डालडा से पारले तक: भारत के सबसे बड़े ब्रांड्स के नाम कैसे पड़े?
'डाबर' नाम की कहानी जानकर तो हंसते-हंसते लोटपोट हो जाएंगे.
एक प्रोडक्ट बनाना एक बात होती है. और उसे घर-घर का ब्रांड बनाना दूसरी. हमारे देश में भी कई लोकल ब्रांड्स ऐसे हैं जो घर-घर पहुंचे हुए हैं. और लोगों का भरोसा इन ब्रांड्स पर इस कदर रहा है कि लोगों ने उन्हें अपने जीवन जीने के तरीके में शामिल कर लिया है. लेकिन कई बार हम घर में इस्तेमाल हो रहे रोज़मर्रा के ब्रांड्स की कहानी जानते ही नहीं होते हैं. तो आइए जानते हैं, कैसे पड़े देश के सबसे बड़े देसी ब्रांड्स के नाम:
1. डालडा
इंडिया में तलाई-भुनाई के लिए सबसे पुराना तेल या तो नारियल का था, या घी का इस्तेमाल करना पड़ता था. मगर घी हमेशा से ही आम लोगों के लिए एक महंगा विकल्प था. इंडिया में वनस्पति घी/तेल जिसे अब डालडा के ही नाम से पहचाना जाता है, को एक डच कंपनी 'डाडा एंड कंपनी' इंडिया लेकर आई. ये सस्ता था, इसे स्टोर करना आसान था और खाने में स्वाद भी आता था. इसकी डिमांड इंडिया में बढ़ती ही गई और साल 1931 में एक भारतीय कंपनी 'हिंदुस्तान वनस्पति मैन्युफैक्चरिंग कंपनी' ने इसे बनाने के राइट्स खरीदे. ये भारतीय कंपनी लीवर भाइयों की थी और बाद में हिंदुस्तान लीवर कहलाई. 1937 में मुंबई में इसकी फैक्ट्री शुरू हुई और पुरानी कंपनी डाडा में 'लीवर' का 'ल' जोड़ दिया गया. इस तरह जन्म हुआ इंडिया में सालोंसाल बिकने वाले 'डालडा' का.
2. अमूल
'अमूल दूध पीता है इंडिया'- ऐसी टैगलाइन जो 90 के दशक के लोगों आज भी याद है. मगर इसकी कहानी खेड़ा, गुजरात से शुरू होती है. अंग्रेज इंडिया में दूध को पाश्चराइज करने की तकनीत तो ले आए थे. और सरकार की बॉम्बे मिल्क स्कीम के तहत आणंद से बॉम्बे भारी मात्रा में दूध जाया करता था. लेकिन पशुपालकों को इसका कोई फायदा नहीं मिलता था. सारा प्रॉफिट सरकार और दूध की ट्रांसपोर्टर कंपनी को चला जाया करता था. न ही किसान दूध के दाम तय कर सकते थे. ऐसे में किसान वल्लभ भाई पटेल से मशविरा करने पहुंचे. सरदार पटेल ने मोरारजी देसाई के नेतृत्व में किसानों की अपना एक कोऑपरेटिव बनाने, और जबतक अंग्रेजी सरकार उनकी मांगें न मान ले, तबतक हड़ताल करने की सलाह दी. 15 दिन तक चलने वाली हड़ताल के बाद जब बॉम्बे तक एक बूंद दूध भी नहीं पहुंचा, तब सरकार ने किसानों की मांगें मान लीं.
1946 में खेड़ा डिस्ट्रिक्ट कोऑपरेटिव मिल्क प्रड्सयूर्स यूनियन लिमिटेड की शुरुआत हुई. यूनियन की मेहनत से दूध का प्रोडक्शन बढ़ते-बढ़ते खपत से भी ज्यादा हो गया. भारत सरकार ने इसके बाद यूनिसेफ और न्यूजीलैंड सरकार से ग्रांट ली. और 50 हजार रुपये लगाकर साल 1955 में कोऑपरेटिव का पहला प्लांट लगा. अब तकनीक की मदद से मक्खन और मिल्क पाउडर भी बनाया जा सकता था. यूनियन के प्रोडक्ट्स को मार्केट करने के लिए तब पहली बार 'अमूल' नाम का इस्तेमाल किया गया. 1965 में जब लाल बहादुर शास्त्री आणंद पहुंचे तो उन्होंने अमूल के जनरल मैनेजर वर्गीस कुरियन से इच्छा जताई कि अमूल का ये मॉडल पूरे देश में लागू होना चाहिए. और इस तरह अमूल भारत में होने वाली दुग्ध क्रांति की भी वजह बना.
3. डाबर
च्यवनप्राश हो, आमला तेल, पुदीन हरा यो या शहद, शायद ही ऐसा कोई घर में, जिसमें डाबर के प्रोडक्ट न दिखें. डाबर की शुरुआत साल 1884 में कलकत्ता हुई थी. और इसे शुरू करने वाले थे एक आयुर्वेदिक डॉक्टर, डॉक्टर एसके बर्मन. डॉक्टर बर्मन अपनी साइकल पर लोगों को दवाएं देने जाया करते थे. आम लोग 'डॉक्टर' को 'डाक्टर' बोलते. धीरे धीरे लोगों ने डाक्टर बर्मन को शॉर्ट में 'डाबर' बोलना शुरू कर दिया. डॉक्टर बर्मन कलकत्ते में काफी मशहूर हो गए और अपनी दवाओं के फ़ॉर्मूले को प्रोडक्ट्स के रूप में लाने लगे. डॉक्टर बर्मन की आने वाले पीढ़ियों ने बिजनेस को जारी रखा. बाद में व्यापार को दिल्ली शिफ्ट कर दिया गया. फ़िलहाल डाबर के चेयरमैन आनंद बर्मन हैं. जो इस व्यापार में परिवार की पांचवीं पीढ़ी हैं.
3. सिप्ला
अगर आप दिन की तीन गोलियां खाते हैं तो मुमकिन है उसमें से एक सिप्ला की होगी. सिप्ला की शुरुआत साल 1935 में मुंबई में हुई थी. डॉक्टर केए हमीद ने 'केमिकल, इंडस्ट्रियल एंड फार्मास्यूटिकल लिमिटेड' नाम से पहली लैब बनाई, जिसका शॉर्ट फॉर्म सिप्ला के रूप से जाना गया. 1939 में गांधी डॉक्टर हमीद से मिले और उन्हें ज़रूरतमंद पेशेंट्स के लिए एसेंशियल दवाएं बनाने की सलाह दी. 1960 तक आते आते सिप्ला बल्क में दवाएं प्रड्यूस करने लगा था. सिप्ला फिलहाल 1500 से भी ज्यादा प्रोडक्ट बना रही है. और देश की तीसरी सबसे बड़ी फार्मा कंपनी बनी हुई है.
4. पारले जी
1929 की बात है. बॉम्बे में चौहान परिवार सिल्क का व्यापार करता था. चौहान परिवार के ही मोहनलाल दयाल ने सोचा कि इंडिया में कन्फेक्शनरी यानी टॉफ़ी-कैंडी टाइप का सामान भी बनना चाहिए. उन्होंने कैंडी बनाने के लिए एक फैक्ट्री खरीदी. कैंडी बनाना सीखने के लिए मोहनलाल पहले जर्मनी गए. वहां से ज्ञान और मशीन, दोनों ही लेकर लौटे. मुंबई के गांव पारला के पास उन्होंने अपनी फैक्ट्री लगाई. 12 लोगों के साथ शुरू हुई इस फैक्ट्री में केवल चौहान परिवार के लोग ही सारा काम किया करते थे. कहानियां ऐसा कहती हैं कि ये लोग फैक्ट्री खोलने और काम करने में इतना व्यस्त हो गए कि यूनिट का नाम रखना ही भूल गए. और पारला के नाम पर वहां बनने वाली कैंडी का नाम 'पारले' रखा गया. लगभग दस साल बाद पारले ने बिस्किट भी बनाने शुरू किए जिसका नाम पारले ग्लूको रखा गया, जो समय के साथ पारले-जी हो गया.
5. निरमा
निरमा जिंगल और निरमा गर्ल सबकी स्मृति में हैं. लेकिन इसकी कहानी बेहद इमोशनल है. करसनभाई पटेल गुजरात में सरकारी नौकरी करते थे. उनकी इच्छा थी एक डिटर्जेंट पाउडर बनाने की. नौकरी के बाद वो इसी काम में लग जाते. उनकी बेटी निरुपमा, जो उन्हें बहुत प्रिय थी, को प्यार से वो 'निरमा' पुकारा करते थे. करसनभाई अपना डिटर्जेंट बनाने के बाद उसे सड़कों पर बेचा करते थे. जहां सर्फ जैसा डिटर्जेंट 13 से 15 रुपये के बीच मिलता, निरमा को करसनभाई ने 3 रुपये में बेचना शुरू किया. देखते ही देखते ये डिटर्जेंट पाउडर हिट हो गया. लेकिन दुर्भाग्यवश करसनभाई ने अपनी बेटी निरमा को एक कार एक्सीडेंट में खो दिया. जिसके बाद उन्होंने अपने पाउडर का ब्रांड नेम निरमा रखा और पैकेट पर अपनी बेटी की तस्वीर को छपवाया. वो अपनी बेटी का नाम अमर कर देना चाहते थे. धीरे-धीरे ये पाउडर अमहदाबाद से निकलकर देश भर में पहुंच गया.
6. तनिष्क
टाइटन कंपनी के डिवीज़न 'तनिष्क' को किसी इंट्रोडक्शन की ज़रुरत नहीं है. तनिष्क कि शुरुआत 18 कैरट गोल्ड की घड़ियों से हुई थी. 1994 में जब कंपनी शुरू हुई तो 18 कैरट गोल्ड में जड़े स्टोंस वाली घड़ी बनाने के लिए इसका चर्चा हुआ. मगर जल्द ही ये एक जूलरी ब्रांड में बदल गई. इसके नाम की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है. टाटा ग्रुप के साथ लंबे समय तक काम कर चुके ज़र्कसीस देसाई, जो तनिष्क के सीईओ भी थे, ने ये नाम रखा. तनिष्क का 'TA' टाटा से आया और 'निष्क' मूलरूप से संस्कृत का शब्द है जिसका मतलब होता है सोने के आभूषण. इस तरह तनिष्क नाम रखा गया. तमिलनाडु से शुरू होने वाला ये ब्रांड आज देश के सबसे बड़े जूलरी ब्रांड्स में शामिल है.
Edited by Prateeksha Pandey