भीकाजी कामा: विदेशी धरती पर आजाद हिंदुस्तान का पहला झंडा फहराने वाली महिला
August 13, 2022, Updated on : Fri Aug 26 2022 08:47:48 GMT+0000

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1907 का साल था. भारत को आजादी मिलने में 40 साल बाकी थे. भारत अब भी ब्रिटिश इंडिया के अधीन था. आजादी का पहला गदर समाप्त हो चुका था और भारत के शासन की बागडोर ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों से निकलकर सीधे इंग्लैंड की महारानी के हाथों में जा चुकी थी.
तभी विदेशी धरती पर एक 47 साल की हिंदुस्तानी स्त्री ने भारत का झंडा फहराया. देश था जर्मनी और शहर था स्टुटगार्ड. 22 अगस्त, 1907 की यह घटना है. स्टुटगार्ड में इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांग्रेस की सभा हो रही थी. इस सभा में दुनिया के तमाम देशों के लोग शिरकत करने आए थे. वहां सभी देशों का प्रतिनिधित्व करता हुआ उनका राष्ट्रीय झंडा भी लगा था. सिर्फ भारत का ही कोई झंडा नहीं था.
वह महिला वहां उस सभा में मौजूद थीं. उन्होंने अपने हाथों से एक झंडा बनाकर सभा में फहरा दिया. वह पहला झंडा था, जो इतिहास में भारत की आजादी का प्रतीक बन गया. उसमें हरा, पीला और लाल रंग था. महिला ने झंडा लगाया और बुलंद आवाज में पूरी सभा को संबोधित करते हुए कहा, “यह आजाद भारत का झंडा है. मैं सभा में मौजूद सभी सज्जनों से अपील करती हूं कि वो खड़े होकर इस झंडे का अभिवादन करें.”
उस महिला का नाम था भीकाजी रुस्तम कामा. आज 13 अगस्त को उनकी 86वीं पुण्यतिथि है.
आजादी अभी 40 बरस दूर थी, लेकिन उसकी आग हर दिल में धधक रही थी
सभा में अचानक हुई इस घोषणा से एकाएक सब हकबका गए. लेकिन सभी ने खड़े होकर झंडे का अभिवादन किया. ब्रिटिश हुकूमत से आजादी के लिए हिंदुस्तान की सरजमीं पर जो लड़ाई चल रही थी, उसकी खबर तो पूरी दुनिया में थी. लेकिन किसी अंतर्राष्ट्रीय मंच पर, जहां दुनिया के 100 से ज्यादा देशों के प्रतिनिधि मौजूद थे, भीकाजी कामा ने पहली बार भारत की आजादी की इच्छा, ललक और जिद को इतने पुरजोर तरीके से सबके सामने रख दिया था.
स्टुटगार्ड में हो रही उस इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांग्रेस का मकसद अपने-अपने देशों की गरीबी, भुखमरी, बेराजगारी और मानवाधिकारों आदि पर बात करना था. लेकिन भीकाजी कामा ने इन सारी लड़ाइयों से ऊपर भारत की आजादी की लड़ाई को स्थापित कर दिया.
हालांकि आजादी अभी 40 बरस दूर थी. लेकिन उसकी अलख भारत से लेकर जर्मनी, ब्रिटेन और अमेरिका तक हर हिंदुस्तानी के दिल में धधक रही थी. आजाद भारत के इतिहास में भीकाजी रुस्तम कामा क्रांति की जननी कहलाईं
कैसा था आजादी का प्रतीक वो पहला झंडा
भीकाजी कामा ने उस दिन कांग्रेस की सभा में जो झंडा फहराया था, वह आज भी हमारे पास सुरक्षित है और पुणे की केसरी मराठा लाइब्रेरी में संरक्षित करके रखा गया है. वह झंडा कलकत्ता फ्लैग का संशोधित संस्करण था. कलकत्ता फ्लैग में सबसे ऊपर नारंगी रंग की पट्टी हुआ करती थी. कामा ने जो झंडा फहराया, उसमें सबसे ऊपर हरे रंग की पट्टी थी, जिस पर 8 कमल के फूल बने थे. 8 कमल तत्कालीन भारत के 8 राज्यों का प्रतीक थे. बीच में पीले रंग की पट्टी थी, जिस पर हिंदी में लिखा था वंदे मातरम. सबसे नीचे एक लाल रंग की पट्टी थी, जिस पर सूरज और चांद का चित्र बना हुआ था. यह झंडा भारत की ऐतिहासिक धरोहर है.

कहानी भीकाजी रुस्तम कामा की
24 सितंबर, 1861 को कलकत्ता के एक समृद्ध पारसी परिवार में भीकाजी कामा का जन्म हुआ था, लेकिन उनकी पढ़ाई-लिखाई मुंबई में हुई. पिता सोराबजी फ्रामजी पटेल ने यूं तो वकालत पढ़ी थी, लेकिन वकालत को अपना पेशा नहीं बनाया. वे व्यापारी थे और व्यापार की जरूरतों के चलते परिवार बाद में बॉम्बे आकर बस गया था. उनके पिता और मां जीजाबाई सोराबजी पटेल शहर के नामचीनों में शुमार थे. उनका बड़ा रुतबा और दबदबा हुआ करता था.
वह आजादी की लड़ाई का दौर था. समाज का कोई भी तबका उसके असर से अछूता नहीं था. कामा के पिता सीधे तो आजादी की लड़ाई का हिस्सा नहीं थे, लेकिन वे आंदोलन को समर्थन और सहयोग देते थे. शहर में शिक्षा और परोपकार के कामों में उनकी शिरकत रहती.
जैसाकि उन दिनों सभी समृद्ध परिवारों की लड़कियां मुंबई के पहले सिर्फ लड़कियों के लिए बने स्कूल अलेक्जेंड्रा गर्ल्स इंग्लिश इंस्टीट्यूशन में पढ़ने भेजी जाती थीं, भीकाजी को भी उसी स्कूल में भेजा गया. स्कूल में ऐसी बहुत सारी लड़कियां थीं, जिनका परिवार सीधे आजादी की लड़ाई में शामिल था.
स्कूल की पढ़ाई के अलावा लड़कियों की आपसी बातचीत में भी अंग्रेजी हुकूमत का, देश की गुलामी का जिक्र आता ही रहता था. बहुत कम उम्र से ही इन बातों के प्रति उनका झुकाव होने लगा था. भीकाजी सुंदर थीं, मेधावी थीं, धाराप्रवाह गुजराती और अंग्रेजी बोल सकती थीं. उनके माता-पिता को भी खबर नहीं हुई कि कब उनकी बेटी राजनीतिक मसलों पर अपने विचार रखने लगी. अंग्रेजी हुकूमत की आलोचना करने लगी और देश की आजादी की बातें करने लगी.
पति अंग्रेजों का मुरीद और पत्नी आजादी की
1885 में 24 साल की उम्र में उनका विवाह रुस्तमजी कामा के साथ हुआ. लेकिन पति-पत्नी के बीच बनी नहीं. रुस्तमजी कामा पेशे से वकील थे और अंग्रेजी सरकार के बहुत बड़े मुरीद. उन्हें अंग्रेजी कल्चर, उनका खान-पान, पहनावा और यहां तक कि हिंदुस्तान की अवाम पर उनका हुकूमत करना भी पसंद था. रुस्तमजी को यकीन था कि अंग्रेजों ने भारत पर राज कर उसका भला किया है और भीकाजी का यकीन था कि अंग्रेजों ने अपने स्वार्थ और लालच के लिए भारत के लोगों और यहां की संपदा का शोषण किया है.
ऐसे पति के साथ भीकाजी की कहां निभने वाली थी. वो तो अपने पति के अंग्रेज दोस्तों के सामने भी यह कहने से नहीं चूकतीं कि भारत को फिरंगियों से आजादी चाहिए. उनकी शादी तो चलती रही, लेकिन मन से वह दूर हो चुकी थीं. अपना ज्यादातर वक्त समाज सेवा के कामों में बितातीं. 1896 में जब बॉम्बे में प्लेग फैला तो भीकाजी ने दिन-रात पीडि़तों की सेवा की. वो कई-कई रातों तक घर ही नहीं जातीं और कैंप में ही काम करती रहतीं. नतीजा ये हुआ कि वो खुद भी प्लेग की चपेट में आ गईं. हालांकि प्लेग ने उनकी जान तो नहीं ली, लेकिन उनके शरीर को भीतर से इतना कमजोर कर दिया कि फिर वह उससे कभी उबर नहीं पाईं और अंत में वही उनकी मृत्यु का कारण बना.
लंदन के हाइड पार्क में स्वाधीनता की सभाएं
भारत में जब उनका स्वास्थ्य लगातार खराब रहने लगा तो डॉक्टरों ने जलवायु बदलने की सलाह दी. 1902 में भीकाजी लंदन चली गईं. लंदन में रह रहे बहुत से भारतीय आजादी की लड़ाई में सक्रिय थे. लंदन के हाइड पार्क में अकसर सभा होती, जिसमें भारत की आजादी का समर्थन कर रहे बहुत से अंग्रेज भी शामिल होते. दादाभाई नौरोजी, लाला हरदयाल जैसे लोगों से भीकाजी कामा की मुलाकात वहीं हुई.
लंदन में भी भीकाजी की राजनीति गतिविधियां बढ़ने लगी थीं. अंग्रेजों ने उन्हें आगाह किया कि अगर वो ये गतिविधियां बंद नहीं करेंगी तो उनके भारत लौटने पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा. भीकाजी ने उनकी एक नहीं सुनी और लंदन छोड़कर पेरिस चली गईं. पेरिस में रह रहे हिंदुस्तानियों के साथ मिलकर उन्होंने पारसी इंडियन सोसायटी की स्थापना की. इस दौरान उन्होंने बहुत सारा क्रांतिकारी साहित्य लिखा और उसे स्मगल करके चुपके से हिंदुस्तान पहुंचाया.
विलियम कर्जन की हत्या और हिंदुस्तानियों पर निशाना
इसी दौरान 1909 में भारतीय क्रांतिकारी मदनलाल ढींगरा ने ब्रिटिश सेना के अफसर विलियम हट कर्जन विली की गोली मारकर हत्या कर दी. उसके बाद अंग्रेजों ने उन सभी हिंदुस्तानियों की धर-पकड़ शुरू की, जो यूरोप में रहकर भारत की आजादी के लिए काम कर रहे थे.
ब्रिटेन ने फ्रांस से भीकाजी कामा की गिरफ्तारी की मांग की. फ्रांस ने साफ इनकार कर दिया. बदले की कार्रवाई में ब्रिटिश सरकार ने कामा की सारी संपत्ति जब्त कर ली. कहते हैं उसी दौरान रूस से भीकाजी कामा के पास एक खत आया, जो रूसी क्रांति के नेता लेनिन ने लिखा था. लेनिन ने भीकाजी कामा को रूस आकर रहने का न्यौता भेजा, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया.
जिस फ्रांस ने पहले भीकाजी कामा को ब्रिटेन को सौंपने से इनकार कर दिया था, उसी फ्रांस ने बाद में उन्हें गिरफ्तार कर लिया. 1914 में दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया था. फ्रांस और ब्रिटेन के समीकरण बदल चुके थे. दोनों जर्मनी के खिलाफ युद्ध में सहभागी थे. 1915 में फ्रांस की सरकार ने कामा को लंबे प्रवास में सेंट्रल फ्रांस के एक इलाके विची में भेज दिया.
वहां उनकी पहले से खराब तबीयत और बिगड़ने लगी. उनकी बिगड़ती हालत को देख 1917 में सरकार ने उन्हें बॉरदॉक्स स्थित अपने घर जाने की इजाजत तो दे दी, लेकिन शर्त यह थी कि वह किसी तरह की राजनीतिक गतिविधि में शिरकत नहीं करेंगी और हर हफ्ते स्थानीय पुलिस को रिपोर्ट करेंगी.
निर्वासन की जिंदगी और वतन में मौत
सन् 1935 तक भीकाजी कामा ने यूरोप में निर्वासन की जिंदगी बिताई. उनका शरीर जर्जर हो रहा था, लकवा मार गया था और आधा शरीर पैरालाइज्ड हो गया था. उन्होंने अंग्रेजों से घर वापस लौटने की दरख्वास्त की. नवंबर, 1935 में वह लौटकर बॉम्बे आईं और 9 महीने बाद 13 अगस्त, 1936 को 74 साल की उम्र में बॉम्बे जनरल हॉस्पिटल में उन्होंने आखिरी सांस ली.
भीकाजी कामा इतिहास की उन चंद महिलाओं में से एक हैं, जिनके पास असान, सुख-सुविधापूर्ण जीवन का विकल्प मौजूद था, लेकिन उसे छोड़कर उन्होंने संघर्ष की, लड़ाई की और देश की आजादी की राह चुनी.
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