आख़िर दिल्ली में स्थित दरवाजों का नाम कश्मीरी गेट, अजमेरी गेट, दिल्ली गेट, लाहौरी दरवाज़ा क्यों पड़ा
दिल्ली शहर के ऐतिहासिक प्रवेश द्वारों से जुड़ी एक समृद्ध विरासत है. 1649 में निर्मित मुगल सम्राट शाहजहां के नाम पर सातवें शहर शाहजहांनाबाद में 14 प्रवेश द्वार थे. ये द्वार शहर की सुरक्षा के साथ-साथ लोगों को शहर तक पहुंचने और अन्य स्थानों पर जाने में मदद करने के लिए बनाए गए थे. आज जो दरवाज़े हमारे बीच हैं, वो हैं- उत्तर में कश्मीरी गेट, दक्षिण-पश्चिम में अजमेरी गेट, दक्षिण-पूर्व में दिल्ली गेट, दक्षिण में तुर्कमान गेट और उत्तर-पूर्व में निगमबोध गेट. आज हम दिल्ली में स्थित कुछ ऐसे प्राचीन और ऐतिहासिक दरवाजों के बारे में बात करेंगे, जिनका महत्व और वास्तुकला आज भी बरकरार है.
कश्मीरी गेट
ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण कश्मीरी गेट दिल्ली का एकमात्र ऐसा द्वार है जिससे होकर आज भी यातायात चलता रहता है. क्योंकि यह उत्तर-पश्चिमी दीवार में स्थित है जो कश्मीर की तरफ की दिशा भी थी दिल्ली से, इसलिए इसे कश्मीरी गेट के नाम से जाना जाने लगा.
1857 में स्वतंत्रता के सिपाही विद्रोह में इस गेट का महत्व बढ़ गया था. मेरठ से शुरू हुआ विद्रोह जब दिल्ली पहुंचा, तब स्वतंत्रता सेनानियों ने इस क्षेत्र की गोलबंदी कर अपनी लड़ाई की रणनीति यहीं से बनाई थी. हालांकि, अंग्रेज इनकी घेराबंदी को चार महीनों के बाद तोडने में कामयाब हो गए थे.
अजमेरी गेट
अजमेरी गेट दिल्ली में शाहजहांनाबाद के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है, जिसका निर्माण 1644 से 1649 के बीच में किया गया था. इस दरवाजे का नामकरण अजमेरी दरवाजा हुआ, क्योंकि यह सीधे राजस्थान स्थित अजमेर शरीफ की ओर जाता था. दरवाजे का प्रवेश मेहराबनुमा है.
इसके इर्द-गिर्द की दीवार अब कहीं नज़र नहीं आती. भीड़भाड़ और शोरशराबे से घिरा अजमेरी गेट एकदम खामोश सा खड़ा होता है.
तुर्कमान गेट
कनाट प्लेस से पुरानी दिल्ली की ओर जाने पर रास्ते में रामलीला मैदान के पास एक ऐतिहासिक दरवाजा नजर आता है. यह है दिल्ली के सबसे प्राचीन और लोकप्रिय दरवाजों में से एक- तुर्कमान गेट.
इसका निर्माण साल 1650 और 1958 के बीच शाहजहां ने करवाया था. इसका नाम सूफी संत शाह तुर्कमान बयाबानी के नाम पर है. रजिया सुल्तान शाह तुर्कमान की अनुयायी थीं. 1240 में शाह तुर्कमान को उस समय दिल्ली से कुछ दूर पड़ने वाले इस हिस्से में दफनाया गया था.
आपातकाल के नरसंहार के बाद 1976 में यह नाम क्रूरता और भय का पर्याय बन गया था और पूरे देश में जाना जाने लगा.
लाल दरवाजा
लालकिले से करीब 1 किमी की दूरी और बहादुरशाह जफर मार्ग पर दिल्ली गेट के पास स्थित इस दरवाजे को कई नामों जैसे ‘लाल दरवाजा,’ ‘खूनी दरवाजा’ या ‘काबुली दरवाजा’ आदि से जाना जाता है.
इसका निर्माण सूर साम्राज्य के संस्थापक अफगानी सरदार शेरशाह सूरी ने करवाया था. इस दरवाजे का निर्माण बादशाह ने फिरोजाबाद के लिए किया गया था क्योंकि उस वक्त अफगानिस्तान से आने वाले तमाम लोग इस दरवाजे से ही गुजारते थे. यह दरवाजा लगभग 15.5 मीटर ऊंचा है और इसके निर्माण में क्वार्टजाइट पत्थर का इस्तेमाल हुआ है.
इस दरवाज़े का ‘खूनी दरवाजा’ नाम पड़ने के पीछे इससे जुडी कुछ कहानियां हैं, जिनको सत्यापित करना संभव नहीं है.
लाल दरवाजा यानी खूनी दरवाजा का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम यानी 1857 से खास नाता है. कुछ दिनों तक तो दिल्ली बागी भारतीय सिपाहियों के कब्जे में रही लेकिन कुछ समय पर दिल्ली पर वापस ब्रिटिश फौज का कब्जा हुआ. इसके साथ ही दिल्ली के अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर को भारी दबाव में उनका नेतृत्व स्वीकार किया था. कुछ लोगों का मानना है कि यहीं पर लेफ्टिनेंट हडसन ने बहादुर शाह जफर के दो बेटों और एक नाती या पोते की हत्या की थी. एक और मान्यता के अनुसार औरंगज़ेब ने अपने बड़े भाई दारा शिकोह को सिंहासन की लड़ाई में हरा कर उसके सिर को इस दरवाजे पर लटकवा दिया था.
एक और कहानी यह है कि अकबर के बाद जब जहांगीर मुग़ल सम्राट बना तो अकबर के कुछ नवरत्नों ने उसका विरोध किया. जवाब में जहांगीर ने नवरत्नों में से एक अब्दुल रहीम खाने-खाना के बेटों की यहीं करवाई थी.
ऐसा भी कहा जाता है कि भारत के विभाजन के दौरान हुए दंगों में भी पुराने किले की ओर बढ़ते हुए कुछ शरणार्थियों को यहां मार डाला गया था.
इतिहास की कई घटनाओं को अपने दामन में छिपाये ‘खूनी दरवाजा’ अब पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीन है.
निगमबोध गेट
निगमबोध गेट का निर्माण शाहजहांनाबाद के उत्तर पूर्वी हिस्से में यमुना बाजार के पास रिंग रोड पर किया गया था.
लाल किला गेट्स- लाहौरी गेट और दिल्ली गेट
लाल किले के दो द्वार हैं- लाहौरी द्वार और दिल्ली द्वार.
लाहौरी द्वार
लाहौरी गेट लाल किले के प्रवेश करने का मुख्य दरवाज़ा है. यह अब पुलिस द्वारा सुरक्षित है क्योंकि भारत के प्रधान मंत्री यहां गणतंत्र दिवस पर भारत का झंडा फहराते हैं.
दिल्ली गेट
दरियागंज के प्रवेश पर स्थित दिल्ली गेट उस वक़्त मुख्य प्रवेश द्वार था जो लाल किले को शहर से जोड़ता था. इस दरवाज़े का निर्माण 1638 में बादशाह शाहजहां ने करवाया था. अब इसे दरियागंज के नाम से जाना जाता है जो कश्मीरी गेट की ओर जाता है जबकि बाहरी सड़क हजरत निजामुद्दीन की ओर जाती है.
1638 में निर्मित, यह दीवार के दक्षिणी भाग में है. पूर्व की दीवार का एक हिस्सा अभी भी मौजूद है लेकिन रेलवे स्टेशन के लिए रास्ता बनाने के लिए पश्चिम की दीवार को नष्ट कर दिया गया है.
दिल्ली के अन्य दरवाज़े लगातार संघर्षो की भीषण तपिश महसूस करते रहे, लेकिन दिल्ली गेट ने 1804 से पहले तक कोई बड़ी घटना नहीं देखी थी. 1804 में जब मराठा जसवंत राव होल्कर ने राजधानी दिल्ली पर हमला किया था तो कर्नल ओक्टरलोनी ने गेट और उस पर से तुर्कमान और अजमेरी गेट तक फैली दीवार का बचाव किया था.
कहा जाता है कि पटपड़गंज की लड़ाई के बाद, शाह आलम से मिलने के लिए लार्ड लेक ने इस द्वार से शहर में प्रवेश किया था, लेकिन कुछ इतिहासकारों का मत इससे भिन्न हैं.
Edited by Prerna Bhardwaj