बंदरों की ऐसी प्रजाति जिसमें संतान के लिए बहू चुनती है मां
बोनोबो वानर प्रजाति के मानवोचित व्यवहार के संबंध में एक ताज़ा वैज्ञानिक खोज में दावा किया गया है कि उनमें मादाओं का, मातृ-सत्ता का बोलबाला रहता है। बोनोबो समाज में मांएं ही अपनी पुत्र-संतानों के लिए बहू चुनती हैं। उनके नर-मादा में विवाद हिंसा नहीं, प्रेम से निपटाए जाते हैं। उनके बच्चे मां के ज्यादा
वक़्त के साथ विज्ञान भी नई-नई सूचनाओं के अंबार लगाता रहता है, खोज-अन्वेषण चलते रहते हैं। मनुष्य के आदिकाल से जुड़े एक चौंकाने वाले ताज़ा रिसर्च में वैज्ञानिकों ने चिंपैंजी आदिम प्रजाति-परिवार के बोनोबो के बारे में खुलासा किया है कि उनके परिवार में मां अपने बच्चों के रिश्ते तय करने, बहू-दामाद चुनने में अपने रोब-रुतबे का जमकर इस्तेमाल करती है। लुप्त होने का खतरा झेल रहे बोनोबो वानर कॉन्गो में पाये जाते हैं। वे ऐसे जंगल-समाजों में रहते हैं, जहां मादाओं का बोलबाला रहता है और उनके आपसी विवादों का फैसला हिंसा से नहीं, प्रेम से होता है। वैज्ञानिक दावा करते हैं कि भारत और दूसरे कई देशों में जिस तरह बहुओं को चुनने में मां की केंद्रीय भूमिका होती है, कुछ वैसा ही प्राचीन बोनोबो समाजों में भी रहा है।
बोनोबो वानर प्रजाति के मानवोचित निकटता के ताज़ा संदर्भ के साथ बेंगलूरु (कर्नाटक) से चार सौ किलो मीटर दूर स्थित गांव अलापुर के एक बच्चे समर्थ का वाकया गौरतलब है। समर्थ के लंगूर दोस्त रोजाना उससे मिलने आते हैं। अगर वह सो रहा होता है तो उसे नींद से उठा दते हैं और उसके साथ खूब खेलते हैं। समर्थ अभी दो-तीन साल का ही है और ठीक से बोल भी नहीं पाता लेकिन बंदरों के साथ उसका गहरा याराना है। समर्थ के चाचा बरामा रेड्डी बताते हैं कि पहले हम सभी गांववालों को डर लगता था कि कही ये बंदर, समर्थ के माता-पिता की गैरमौजूदगी में उस पर हमला न कर दें लेकिन जल्द ही हम समझ गए कि बंदर और समर्थ एक दूसरे के साथ आपस में बेहद ही सहज हैं। हालांकि न केवल बच्चे का बल्कि बंदरों का भी समर्थ के साथ इस तरह का व्यवहार आसपास के लोगों के लिए हैरानी का विषय बना हुआ है।
वैज्ञानिक बताते हैं कि चिंपैंजी लगभग साठ लाख वर्ष पहले मानव विकास की प्रक्रिया से अलग हो गए थे। चिंपैंजी की दो प्रजातियाँ मनुष्य की सबसे करीबी हैं। सन् 1973 में मैरी-क्लेयर किंग के शोध में मनुष्यों और चिंपैंजियों के बीच 99 प्रतिशत एक समान डीएनए पाए गए थे लेकिन चिंपैंजी के जीवाश्मों के बारे में 2005 तक कोई नया शोध सामने नहीं आ सका था। अब चिंपैंजी के जीवाश्मों के बारे में केन्या से जानकारी सामने आई है कि प्लेस्टोसीन काल के दौरान मनुष्य और चिंपैंजी परिवारों के सदस्य एक साथ पूर्वी अफ्रीकी रिफ्ट वैली में मौजूद थे। अध्ययनों में बताया गया है कि बोनोबो समाज में मादाओं का स्थान ऊँचा है। मादाओं और नरों के बीच लड़ाई की स्थिति कम ही आती है और नर अपनी प्रजाति के बच्चों और वयस्क आयु तक नहीं पहुँचने वाले सदस्यों के प्रति सहिष्णुता दिखाते हैं। इस प्रजाति में माँ और बच्चों का सम्बन्ध शक्तिशाली है तथा पूरे जीवनकाल तक बना रहता है। हालाँकि एक उच्च श्रेणी की मादा का बेटा छोटी श्रेणी की मादा से ऊँचा होता है, फिर भी अन्य वानरों की तुलना में बोनोबो समाज में महत्व कम है।
बोनोबो आम चिम्पांजी की तुलना में थोड़ा छोटा और दुर्बल होता है लेकिन इसके हाथ-पैर लम्बे होते हैं। बोनोबो दोनों अपने हाथों और बाजुओं से किसी चीज को उठाकर ले जाते समय दो पैरों पर सीधे खड़े होकर चल सकते हैं। बोनोबो ज्यादातर फलाहारी होता है। उसका आचरण समतावादी, अहिंसक, मातृसत्तात्मक और शारीरिक संबंधों के लिए ग्रहणशील होता है। एक अध्ययन में मानव शिशु और बोनोबोज के गुदगुदी करने पर निकाली गई आवाजों का विश्लेषण कर उन्हें रिकार्ड किया गया तो पता चला कि बोनोबो की हँसी उच्च आवृत्ति की मानव शिशुओं के समान होती है। हंसते समय उनके चेहरे के भाव भी मानव शिशु की तरह होते हैं। बोनोबो को मनुष्य का शांतिप्रिय, परोपकारी और कामुक प्राचीन रिश्तेदार माना जाता है। तुलनात्मक रूप से हिंसक और पितृसत्तात्मक माने जाने वाले चिंपैंजियों से उलट बोनोबा प्रजाति में मादा मां अपने अधिकार का इस्तेमाल कर यह तय करती है कि उनके बेटे को जीवनसाथी के रूप में आकर्षक और अच्छे बच्चों को जन्म देने वाली मादा मिले। दूसरे नर से मुकाबले में वो अपने बेटे का साथ दे कर और दूसरे तरीकों का उपयोग कर उन के लिए अच्छी मादा का इंतजाम करती है।
हाल ही में जर्नल करेंट बायोलॉजी में छपे एक रिसर्च में माक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर इवॉल्यूशनरी एंथ्रोपोलॉजी के प्राइमेटोलॉजिस्ट मार्टिन सुरबेक ने बताया है कि पहली बार हम दिखा सकते हैं कि मां की मौजूदगी का असर नर के बेहतर स्वास्थ्य पर बहुत अहम है और यह उनकी बच्चे पैदा करने की क्षमता में है। हम यह देख कर हैरान है कि मांओं का इस बात पर कितना मजबूत और सीधा नियंत्रण है कि उनके कितने पोते पोतियां होंगे। इस रिसर्च के लिए सुरबेक और उनके साथियों ने डोमोक्रैटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो में जंगली बोनोबो की आबादी के साथ ही आइवरी कोस्ट, तंजानिया और युगांडा में चिंपैंजी की आबादी का भी अध्ययन किया। उन्हें दिखा कि बोनोबो और चिंपैंजी दोनों समुदाय में मां अपने बेटे की मदद करने की कोशिश करती है लेकिन बोनोबो मां इस कोशिश में ज्यादा सफल होती है क्योंकि उनके समुदाय में उच्च पदों पर महिलाओं का प्रभुत्व और नियंत्रण ज्यादा है।
चिंपैंजियों के समुदाय में नर ज्यादा प्रभावशाली हैं
अपने ताज़ा रिसर्च पर प्रकाश डालते हुए सुरबेक बताते हैं कि बोनोबो मां एक तरह से सोशल पासपोर्ट की तरह काम करती हैं। उनके बेटे अपनी मां की बदौलत अपने गुट की मुख्यधारा में रहते हैं। ऐसे में उन्हें ज्यादा मादाओं से मेलजोल रखने का मौका मिलता है। कई बार बेटों को इसका खामियाजा भी उठाना पड़ता है। मां का मुखिया का पद छिन जाए तो बेटे की पदवी भी चली जाती है और तब जोड़ा बनाने में उसे कम कामयाबी मिलती है। बोनोबो मां अपनी बेटियों के लिए यह कवायद नहीं करती, न ही उसके बच्चों के पालन पोषण में उसकी मदद करती है। सुरबेक की अवधारणा है कि बोनोबो बेटियां समुदाय छोड़ देती हैं और नर पीछे रह जाते हैं। इसलिए मां के लिए वंशवृद्धि फायदे का सौदा नहीं रह जाती है। सुरबेक की टीम ने दावा किया है कि उनके पास तथाकतित 'ग्रैंडमदर हाइपोथिसिस' के सबूत हैं। इस अवधारणा के मुताबिक अपने बच्चों के प्रजनन की सफलता तय कर एक मादा प्रजनन के बाद भी अपने जीन को सलामत रख सकती है।
वैसे भी वैज्ञानिक लंबे समय से भाषा के अध्ययन के प्रति इस विश्वास के साथ आकर्षित हैं कि यह एक अद्वितीय मानव संज्ञानात्मक क्षमता है। इस परिकल्पना का परीक्षण करने के लिए वैज्ञानिकों ने विशालकाय वानरों की कई प्रजातियों को मानवीय भाषा सिखाने का प्रयास किया है। 1960 के दशक में एलन और बीट्रिस गार्डनर द्वारा की गई एक शुरुआती कोशिश में वाशू नामक एक चिंपैंजी को अमेरिकी सांकेतिक भाषा सिखाने के लिए 51 महीने का समय बिताना पड़ा। गार्डनर बताते हैं कि वाशू ने 151 संकेतों को सीख लिया था और यह कि उसने तत्काल इन्हें अन्य चिंपैन्जियों को सिखा दिया था।
एक लंबी अवधि में वाशू ने 800 से अधिक संकेतों को सीख लिया था। क्योटो विश्वविद्यालय के प्राइमेट रिसर्च इन्स्टीट्यूट में तीस साल तक किए गए एक अध्ययन में बताया गया है कि चिंपैंजी एक से नौ तक की संख्याओं और उनके मानों की पहचान करना सीखने में सक्षम साबित हो चुके हैं। इन्ही वजहों, मानवायी सरोकारों के चलते नवंबर 2007 तक अमेरिका की 10 प्रयोगशालाओं में चिकित्सा प्रयोगों के लिए कैद तीन हजार विशाल वानरों में मौजूद 1300 चिंपैंजी को मुक्त करने के लिए जीव विज्ञानियों ने अभियान चलाना शुरू कर दिया। शोधकर्ताओं का तर्क है कि इनका इस्तेमाल प्रयोगशालाओं में न कर इनके साथ मानवोचित व्यवहार होना चाहिए। प्रयोगशालाओं से मुक्त चिंपैंजी तनावग्रस्त पाए गए हैं। अब तो सरकारों की ओर से भी उन पर हो रहे शोध पर प्रतिबंध लगाने की मांग लगातार बढ़ती जा रही है। वर्ष 2006 से ऑस्ट्रिया, न्यूजीलैंड, नीदरर्लैंड, स्वीडन और ब्रिटेन में इस तरह के प्रतिबंधों की शुरुआत हो चुकी है।
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