कैदी ने वॉट्सऐप पर लिखी किताब, मिला 6.4 करोड़ का पुरस्कार
छह साल से सिडनी (ऑस्ट्रेलिया) में मानुस आईलैंड के डिटेनशन सेंटर में कैदी का जीवन बिता रहे लेखक बेहरोज बूचानी ने बच-बचाकर मोबाइल पर एक ऐसी किताब 'नो फ्रैंड बट द माउंटेन्स' लिख डाली, जिसे देश का सर्वश्रेष्ठ 6.4 करोड़ रुपए के बराबर का 125000 ऑस्ट्रेलियन डॉलर वाला पुरस्कार मिला है। जिस वक़्त समारोह में यह पुरस्कार बूचानी को दिया जा रहा था, वह कैदखाने में पड़े रहे।
संघर्षशील सृजन किसी भी तरह की उपेक्षा, अवहेलना, मानापमान अथवा यश-प्रतिष्ठा का मोहताज नहीं होता है। गोर्की, टॉलस्टाय, ब्रेख्त, बॉलजाक, धूमिल, राहुल सांकृत्यायन, प्रेमचंद, कबीर, तुलसी, मीरा, राजकमल चौधरी अथवा चार्ल्स डिकेंस की सृजन यात्राएं वैसी रचनात्मक पटकथाओं जैसी इतिहास में दर्ज हैं। इसी तरह हम आर्थर मिलर, जॉन स्मिथ, सुज़ैन कोलिन्स, कर्ट वॉनगुत की किताबें पढ़ते समय उनके सृजन कर्म को याद करते हैं। कभी कभी कोई ऐसी किताब दुनिया के हाथ लगती है, जो नए तरह का इतिहास रच देती है।
हाल ही में एक ऐसी ही किताब लिखी है पिछले छह साल से सिडनी (ऑस्ट्रेलिया) के मानुस आईलैंड के डिटेनशन सेंटर में कैदी का जीवन बिता रहे कुर्दिश-ईरानी शरणार्थी बेहरोज बूचानी ने। हैरत की बात तो ये है कि उन्होंने ये पूरी किताब कैदखाने में रहते हुए मोबाइल पर लिखकर अपने दोस्त को वॉट्सऐप कर दिया। जब यह किताब 'नो फ्रैंड बट द माउंटेन्स' छपकर आई तो अब ऑस्ट्रेलिया सरकार ने ही बचूनी को अपने देश के सबसे बड़े 6.4 करोड़ रुपए (125000 ऑस्ट्रेलियन डॉलर) के पुरस्कार से सम्मानित करने का ऐलान कर दिया है। कितना दुखद है कि बूचानी को जब यह पुरस्कार दिया जा रहा था, वह अपने सम्मान में आयोजित समारोह में स्वयं अनुपस्थित, कैदखाने में पड़े रहे।
साहित्यकारों, लेखकों के साथ ऐसा इतिहास अपने को बार-बार दुहराता रहता है। 'फांसी के तख्ते से' जैसी विश्व की श्रेष्ठ पुस्तक जूलियस फ्यूचिक ने नात्सी जल्लादों के फाँसी के तख्ते की छाया में लिखी थी। हमारे देश में पाश जैसे श्रेष्ठ कवि को पंजाब में उग्रवादियों ने गोली से भून दिया। निराला जीवन भर संघर्षरत रहे और दवा-इलाज की मुश्किलों में चल बसे। दरअसल, बेहरोज बूचानी मूलतः लेखक, फिल्म मेकर और पत्रकार हैं। वह पिछले छह साल से पापुआ न्यू गिनी के मानुस आईलैंड के डिटेनशन सेंटर में बंद हैं। उनकी इस किताब को हाल में विक्टोरियन प्राइज फॉर लिटरेचर अवॉर्ड 2019 के लिए चुना गया।
उन्हें पुरस्कार के तौर पर 6.4 करोड़ (125000 ऑस्ट्रेलियन डॉलर) मिले हैं। वर्ष 2012 में ईरान में कई लेखकों, पत्रकारों और फिल्मकारों को गिरफ्तार कर लिया गया था। उस दौरान बूचानी वहां से तो निकलने में कामयाब रहे लेकिन समुद्र के रास्ते ऑस्ट्रेलिया में घुसते समय ऑस्ट्रेलियन नेवी ने उनकी बोट को कब्जे में ले लिया। फिर उन्हें 2013 में मानुस आईलैंड के डिटेनशन सेंटर भेज दिया गया। डिटेंशन सेंटर में रहते हुए भी पत्र-पत्रिकाओं में उनके लिखे लेख छपते रहे हैं। उनकी पुस्तक 'नो फ्रैंड बट दि माउंटेन्स' डिटेनशन सेंटर के उनके अनुभवों पर ही आधारित है। इसके लिए वे अपने मोबाइल पर फारसी में एक-एक चैप्टर पूरा करते और फिर इसे अपने अनुवादक दोस्त ओमिड टोफिगियान को भेज दिया करते। किताब लिखने के दौरान उनको सबसे बड़ा इस बात का डर बना रहता था कि कहीं उनका फोन न छिन जाए।
बूचानी बताते हैं कि सेंटर के सुरक्षाकर्मी बैरक की तलाशी के दौरान कैदियों के सामान जब्त कर लेते हैं। इसलिए वह अपनी किताब के एक-एक चैप्टर फोन पर टाइप कर वॉट्सऐप के जरिए तुरंत अपने दोस्त को भेज देते थे। ऐसे में एक सवाल किसी को भी हैरान कर सकता है कि लेखक के भीतर आखिर ऐसी कौन सी बात होती है कि ऐसे कठिन हालात में भी वह अपने शब्दों से इस तरह टूटकर प्यार करता है। पीड़ादायी कैदखाने में भी उसका अपने सृजन से गहरा याराना बना रहता है। छह करोड़ रुपए से अधिक का जो पुरस्कार बूचानी को दिया गया है, उस अवॉर्ड के लिए ऑस्ट्रेलिया की नागरिकता या यहां का स्थायी नागरिक होना जरूरी है, लेकिन बूचानी के मामले में यह छूट दी गई।
जूरी ने उनकी कहानी को ऑस्ट्रेलिया की कहानी के तौर पर स्वीकारा है। यह अतिप्रतिष्ठित सम्मान पाने पर बूचानी कहते हैं कि 'उन्हे खुशी हो रही है, क्योंकि यह मेरे और मेरे जैसे शरणार्थियों के लिए बड़ी उपलब्धि है। यह सिस्टम के खिलाफ बड़ी जीत है।' उल्लेखनीय है कि जूलियस फ़्यूचिक ने अपनी पुस्तक 'सी के तख्ते से' की पाण्डुलिपि अदम्य साहस और सूझ-बूझ के साथ नात्सी जेल में काग़ज़ के छोटे-छोटे टुकड़ों पर पेंसिल से लिखी थी, जिन्हें लेखक ने एक-एक करके प्राग की पैंक्रेट्स गेस्टापो जेल से एक हमदर्द चेक सन्तरी की मदद से छिपाकर बाहर भेजा था। फ़्यूचिक एक ऐसे व्यक्ति थे जो अपने-आपको धोखा देने से घृणा करते थे और यह जानते थे कि इस रचना को पूरा करने के लिए वह जीवित न रहेंगे और यह कभी भी बीच में ही रुक जायेगी किन्तु वह अपनी आस्था छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे।
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