकारी दी। यादगार किस्से भी सुनाए। संजय अग्रवाल ने बताया कि जब वे नवीं कक्षा में थे तभी उन्होंने ये फैसला कर लिया था कि वे बड़े होकर डाक्टर बनेंगे। फैसला उनका अपना खुद का था। ना किसी ने उन्हें सुझाव दिया था न किसी की ज़ोर-ज़बरदस्ती थी । लेकिन, इस फैसले के पीछे उस समय के हालात का असर था। उन दिनों हर कोई या तो डाक्टर बनना चाहता था या फिर इंजीनियर। जो लोग मैथ्स में कमज़ोर होते थे वे डाक्टर बनने की सोचते थे। जब संजय अग्रवाल ने 1977 में अपने माता-पिता को ये बताया कि वे डाक्टर बनना चाहते हैं तो वे बहुत कुछ खुश हुए। इतना खुश हुए मानो वे ये बात सुनने के इंतज़ार में ही बैठे हों। संजय अग्रवाल के फैसले का सभी ने तहेदिल से स्वागत किया और उन्हें अपनी शुभकामनाएँ दीं। सभी ने प्रोत्साहित किया। लेकिन, जब डाक्टरी की पढ़ाई के समय उन्होंने फिर खुद से एक फैसला किया तब सभी चौंक गए । सभी ने इस फैसले का विरोध किया और हतोत्साहित करने वाली बातें कहीं । माता-पिता, रिश्तेरदारों और दोस्तों- सभी ने नेगेटिव कमेंट्स किये थे। पहली बार की तरह ही इस बार भी ना किसी ने उन्हें सुझाव दिया था और न किसी की ज़ोर-ज़बरदस्ती थी। लेकिन इस बार के फैसले की एक बड़ी ख़ास बात थी। संजय अग्रवाल ने इस बार उस समय के हालात को देखकर फैसला नहीं किया था। उनका फैसला ट्रेंड के बिलकुल विपरीत था। सभी को हैरान करने वाला संजय अग्रवाल का ये फैसला था - कार्डियक सर्जन बनना यानी दिल का ऑपेरशन करने वाला डॉक्टर।
उस समय इस फैसले पर हैरानी जतना स्वाभाविक भी था। उस समय लोग ह्रदय की बीमारी को सबसे खतरनाक और जानलेवा मानते थे। अगर किसी को ह्रदय की बीमारी हो गयी है तो ये माना जाता कि उस व्यक्ति का अंत समय निकट आ गया है। ह्रदय के ऑपेरशन का सीधा मतलब होता अंत समय। ह्रदय के ऑपेरशन को जान बचाने की आख़िरी कोशिश समझा जाता। ऐसे हालात में संजय अग्रवाल ने कार्डियक सर्जन बनने का फैसला लिया था।
संजय अग्रवाल ने बताया,"मैं लोगों से अलग करना चाहता था। मन में एक अजीब-सी उमंग थी। मैंने सोचा कि ह्रदय के जिस ऑपेरशन को लोग बड़ी चुनौती और मुश्किल काम मानते है, मैं उस काम को सीखूं और करूँ। मेरे मन में उस वक्त दो ही ख़याल थे - पहला सर्जिकल लाइन में जाना और दूसरा ह्रदय का ऑपेरशन करने वाला डाक्टर बनना।" संजय अग्रवाल ने आगे बताया,"उस समय कार्डियक सर्जन बनने के लिए हालात उत्साहजनक नहीं थे। भारत में सिर्फ दो ही जगह दिल के ऑपरेशन किये जा रहे थे। उन दिनों दिल्ली के एम्स और वेल्लोर के क्रिस्चियन मेडिकल कॉलेज में ही दिल के ऑपरेशन मुमकिन थे। ऑपरेशन की पद्धति भी बहुत पुरानी थी। सबसे बड़ी परेशानी ट्रेनिंग की थी। कार्डियक सर्जरी की ट्रेनिंग की सही सुविधा बहुत कम जगह थी। नए डाक्टर इसी वजह से कार्डियक सर्जन बनना नहीं चाहते थे।"
एक सवाल के जवाब में संजय अग्रवाल ने बताया कि उनके साथ 196 विद्यार्थियों ने एमबीबीएस का कोर्स किया था। इनमें से सिर्फ चार ने आगे चलकर सुपर स्पेशेलिटी का कोर्स चुना और इन चार लोगों में वे एक थे। संजय अग्रवाल ने कार्डियक सर्जरी को चुना तो दूसरे ने प्लास्टिक सर्जरी को अपना पेशा बनाया। तीसरा न्यूरो फिजिशियन बना तो चौथा नफरोलोगिस्ट यानी गुर्दों का डाक्टर। यानी 196 में सिर्फ चार लोगों ने सबसे जुदा और सबसे मुश्किल राह चुनी थी।
वाकई संजय अग्रवाल के लिए भी आगे की राह भी मुश्किल थी। जिस समय उन्होंने ह्रदय के ऑपरेशन करने शुरू किये थे उन दिनों मरीज़ भी ऑपरेशन पर विश्वास नहीं करते थे। एक तरफ ऐसे अस्पताल बहुत कम थे जहाँ ह्रदय के ऑपरेशन होते थे वहीं दूसरी तरफ जिन अस्पतालों में ऑपरेशन होते थे वहाँ ऑपरेशन की पद्धति पुरानी थी। अस्पतालों में आज के जैसे आधुनिक उपकरण नहीं थे।
हैदराबाद के अपोलो अस्पताल परिसर में हुई इस बातचीत के दौरान संजय अग्रवाल ने ये भी बताया कि नब्बे दशक की शुरुआत में हालात सुधरने लगे थे। नयी तकनीकें इजात की जाने लगी थी। अलग-अलग देशों के बीच टेक्नोलॉजी का भी आदान-प्रदान होने लगा था। जैसे-जैसे भारतीय डाक्टर नयी-नयी और अत्याधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करने लगे वैसे-वैसे भारत में कार्डियक सर्जरी के प्रति विश्वास बढ़ता गया। साथ ही कार्डियक सर्जनों का भी सम्मान बढ़ा।
संजय अग्रवाल बताते हैं,"पहले दिल की बीमारी लाइलाज मानी जाती थी। अब दिल की जटिल से जटिल बीमारी पूरी तरह से ठीक की जा सकती है। भारत में कार्डियक सर्जरी के लिए अत्याधुनिक उपकरण और तकनीकें मौजूद हैं।"
अपनी ज़िन्दगी के पहले हार्ट ऑपरेशन की यादें ताज़ा करते हए संजय अग्रवाल ने बताया,"बाईस साल का एक युवा मरीज़ था। उसके दिल में छेद था। मैंने दो घंटे तक ऑपरेशन किया। दिल के छेद को बंद किया। ऑपरेशन कामयाब हुआ।" संजय अग्रवाल जब उस पहले ऑपरेशन के बारे में बता रहे थे उनके चहरे पर खुशी साफ़ छलक रही थी। चेहरे पर मुस्कान से साथ उन्होंने ये भी कहा,"उस ऑपरेशन को बीस साल हो गए हैं। वो आदमी आज भी मेरे पास रिव्यु के लिए आता है। उसकी सेहत देखकर मुझे बड़ी खुशी होती है।" एक सवाल के जवाब में संजय अग्रवाल ने बताया कि पहले ऑपरेशन के समय उनमें एक अलग-सा थ्रिल था। थोड़ी नर्वसनेस भी थी। जब ऑपरेशन कामयाब हो गया तब उन्हें लगा मील का एक बड़ा पत्थर पार हो गया है। ऑपरेशन की कामयाबी ने उनका विश्वास बढ़ाया था और बहुत खुशी भी दी थी।
संजय अग्रवाल अब तक पांच हज़ार से ज्यादा ह्रदय के ऑपरेशन कर चुके हैं। उनका जोश और उनकी उमंग अब भी पहले की तरह बरकरार है। विश्वास अटूट है। कामयाब ऑपरेशनों का सिलसिला जारी है। वे कहते हैं,"मैं मानता हूँ कि टहराव कुछ और नहीं बल्कि गिरावट है। चलते रहने और लगातार ऊपर बढ़ते रहना ही कामयाबी है। इसी लिए मैं रुकना नहीं चाहता। मेरी कोशिश रहती है कि मैं लगातार बढ़ता रहूँ। जिस स्तर पर हूँ उससे आगे दूसरे स्तर पर पहुँचने की कोशिश करता हूँ।" एक और सवाल के जवाब में संजय अग्रवाल ने बताया,"उनके लिए कामयाबी का मतलब इलाज के बाद मरीजों के चहरे पर आने वाली मुस्कान है। और उनके जीवन का भी मकसद यही कि वे ज्यादा से ज्यादा मरीजों का इलाज कर उनके जीवन में फिर से खुशियां भर सकें।"
संजय अग्रवाल अमेरिका के डेंटन कूली और भारत के नरेश त्रेहान की कामयाबियों से बहुत प्रभावित हैं और इन दोनों हार्ट सर्जनों को अपना आदर्श और प्रेरणा का स्रोत मानते हैं। आज के दौर के लोगों को सलाह देते हए संजय अग्रवाल कहते हैं, "मैं तो हर एक से यही कहूंगा - फॉलो योर पैशन। इस बात की परवाह मत करो कि दूसरे क्या कह रहे हैं। लोगों का काम है कहना और वे कहते रहेंगे। दूसरों की बातों में आकर पैशन को कभी मत छोड़ो और अपने लक्ष्य को हासिल करो। "
संजय अग्रवाल के जीवन का एक और बड़ा और दिलचस्प पहलु उनके पढ़ाई वाले मेडिकल कालेज और उनके काम वाले हॉस्पिटल से जुड़ा है। उन्होंने एक ही कालेज से एमबीबीएस, एमएस और एमसीएच की पढ़ाई की। संजय अग्रवाल ने कानपुर के गणेश शंकर विद्यार्थी मेडिकल कालेज से ये तीनों बड़ी डिग्रीयां हासिल कीं। अपनी पढ़ाई और ट्रेनिंग पूरी करने के बाद 1994 में वे हैदराबाद आये और तब से लेकर आजतक वे एक ही अस्पताल में अपनी सेवाएँ दे रहे है। करीब बाईस साल पहले हैदराबाद के अपोलो अस्पताल से जुड़ा नाता अब भी जस का तस बरकरार है।
बातचीत के दौरान ही संजय अग्रवाल ने हमसे अपने जीवन के सबसे चुनौती भरे ऑपरेशन की जानकारी भी साझा की। उन्होंने बताता,
"कैथ लैब में एक युवा मरीज़ का कॉरोनरी एंजियोग्राम चल रहा था। अचानक उसके दिल ने काम करना बंद कर दिया। सभी हैरान-परेशान हो गए। हमने आर्टिफिशियल सर्कुलेशन और कार्डिओ पल्मोनरी मसाज के ज़रिये उसके दिल को फिर से काम करवाने की कोशिश शुरू की। इस कोशिश के दौरान ही हम उसे ऑपरेशन थिएटर ले गए। वहां उसकी बाइपास सर्जरी की गयी। ऑपरेशन कामयाब रहा। ऑपेरशन के अगले दिन मरीज़ बिलकुल ठीक हो गया। कईयों के लिए ये मिरकल था। ये एक ऐसा ऑपरेशन है जो मुझे हमेशा याद रहेगा।"
संजय अग्रवाल की पत्नी कविता भी डाक्टर हैं। वे बच्चों की डाक्टर और शिशु रोग विशेषज्ञ हैं । संजय और कविता की दो लडकियां हैं। बड़ी बेटी बिट्स पिलानी के हैदराबाद सेंटर से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही हैं। छोटी बेटी नवीं कक्षा में है। संजय अग्रवाल के पिता एस. के. अग्रवाल उत्तरप्रदेश में इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के लिए काम करते थे। जनरेशन कारपोरेशन में एक बड़े पद पर रहते हुए उनकी सेवा-निवृत्ति हुई । माँ उषा अग्रवाल गृहणी थी। उनके बड़े भाई अनूप ने भी खूब पढ़ाई की। वे अमेरिका में कंप्यूटर साइंस के प्रोफेसर हैं। चूँकि पिता सरकारी सेवा में थे उनका तबादला होता रहता। यही वजह थी संजय अग्रवाल की पढ़ाई गोरखपुर, लखनऊ, कानपुर जैसे अलग-अलग शहरों में हुई।
संजय अग्रवाल ने इंटरमीडिएट की पढ़ाई के बाद जब उन्होंने मेडिकल कालेज की प्रवेश परीक्षा लिखी तब उत्तर-प्रदेश में एमबीबीएस की केवल 700 सीटें थीं। इन सात सौ सीटों के लिए 54000 से ज्यादा विद्यार्थियों ने परीक्षा लिखी थी। लेकिन संजय अग्रवाल ने कुछ इस तरह मन लगाकर तैयारी की थी उन्हें अपने पहले ही एटेम्पट में एमबीबीएस की सीट मिल गयी।