मदर टेरेसा की अनकही कहानी
1997 में 87 साल की उम्र में मदर टेरेसा के निधन के 19 साल बाद वेटिकन ने उन्हें जोन ऑफ आर्क की तर्ज पर संत की उपाधि से विभूषित किया.
सितंबर, 2016. रविवार का दिन था. वेटिकन सिटी के सेंट पीटर स्क्वायर में एक लाख बीस हजार लोगों की भीड़ जमा थी. उस भीड़ को संबोधित करने के लिए रोमन कैथलिक चर्च के पोप फ्रांसिस वहां मौजूद थे. उस दिन तकरीबन सवा लाख लोगों की भीड़ के सामने पोप फ्रांसिस ने मदर टेरेसा को ‘सेंट’ (संत) की उपाधि दी. बिलकुल वैसे ही जैसे, इसके पहले सेंट निकोलस, जोन ऑफ आर्क जैसे लोगों को वेटिकन संत की उपाधि दे चुका था.
वेटिकन उन लोगों को संत की उपाधि से विभूषित करता है, जिनके बारे में उसका यकीन है कि अपनी पवित्रता और नेकनियती के कारण वे सीधे ईश्वर से संवाद करते हैं और मृत्यु के बाद भी दुनिया में उनका प्रभाव रहता है. 5 सितंबर, 1997 को लंबी बीमारी के बाद 87 साल की उम्र में मदर टेरेसा का निधन हुआ था और उसके 19 साल बाद वह जोन ऑफ आर्क की तरह संत की उपाधि से विभूषित हुईं.
ऑटोमन में साम्राज्य में आग्नेस का जन्म
26 अगस्त, 1910 को अल्बानिया के स्कोपजे में मदर टेरेसा का जन्म हुआ. उनके जन्म का नाम आग्नेस था. स्कोपजे, जो अब नॉर्थ मेसोडोनिया की राजधानी है, तब ऑटोमन साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था. जन्म के अगले दिन ही नन्ही आग्नेस का बपतिस्मा हुआ, जिस दिन को वह अपना असली जन्मदिन मानती थीं. पिता निकोल तत्कालीन ऑटोमन मेसोडोनिया की राजनीति में काफी सक्रिय थे, लेकिन 1919 में उनका निधन हो गया. आग्नेस तब सिर्फ 8 साल की थीं.
जोन क्लूकज की लिखी मदर टेरेसा की बायोग्राफी के मुताबिक 12 साल की उम्र में उन्होंने कहीं पढ़ा कि ग्लोब के दक्षिण में भारत नाम का एक देश है, जहां ईसाई मिशनरियां गरीबों की सेवा का काम कर रही हैं. तब से ही उनके मन में भारत आने की इच्छा थी. 15 साल की उम्र तक वो तय कर चुकी थीं कि अपना जीवन उन्हें क्राइस्ट और वंचितों की सेवा में लगाना है. 18 साल की होते-होते उन्होंने घर छोड़ दिया, आयरलैंड चली गईं और सिस्टर्स ऑफ लोरेटो ज्वॉइन कर लिया. उन्हें अंग्रेजी नहीं आती थी और मिशनरी से जुड़ने के लिए भाषा जानना जरूरी था. एक बार घर छोड़ने के बाद वह अपनी मां और बहनों से फिर कभी नहीं मिलीं.
मदर टेरेसा का भारत आना और बांग्ला सीखना
1929 में मदर टेरेसा भारत आईं और यहां दार्जिलिंग एक मिशनरी में ट्रेनिंग लेनी शुरू की. यहां उन्होंने बंगाली भाषा सीखी और 24 मई, 1931 को ट्रेनिंग पूरी होने के बाद पहली धार्मिक प्रतिज्ञा ली. उन्होंने प्रण किया कि आजीवन अविवाहित रहेंगी और मिशनरी में रहकर सेवा करेंगी. यहां से उनका नाम बदलकर मदर टेरेसा रखा गया. कुछ साल दार्जिलिंग के एक कॉन्वेंट में पढ़ाने के बाद उन्होंने कलकत्ता जाने का फैसला किया. 1950 में उन्होंने कलकत्ता में ‘मिशनरी ऑफ चैरिटी’ की स्थापना की. उस दिन से उन्होंने दो नीले बॉर्डर वाली सफेद साड़ी पहननी शुरू की, जो आजीवन उनका परिधान रहा.
1950 में मिशनरीज ऑफ चैरिटी की शुरुआत से लेकर मृत्युपर्यंत उन्होंने बेघर, गरीब, बीमार और असहाय लोगों की सेवा का काम किया. उन दिनों लेप्रेसी यानि कुष्ठ रोग काफी होता था. उन्होंने कुष्ठ रोगियों के लिए अलग से एक अस्पताल और रहने की सुविधा शुरू की. नाम था शांति नगर. 1955 में उन्होंने अनाथ बच्चों और किशोरों के लिए निर्मला शिशु भवन की स्थापना की.
मदर टेरेसा के संस्मरणों से
मदर टेरेसा के बारे में ये वो कहानियां हैं, जो सैकड़ों बार सुनाई गई हैं. लेकिन इसके अलावा उनके व्यक्तित्व के कुछ ऐसे पहलू भी हैं, जिसका जिक्र उनके संस्मरणों और अन्य लोगों द्वारा उन पर लिखी किताबों में मिलता है.
मदर टेरेसा के संस्मरणों और निजी खतों की एक किताब ‘कम बी माय लाइट’ (Come Be My Light) को पढ़कर लगता है कि वह जीवन में हमेशा इतनी सबल और समर्पित नहीं थीं. ऐसा भी वक्त रहा, जब उन्होंने कमजोरी और निराशा महसूस की. जब उन्होंने ईश्वर को और अपने विश्वास को शक की नजर से देखा. उस किताब में एक जगह वह लिखती हैं- “पता नहीं, ये सब सच है भी या नहीं. कभी-कभी लगता है कि मेरे भीतर बहुत गहरे कहीं सिर्फ खालीपन और अंधेरा है.”
मदर टेरेसा के मिथक का टूटना
मदर टेरेसा के साथ काम कर चुकी कुछ ईसाई नन महिलाओं ने उनके बारे में काफी चौंकाने वाले संस्मरण लिखे हैं. वो लिखती हैं कि अनुशासन और तपस्या के नाम पर वह कई बार ननों के साथ बहुत क्रूर व्यवहार करती थीं. मदर टेरेसा के साथ 9 साल तक काम करने वाली एक नन सूसन शील्ड्स ने एक किताब लिखी है- ‘द मिथ ऑफ मदर.’ उस किताब में वह लिखती हैं कि सैन फ्रांसिस्को में एक तीन मंजिला कॉन्वेंट में एक मिशनरी थी, जहां बहुत सारी नन रहती थीं. मदर टेरेसा ने त्याग और तपस्या की ट्रेनिंग देने के नाम पर उस कॉन्वेंट में रखे सारे गद्दे, पलंग, कुर्सियां और सोफे फिंकवा दिए. भरी सर्दियों में महीनों तक हीटर बंद रखा गया. भयानक सर्दी थी और हम पूरी रात जमीन पर लेटे ठंड में कांपते रहते थे. गद्दा, पलंग, सोफा कुछ भी नहीं था. मैं उस वक्त वहीं थी. ननें बुरी तरह बीमार पड़ गईं. कई ननों को टीबी और निमोनिया हो गया.
क्रिस्टोफर हिचेंस की बेस्टसेलिंग किताब ‘द मिशनरी पोजीशन’ ने भी उनके जीवन से जुड़े कई चौंकाने वाले पहलुओं को उजागर किया है. क्रिस्टोफर लिखते हैं कि एक बार एक नामी बाइकर चार्ल्स कीटिंग ने मदर टेरेसा की मिशनरी को 5 लाख डॉलर डोनेट किए. बाद में पता चला कि वो पैसे दरअसल चोरी के थे. लॉस एंजेल्स के डिस्ट्रिक्ट अटॉर्नी ने मदर टेरेसा से वो पैसे लौटाने को कहा, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया और अटॉर्नी के खत का कोई जवाब ही नहीं दिया. इतना ही नहीं, उन्होंने जॉन रोजर नाम के एक बेहद भ्रष्ट और क्रिमिनल आरोपों से घिरे व्यक्ति से भी 10,000 डॉलर का डोनेशन लिया.
बीबीसी4 ने मदर टेरेसा के मिशनरी ऑफ चैरिटी पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई थी- ‘हेल्स एंजेल’ (Hell’s Angel). यह फिल्म बताती है कि दुनिया भर से लाखों लोग इस मिशनरी के लिए डोनेशन देते थे, लेकिन उन पैसों का कहां और कैसे इस्तेमाल हो रहा है, इस बात को लेकर कोई पारदर्शिता नहीं थी. भारतीय मूल के डॉक्टर और लेखक अनूप चटर्जी ने एक किताब लिखी है- ‘मदर टेरेसा: द अनटोल्ड स्टोरी.’ बीबीसी 4 की डॉक्यूमेंट्री की मूल प्रेरणा डॉ. चटर्जी की यही किताब है.
Edited by Manisha Pandey