बायोमास ईंधन से पका खाना स्वास्थ्य के लिए खतरनाक: IIT मंडी स्टडी
IIT मंडी के अध्ययन से पूर्वोत्तर भारतीय राज्यों में बायोमास ईंधन का उपयोग करके खाना पकाने से स्वास्थ्य पर होने वाले खतरों के बारे में पता चला है.
हाइलाइट्स
- पूर्वोत्तर भारतीय राज्यों की 50% से अधिक ग्रामीण आबादी पारंपरिक ईंधनों पर निर्भर है, जिससे उनके घरों में हानिकारक एयरोसोल का स्तर काफी बढ़ जाता है
- यह अध्ययन इस बात पर जोर देता है कि इन राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छ ईंधनों की ओर परिवर्तनात्मक कदम उठाने की आवश्यकता है
IIT मंडी के शोधकर्ताओं ने फ्रांस के इंस्टीट्यूट नेशनल डी रेचेर्चे एट डी सेक्यूरिटे (INRS) और भारत के राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला (CSIR-NPL) के सहयोग से पूर्वोत्तर भारत के तीन राज्यों के ग्रामीण रसोईघरों में पारंपरिक ईंधन के उपयोग से खाना पकाने के तरीकों से होने वाले वायु प्रदूषण के हानिकारक प्रभावों पर एक व्यापक अध्ययन किया है. आईआईटी मंडी के एक शोध दल, जिसमें पीएचडी शोधकर्ता बिजय शर्मा और स्कूल ऑफ सिविल एंड एनवायरनमेंटल इंजीनियरिंग के सहायक प्रोफेसर डॉ सायंतन सरकार और उनके सहयोगियों ने तीन शोध पत्रों की एक श्रृंखला में जलाऊ लकड़ी और मिश्रित बायोमास का उपयोग करके इनडोर खाना पकाने के दौरान उत्पन्न होने वाले हानिकारक उत्सर्जनों की मात्रा और परिणामों का विश्लेषण किया है.
उन्नत प्रगति के बावजूद भी पूर्वोत्तर भारत (असम, अरुणाचल प्रदेश और मेघालय) में ग्रामीण आबादी के 50% से अधिक लोग खाना पकाने के लिए अभी भी पारंपरिक ठोस ईंधन जैसे जलाऊ लकड़ी और मिश्रित बायोमास का उपयोग करते हैं, जिससे रसोई की हवा में भारी मात्रा में प्रदूषक रह जाते हैं. हाल ही में किए गए शोध का उद्देश्य एलपीजी-आधारित खाना पकाने की तुलना में बायोमास ईंधन का उपयोग करने से जुड़ी गंभीरता और बीमारी के बोझ का आकलन करना था.
इस शोध में शोधकर्ताओं ने यह समझने की कोशिश की कि लकड़ी, मिश्रित बायोमास और एलपीजी का उपयोग करके खाना पकाने के दौरान हवा में क्या निकलता है. उन्होंने मापा कि हवा में कितने छोटे कण तैर रहे हैं, इन कणों में कौन-कौन सी हानिकारक धातुएँ और ऑर्गेनिक रसायन मौजूद हैं, और ये कण हमारे फेफड़ों के किन हिस्सों में जमा होते हैं. अंत में, उन्होंने गणना की कि खाना पकाने के दौरान हम इन हानिकारक तत्वों को साँस के जरिए कितना ग्रहण कर लेते हैं.
इसमें शोधकर्ताओं ने यह जानने की कोशिश की कि हवा में मौजूद हानिकारक कणों और रसायनों के संपर्क में आने से पूर्वोत्तर भारत के ग्रामीण लोगों को कितना स्वास्थ्य नुकसान हो सकता है. उन्होंने विशेष रूप से सांस की बीमारियों और कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों पर ध्यान दिया और यह आकलन किया कि इन बीमारियों के कारण कितने लोगों की अकाल मृत्यु हो सकती है और कुल मिलाकर इससे वह अपने कितने साल खो सकते हैं. उन्होंने इसके लिए PYLL मीट्रिक का इस्तेमाल किया, जो बताता है कि किसी बीमारी या स्वास्थ्य समस्या के कारण लोग कितने साल कम जीते हैं.
जलाऊ लकड़ी/बायोमास ईंधन का उपयोग करने वाले रसोईघरों में हानिकारक एयरोसोल और रसायनों के संपर्क में आना एलपीजी का उपयोग करने वाले रसोईघरों की तुलना में 2 से 19 गुना अधिक था. इसका मतलब है कि इन रसोईघरों में साँस लेने वाली हवा में कहीं ज्यादा हानिकारक पदार्थ मौजूद होते हैं. इन एयरोसोल में से 29 से 79% तक सीधे हमारे श्वसन तंत्र में जमा हो जाते हैं, जिससे फेफड़ों को नुकसान पहुँचने का खतरा बढ़ जाता है. जलाऊ लकड़ी और मिश्रित बायोमास ईंधन का उपयोग करने वाले लोगों में एलपीजी उपयोगकर्ताओं की तुलना में 2 से 57 गुना अधिक बीमारी का खतरा पाया गया. इसका मतलब है कि पारंपरिक ईंधन का उपयोग करने वाले लोग सांस की बीमारियों और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं से ज्यादा ग्रस्त हो सकते हैं.
अध्ययन ने एक और चिंताजनक पहलू सामने लाया है. शोधकर्ताओं ने पाया कि बायोमास ईंधन का उपयोग करने वाले रसोईघरों में रहने वाले लोगों में ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस होने की संभावना एलपीजी उपयोगकर्ताओं की तुलना में 4-5 गुना अधिक थी. ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस एक ऐसी प्रक्रिया है जो हमारी कोशिकाओं, प्रोटीनों और डीएनए को नुकसान पहुंचा सकती है और गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकती है. यह नुकसान बायोमास ईंधन जलाने से निकलने वाली धातुओं और ऑर्गेनिक रसायनों को साँस लेने के कारण होता है.
आईआईटी मंडी के स्कूल ऑफ सिविल एंड एनवायरनमेंटल इंजीनियरिंग के सहायक प्रोफेसर डॉ सायंतन सरकार ने इस शोध की विशिष्टता के बारे में बताते हुए कहा, "हमारा अध्ययन खाना पकाने से होने वाले उत्सर्जनों के श्वसन तंत्र पर पड़ने वाले प्रभाव का मजबूती से अनुमान लगाने के लिए वास्तविक ग्रामीण रसोईघरों में एयरोसोल के मापन को डोज़ीमेट्री मॉडलिंग के साथ जोड़ता है. यह भारत में घर के अंदर खाना पकाने के उत्सर्जन के संपर्क में आने से होने वाली बीमारी के बोझ का अनुमान लगाने का पहला प्रयास है, जिसे खोए हुए संभावित जीवन वर्षों के रूप में मापा गया है. यह अध्ययन भारतीय संदर्भ में इस तरह के जोखिम के परिणामस्वरूप ऑक्सीडेटिव तनाव की क्षमता को पहली बार मापता है, और स्वच्छ ईंधन एलपीजी का उपयोग करने वालों की तुलना में बायोमास उपयोगकर्ताओं को होने वाले अतिरिक्त जोखिम को निर्धारित करता है."
इस शोध के नतीजे काफी महत्वपूर्ण हैं और इनसे कुछ व्यावहारिक सुझाव मिलते हैं. सबसे अहम बात यह है कि पूर्वोत्तर भारत के ग्रामीण समुदायों को स्वच्छ ईंधन के उपयोग कर खाना पकाने के तरीकों की ओर तेजी से जाना चाहिए. ऐसा करने के लिए निम्नलिखित उपाय सुझाए गए हैं:
- एलपीजी गैस को अधिक सुलभ बनाना: एलपीजी का इस्तेमाल बढ़ाने के लिए इसे सस्ती दरों पर उपलब्ध कराना और वितरण प्रणाली को मजबूत करना जरूरी है.
- बेहतर चूल्हों को बढ़ावा देना: पारंपरिक चूल्हों की तुलना में कम धुआं पैदा करने वाले बेहतर चूल्हों का इस्तेमाल ग्रामीण इलाकों में बढ़ाया जाना चाहिए.
- ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता फैलाना: लोगों को पारंपरिक ईंधन के नुकसान और स्वच्छ विकल्पों के फायदों के बारे में शिक्षित करना जरूरी है.
- स्थानीय समाधानों के लिए धन उपलब्ध कराना: स्थानीय स्तर पर स्वच्छ ऊर्जा के उत्पादन और वितरण के लिए आर्थिक मदद देना चाहिए.
- ग्रामीण महिलाओं के लिए स्वास्थ्य शिविरों का आयोजन: ग्रामीण महिलाएं घर के अंदर धुएं के संपर्क में ज्यादा आती हैं, इसलिए उनके स्वास्थ्य की जांच और इलाज के लिए नियमित रूप से स्वास्थ्य शिविर लगाए जाने चाहिए.
यह शोध तीन अलग-अलग अध्ययनों के रूप में प्रकाशित हुआ है, जिन्हें दो अलग-अलग पत्रिकाओं "Science of the Total Environment" और "Environmental Pollution" में प्रकाशित किया गया है.