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सपने सच करने का गुर सीखें एयरबस-A300 की पहली महिला कमांडर और कैप्टन इंद्राणी सिंह से

दुनियाभर में एयरबस-300 की पहली महिला कमांडर...‘लिटरेसी इंडिया’ की फाउंडर सेक्रेटरी...‘लिटरेसी इंडिया’ के 11 राज्यों में 55 सेंटर...महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश...गरीब बच्चों की पढ़ाई की जिम्मा उठाया...50 हजार से ज्यादा बच्चे, युवा और महिलाएं जुड़ीं...

सपने सच करने का गुर सीखें एयरबस-A300 की पहली महिला कमांडर और कैप्टन इंद्राणी सिंह से

Friday October 16, 2015 , 8 min Read

इरादे मजबूत और हौसले बुलंद हों तो सब कुछ मुमकिन है। इस बात को साबित किया है कैप्टन इंद्राणी सिंह ने। ये दुनिया में एयरबस ए-300 की पहली महिला कमांडर तो हैं ही एयरबस ए-320 की एशिया की पहली महिला कमर्शियल पायलट और लिटरेसी इंडिया की फाउंडर सेक्रेटरी हैं।

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दिल्ली में पैदा हुई इंद्राणी आज जिस मुकाम पर हैं वहां तक पहुंचने का रास्ता काफी मुश्किलों भरा था। बावजूद इसके वो अपने फ्लाइंग करियर के साथ साथ गरीब बच्चों को शिक्षित करने और महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने की ट्रेनिंग दे रही हैं। इंद्राणी का बचपन दरअसल दो संस्कृतियों का मिश्रण था क्योंकि इनकी मां बंगाली और पिता राजपूत हैं। इंद्राणी ने दिल्ली से अपने स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई पूरी की। कॉलेज के दिनों में वो एनसीसी की ग्लाइडर पायलट थीं और तभी से उनको प्लाइंग से लगाव हो गया था। हालांकि ये वो दौर था जब इस क्षेत्र में लड़कियां नहीं आती थीं और उनके लिये ये क्षेत्र बिल्कुल नया था। वहीं दूसरी ओर उनके पिता को कारोबार में काफी नुकसान हो गया था ऐसे में घर की आर्थिक स्थिति खराब हो गई थी। बावजूद बेटी की इच्छा को पूरा करने के लिए पिता ने कर्ज लेने का फैसला लिया। जिसके बाद इंद्राणी के सामने सिर्फ एक ही विकल्प था कि वो प्लाइंग के क्षेत्र में ही अपना करियर बनाये और दुनिया भर में अपनी मौजूदगी दर्ज कराएं।

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इंद्राणी का कहना है कि उस दौरान उनकी जैसी कई दूसरी लड़कियों ने भी इस क्षेत्र में अपना करियर बनाने का फैसला लिया था हालांकि उनकी संख्या काफी कम थी, लेकिन उनमें से भी ज्यादातर लड़कियों को ये क्षेत्र बीच में ही छोड़ना पड़ा। वजह, अकेले ही फ्लाइंग क्लब तक पहुंचने के लिए काफी दूर तक जाना । वहीं दूसरी ओर ये भी माना जाता था कि लड़कियां अकेले जहाज कैसे उड़ा सकती हैं ऐसे में मजबूत इरादों वाली इंद्राणी अकेले ही इस क्षेत्र में डटी रहीं। दिल्ली फ्लाइंग क्लब से उड़ान के गुर सीखने के दौरान उनको कई मुश्किलों का सामना भी करना पड़ा। इस दौरान उनके साथ प्लाइंग सीख रहे पुरुषों का नजरिया दूसरा रहता था। इतना ही नहीं उनको कोई ये बताने वाला नहीं था कि क्या सही है और क्या गलत। तब इंद्राणी जिस मोटरसाइकिल से फ्लाइंग क्लब आना जाना करती थीं उस वक्त कुछ शरारती लोग अक्सर उनकी मोटरसाइकल के टायरों की हवा निकाल देते थे जिसके बाद वो दूसरों से मदद लेने की जगह अकेले ही मोटरसाइकिल को धक्का मारकर टायरों में हवा भराने के लिए ले जाती थीं। मुश्किल हालात की परवाह किये बगैर इंद्राणी ने हिम्मत नहीं हारी और अपने इरादों और पिता के भरोसे को पूरा करते हुए उन्होने अपनी ट्रेनिंग पूरी की।

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ट्रेनिंग पूरी करने के बाद फिर वो दिन भी आया जब साल 1986 में इंद्राणी को पायलट बनने का लाइसेंस मिला और कुछ वक्त बाद वो एयर इंडिया के बोइंग-737 विमानों को नियमित तौर पर उड़ाने लगीं। करीब 26 साल से एयर इंडिया के साथ जुड़ी इंद्राणी का कहना है कि “मुझे कई बार ऐसे मौके भी मिले जब दूसरी एयरलाइंस के साथ काम करने का प्रस्ताव मिला, लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि मेरा मानना है कि जिस संगठन ने आपको पहचान दी हो आप पर विश्वास जताया हो, उसे तोड़ना नहीं चाहिए।” नौकरी के दौरान भी इंद्राणी को कई बार भेदभाव का सामना करना पड़ा क्योंकि तब कोई भी महिला फर्स्ट ऑफिसर नहीं होती थी, लेकिन काम में माहिर इंद्राणी हर मुश्किल बाधा को पार करते गईं।

इंद्राणी बताती हैं कि जब वो एयरबस 320 की ट्रेनिंग लेने के लिए फ्रांस गईं तो उस वक्त अमेरिका, इजराइल और एक दो देशों को छोड़कर किसी भी देश की महिला पायलट वहां पर नहीं थीं। तब वहां मौजूद दूसरे लोग ये सोच कर अचंभित होते थे कि जिस देश की महिलाएं परदे में रहती हैं वहां की एक महिला पायलट ट्रेनिंग के लिए इतनी दूर आई हैं। इसी तरह एयरबस 300 की ट्रेनिंग के बारे में इंद्राणी बताती हैं कि उस वक्त दुनिया में ऐसे जहाज के लिए कोई कमांडर नहीं था, तब एयरबस ने उन पर एक आर्टिकल छापा। उस वक्त भी लोगों को लगा कि कैसे कोई युवा और वो भी महिला इतने बड़े जहाज की कमांडर बनने के काबिल है क्या? लेकिन अपने जोश और जुनून की वजह से इंद्राणी सही साबित हुईं।

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इंद्राणी की शादी साल 1987 में कोलकाता में हुई। उनके पति भी इसी प्रोफेशन में हैं और सीनियर कैप्टन हैं। इंद्राणी का कहना है कि उनकी जिंदगी सही तरीके से चल रही थी बावजूद इसके हर वक्त उनको लगता था कि अब भी कुछ कमी है। वो बताती हैं कि अक्सर बचपन के दिनों में भी उनको लगता था कि वो स्कूल जा रही हैं लेकिन दूसरे ऐसे कई बच्चे हैं जो भीख मांगने को मजबूर हैं, भूखे हैं। इसी तरह वो बताती हैं एक दिन वो कोलकाता में थीं तो उन्होंने रास्ते में देखा कि एक नन कुछ गरीब बच्चों को अपने पास बैठा कर निस्वार्थ भाव से उनके बाल साफ कर रही थीं। ये बात इंद्राणी के दिल को छू गई कि कैसे कोई इतनी गंदगी में जाकर काम कर सकता है। इत्तेफाक से एक बार मदर टेरेसा को इलाज के लिए कहीं ले जाया जा रहा था। खास बात ये थी कि जिस विमान से मदर टेरेसा यात्रा कर रही थी उसे इंद्राणी ही उड़ा रही थीं। जब इंद्राणी को ये पता चला कि मदर टेरेसा उनके जहाज में हैं तो उन्होने उनको एक पर्ची भेजी और उसमें उन्होने लिखा “डियर मदर, आई वांट टू बिकम फ्लाइंग नन” ये बात उनके साथ यात्रा कर रही सिस्टर शांति को नागवार गुजरी, लेकिन बड़े दिल वाली मदर टेरेसा पहले हंसी और इंद्राणी से कहा कि बेटी तुम कैप्टन हो और कुछ भी कर सकती हो।

इस तरह इंद्राणी के मन में विचार आया कि क्यों ना बच्चों और महिलाओं के लिए कुछ किया जाए।अपनी सोच को अंजाम देते हुए साल 1995 में उन्होंने गुडगांव में एक महिला टीचर को अपने साथ जोड़ा और 5 गरीब बच्चों को पढ़ाने का काम शुरू किया। शुरूआत में उनको तमाम कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उनको ऐसी जगह ढूंढने में काफी परेशानी होती थी जहां पर गरीब बच्चों को पहुंचने में आसानी हो। इसके लिए वो ऐसे बिल्डरों से मिली जिनका आसपास में काम चल रहा होता था और वो उनसे विनती करती थीं कि वो कुछ समय के लिए अपना खाली फ्लैट बच्चों को पढ़ने के लिए दे दें। धीरे धीरे बच्चे बढ़ते गए जिसके बाद उनको लगने लगा कि बच्चों को पढ़ाने के लिए ऐसी जगह की जरूरत है जो उनकी पहचान बन सके। इसके बाद उन्होने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर 1996 में ‘लिटरेसी इंडिया’ की स्थापना की। इस तरह धीरे धीरे लोग जुटते गए और कारवां बढ़ता गया।

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आज ‘लिटरेसी इंडिया’ के देशभर के 11 राज्यों में 55 सेंटर हैं। इन राज्यों में दिल्ली एनसीआर का इलाका तो है ही साथ ही पश्चिम बंगाल, झारखंड, कर्नाटक, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश सहित कई दूसरे राज्य शामिल हैं। जहां पर ना सिर्फ गरीब बच्चों को मुफ्त में शिक्षा दिलाई जाती है बल्कि गरीब महिलाएं भी आत्मनिर्भर बन सकें, इसके लिए ‘इंधा’ नाम से एक प्रोजेक्ट चलाया जा रहा है। इसके तहत हाथ से बुने बैग, घर सजाने का सामान, कॉरपोरेट गिफ्ट और रिसाइकिल पेपर से उत्पाद तैयार किये जाते हैं। वहीं दूसरे और जो बच्चे आर्थिक कारणों से स्कूल नहीं जा पाते उनके लिए ‘लिटरेसी इंडिया’ विद्यापीठ, पाठशाला और गुरुकुल नाम से अलग अलग प्रोजेक्ट चला रहा है। इन प्रोजेक्ट का मुख्य उद्देश्य शिक्षा के स्तर में सुधार लाना, बच्चों को इस काबिल बनाना कि वो अपने करियर के बारे में उचित फैसला ले सकें साथ ही शिक्षा के जरिये बच्चों के कौशल में निखार लाना है। यही कारण है ‘लिटरेसी इंडिया’ के चलाये जा रहे इन कार्यक्रमों की बदलौत 50 हजार से ज्यादा बच्चे और महिलाएं अपने सपनों में रंग भरना सीख रहे हैं।

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इंद्राणी का कहना है कि जब उन्होने ये काम शुरू किया था तो लोग इस बात को लेकर हैरान थे कि क्यों ये महिला अपना अच्छा खासा करियर होते हुए भी सामाजिक सेवा के क्षेत्र में काम करना चाहती है। इतना ही नहीं गुडगांव के बजघेड़ा गांव से काम शुरू करने वाली इंद्राणी के मुताबिक शुरूआत में उनको काफी आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ा। आर्थिक परेशानियों को दूर करने के लिए लोग उनको कई तरह की सलाह भी देते थे। इसके लिए उनको फैशन शो तक आयोजित कराना पड़ा, जिसका उनसे दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं था। तब किसी ने उनको सलाह दी की वो बच्चों को थिएटर से जोड़ें और ये सलाह काम कर गई। आज ‘लिटरेसी इंडिया’ के तहत पढ़ाई कर रहे बच्चे ने सिर्फ थिएटर से जुड़ी बारीकियां सीखते हैं बल्कि मौका मिलने पर देश के विभिन्न हिस्सों में अपना नाटक भी करते हैं। इंद्राणी के कारण ही थिएटर से जुड़ने वाले कई बच्चों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली है। ‘थ्री इडियट्स’ फिल्म में मिलीमीटर का किरदार निभाने वाले राहुल समेत 7 बच्चों ने ‘लिटरेसी इंडिया’ में अभिनय सीखा और फिल्मों में नाम कमाया।

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गरीब बच्चों को डिजिटल संसार से जोड़ने और पढ़ाई के प्रति रूझान बढ़ाने के लिए ‘लिटरेसी इंडिया’ ‘ग्यानतंत्र डिजिटल दोस्त’ नाम से एक कार्यक्रम चला रहा है। इसके लिए एक खास तरह का सॉफ्टवेयर तैयार किया गया है। जिसमें बच्चों को बड़े ही रोचक तरीके से सभी विषय पढ़ाये जाते हैं। खास बात ये है कि ये प्रोजेक्ट दिल्ली एनसीआर के कई सरकारी स्कूलों में ‘लिटरेसी इंडिया’ की मदद से चलाया जा रहा है। करीब 53 साल की इंद्राणी आज भी मौका मिलने पर ना सिर्फ कैप्टन की भूमिका बड़ी जिम्मेदारी से निभाती हैं, बल्कि गरीब बच्चों और महिलाओं को अपने पैरों में खड़ा करने के लिए उनमें जोश और हिम्मत ठीक उसी तरह बरकरार है जैसे उनमें फ्लाइंग में अपना करियर बनाने के वक्त थी।