केसर, जैव विविधता और हिमनद: कश्मीर की महिला वैज्ञानिक कर रही हैं क्षेत्र के जलवायु गतिविधियों का नेतृव
बायोटेक्नोलॉजिस्ट नशीमन अशरफ इस इलाके में केसर के गिरते उत्पादन को बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं. यह इलाका कभी केसर उत्पादन के लिए एक प्रमुख जगह के रूप में जाना जाता था. जलवायु परिवर्तन सहित कई कारणों से जम्मू-कश्मीर के केसर के उत्पादन में गिरावट आई है.
इस जलवायु परिवर्तन से स्थानीय पारिस्थितिकी, आजीविका और उन्हें बनाए रखने वाले नेटवर्क के लिए खतरा है. वैज्ञानिक नशीमन अशरफ, उल्फत मजीद और महरीन खलील अलग-अलग पृष्ठभूमि से हैं और विभिन्न क्षेत्रों में काम करती हैं, लेकिन कश्मीर में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का अध्ययन करने और उन्हें समझने की धारणा उन्हें एक साथ जोड़ती है.
केशर की समस्या को हल करने की कोशिश
‘खलील कमरे में कौन सा विज्ञान करोगी?’ इस सवाल से थक कर बायोटेक्नोलॉजिस्ट नशीमन अशरफ ने इस चुनौती को स्वीकार किया और एक मानक आणविक जीव विज्ञान प्रयोगशाला बनाई.
आज वह जलवायु की गतिविधियों में सबसे आगे हैं. सीएसआईआर-इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इंटीग्रेटिव मेडिसिन (सीएसआईआर-आईआईआईएम), कश्मीर के प्लांट बायोटेक्नोलॉजी डिवीजन में एक प्रधान वैज्ञानिक के रूप में उनका शोध कार्य, दुनिया के सबसे महंगे मसालों में से एक केसर पर केंद्रित है. उनका उद्देश्य केसर की खेती पर जलवायु के प्रभावों की पड़ताल करना और इस खास मसाले के उत्पादन और खेती को बढ़ावा देने का समाधान देना है.
केसर की खेती केवल कुछ ही देशों में की जाती है, ईरान, स्पेन, ग्रीस और भारत. भारत में केसर की खेती पारंपरिक रूप से केवल केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर के चार जिलों, पुलवामा, बड़गाम, श्रीनगर और किश्तवाड़ में की जाती है. अशरफ ने समझाया कि कश्मीर को कभी केसर उत्पादन के लिए दक्षिण एशिया के सबसे प्रमुख स्थान के रूप में जाना जाता था, समय के साथ-साथ कश्मीर की यह विरासत कई कारणों से ख़त्म हो गई. ‘इन कारणों में बीज, मिट्टी की खराब उर्वरता, खराब सिंचाई, बीमारियों का संक्रमण और फसल के लिए अनुकूल भूमि पर बढ़ता शहरीकरण, बड़े पैमाने पर मिलावट, और सस्ती ईरानी किस्म के केसर का आयात शामिल है. इन सभी कारणों में, सबसे महत्वपूर्ण चुनौती जो जम्मू-कश्मीर में केसर उद्योग के अस्तित्व के लिए खतरा है, वह है जलवायु परिवर्तन का प्रतिकूल प्रभाव.’
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार केसर का इलाका 1996 में लगभग 5,707 हेक्टेयर से घटकर 2010-11 में 3,875 हेक्टेयर हो गया. श्रीनगर में ही जन्मे 40 वर्षीय वैज्ञानिक ने केसर पर काम करने की प्रेरणा पर विचार करते हुए कहा, ‘पिछले एक दशक में कम उपज ने किसानों को निराश किया है, और उनमें से कई पहले से ही सेब जैसी अन्य उच्च उपज वाली फसलों की खेती कर रहे हैं.’
पढ़ने के प्रति उनके रुझान और नई चीजों को जानने की जिज्ञासा ने उनमे विज्ञान के प्रति प्रेम को को बढ़ाया. जी.बी. पंत कृषि और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उत्तराखंड से जैव रसायन में स्नातकोत्तर करने के बाद, उन्होंने अपनी पीएच.डी. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ प्लांट जीनोम रिसर्च, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से की. 2013 में वह अपनी वैज्ञानिक विशेषज्ञता के माध्यम से अपने समुदाय के लिए काम करने के सपने के साथ श्रीनगर लौट आईं.
वह बीते दिनों को याद करते हुए बताती हैं, ‘श्रीनगर लौटने पर मुझे एक बड़ा खाली कमरा दिया गया और उसके बाद अपने उपकरणों के साथ छोड़ दिया गया. कमरे को एक मानक आणविक जीव विज्ञान के प्रयोगशाला में बदलना एक बड़ा और मुश्किल काम था. हालांकि जरूरत पड़ने पर मुझे काफी मदद मिल सकती थी, और इस समर्थन के साथ मैं पुरुष-प्रधान दुनिया को दिशानिर्देश (नेविगेट) कर सकती थी, मुझे बार-बार यह साबित करने की आवश्यकता थी कि हम यह भी कर सकते हैं.’
उनका शोध 2015 में ही प्रकाश में आया जब उन्होंने केसर और उस पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पर अपना काम प्रकाशित करना शुरू किया. उन्होंने कहा कि 2018 के बाद से मौसम काफी अनिश्चित हो गया है और बारिश या तो कम है या अनियमित है, जो केसर में फूल लगाने वाले महत्वपूर्ण चरण पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है. बेमौसम बारिश और जलभराव के कारण ‘कॉर्म रोट’ हो सकता है. केसर क्रोकस सैटिवस फूल के लिए कलंक है, जिसे आमतौर पर केसर क्रोकस या केसर बल्ब के रूप में जाना जाता है. यह कॉर्म नामक बल्बों द्वारा फैलता है.
उन्होंने ने बताया ‘मेरे सहयोगी सैयद रियाज-उल-हसन संस्थान के माइक्रोबियल बायोटेक्नोलॉजी डिवीजन में एक प्रमुख वैज्ञानिक हैं. उनके सहयोग से हमने केसर कॉर्म में एक फंगल एंडोफाइट या लाभकारी माइक्रोब की पहचान की है. हमने कई जिलों से नमूने एकत्र किए और उनमें मौजूद रोगाणुओं की स्थिति का मूल्यांकन किया. पहचाने गए सूक्ष्म जीव ने कॉर्म रोट को 50 प्रतिशत तक कम कर दिया और क्रोकस मेटाबोलाइट्स को बढ़ा दिया.’
संस्थान ने इस क्षेत्र में स्थित एक कृषि व्यवसायिक कंपनी के साथ एक समझौता किया है. उन्होंने बताया ‘हम इस कवक एंडोफाइट से जैव-नियंत्रण एजेंट बनाने की कोशिश कर रहे हैं. इस साल हम तीसरे स्तर के परीक्षण के लिए जाएंगे. हमें यह जांचना होगा कि क्या इस एंडोफाइट का अन्य फसलों पर कोई खतरनाक प्रभाव पड़ता है.’
अशरफ और उनके सहयोगियों ने कश्मीर के 10 जिलों के किसानों को भी शामिल किया और उन्हें अपने संस्थान द्वारा केसर की खेती के अभियान के तहत अपने खेतों में केसर लगाने के लिए प्रोत्साहित किया. उन्होंने कहा ‘चूँकि किसान सीधे तौर पर शामिल थे, इसलिए उन्हें अपने खेतों में केसर को खिलते हुए देखने के लिए प्रोत्साहित किया गया.’
वैज्ञानिक ने जोर दिया कि वे विभिन्न स्थानों पर उगाए गए केसर की रासायनिक संरचना की जांच करने की प्रक्रिया में हैं ताकि केसर की गुणवत्ता पर जलवायु की छोटी से छोटी परिस्थितियों के प्रभाव के बारे में जानकारी हासिल की जा सके. उन्होंने कहा ‘इस तरह, हम बड़े पैमाने पर केसर की खेती के लिए वैकल्पिक जगह बनाने में सक्षम होंगे.’
हिमनदों में रुचि
मध्य कश्मीर के गांदरबल जिले के छोटे से गांव सालूरा में जन्मी उल्फत मजीद कम उम्र में ही जान गई थी कि विज्ञान ही उनका ठिकाना है. आज, 28 वर्षीय यह लड़की वैज्ञानिक ग्लेशियल (हिमनद) झीलों और उन पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पर असाधारण काम करने के लिए जानी जाती है. उनके शोध का उद्देश्य ख़ास तौर से पश्चिमी हिमालय पर ग्लेशियर-हिमनद और झील-जलवायु की अंतः क्रियाओं और इससे संबंधित हिमनद झीलों से होने वाली भारी बाढ़ के खतरों को समझना है. हाई स्कूल के दौरान ही दुनिया के बारे में जानने की उसकी जिज्ञासा के कारण विज्ञान में उसकी रुचि पैदा हुई. ‘मैंने बहुत सारे प्रश्न पूछती थी, मुझे जानने की जिज्ञासा थी,’ वे कहती हैं.
लेकिन डिग्री का चयन करना चुनौतियों से भरा सफर था. ‘मेरे माता-पिता ने मेरे करियर की वरीयता पर कड़ी आपत्ति जताई और चाहते थे कि मैं मेडिकल क्षेत्र में जाऊं. उन्होंने महसूस किया कि सबसे अच्छी नौकरियां हमेशा इंजीनियरिंग या मेडिकल में होती हैं, इस आधार पर हमेशा बेहतर प्रदर्शन करने और खुद को साबित करने का दबाव रहता था,’ उल्फत मजीद कहती हैं.
वह अपने ग्रेड के साथ उस रास्ते को चुन सकती थीं, लेकिन इसके बजाय, उन्होंने अपने जुनून को अपनाया और कश्मीर विश्वविद्यालय में स्नातक और भू-सूचना विज्ञान में विज्ञान का अध्ययन किया. वह कश्मीर विश्वविद्यालय के जिओइन्फोर्मेटिक (भू-सूचना विज्ञान) विभाग में सीनियर रिसर्च फेलो हैं.
अपने पीएचडी में, जो इस साल अगस्त में पूरी हो जाएगी, मजीद जम्मू और कश्मीर क्षेत्र में ग्लेशियरों के ऊपरी क्षेत्र में बनने वाली हिमनद झीलों से जुड़े ग्लेशियरों की गतिशीलता पर काम कर रही हैं. उन्होंने जम्मू और कश्मीर क्षेत्र में बेहतरीन जलवायु की विभिन्न पर्वत श्रृंखलाओं पर उपग्रह डेटा का उपयोग करके 330 से अधिक हिमनद झीलों और अनसुलझे परिवर्तनों का आंकलन और चित्रण किया है. उन्होंने अपने विश्लेषण में बताया है कि इन ग्लेशियरों का क्षेत्र 1990 में 784.4 वर्ग किमी था जो 9.58% प्रतिशत कम होकर 2019 में 709.19 वर्ग किमी हो गया है.
मजीद ने उल्लेख किया कि ग्लेशियरों में एक मुहाना होता है जिससे पानी निकलता है और इन जल संरचनाओं में बहता है जिसे प्रोग्लेशियल (हिमनद) झील कहा जाता है. उन्होंने कहा, ‘अपने शोध में मैंने पाया है कि इन झीलों में लगातार वृद्धि दर्ज की गई है. वृद्धि विभिन्न कारणों से हो सकती है, जैसे कि जलवायु परिवर्तन. जो पानी की मात्रा में बढ़ोतरी को जारी रहेगा क्योंकि हमारे क्षेत्र में झीलें अभी भी विकसित हो रही हैं.’
यदि इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो पानी का बढ़ना प्रोग्लेशियल विस्फोटों के रूप में होगा जो इस क्षेत्र के लिए विनाशकारी हो सकता है. उन्होंने आगाह करते हुए बताया, ‘प्रोग्लेशियल झील का पानी ढीली चट्टान-मलबे सामग्री द्वारा धारण किया जाता है जो भू-आकृति, जलवायु या भूकंप के कारण टूट सकता है. झील के आस-पास खड़ी ढलानों पर जमे हुए भू-दृश्य (पर्माफ्रोस्ट) भी इन हिमनद झीलों के विस्फोट को बढ़ा सकते हैं. चूंकि जम्मू और कश्मीर 4 और 5 उच्च तीव्रता वाले (उच्च जोखिम वाले क्षेत्र) भूकंपीय क्षेत्र में आते हैं, इसलिए भूकंप की घटना के साथ उनके फटने की संभावना अधिक होती है.
उन्होंने जोर देते हुए कहा कि बादल फटने से भारी वर्षा भी झील के फटने का कारण बन सकती है. ‘जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में हाल के वर्षों में बादल फटने की घटनाएं बढ़ी हैं. इसलिए, यह झीलों के आसपास के गावों या पर्यटन के लिए बेहद ख़तरनाक है.
मजीद ने कहा कि बदलती जलवायु के मद्देनजर वह अपने शोध के माध्यम से क्षेत्र में हिमनद झील के फटने से होने वाले प्रकोप के बारे में विश्वविद्यालय में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) पर आधारित एक प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली को डिजाइन और लागू करने की कोशिश कर रही हैं.
‘हिमनद झील का विस्तार इस सदी के अंत तक जारी रहेगा, जिससे हिमनद झील के फटने की घटनाएं भी बढ़ सकती है. हालांकि, हम बाढ़ संभावित क्षेत्रों के लोगों के लिए एक ग्लोफ (GLOF) अर्ली वार्निंग सिस्टम डिजाइन करने की नींव रखने के लिए उन इलाकों के जोखिम को मापने और एक ढांचा विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं,’ उल्फत मजीद बताती हैं.
जैव विविधता से प्यार
32 साल की मेहरीन खलील ने कश्मीर में महिला वैज्ञानिकों के लिए एक नया आधार बनाया. जब उन्होंने अपने शोध और संरक्षण के प्रयासों से जलवायु परिवर्तन के कम ज्ञात पहलुओं और इनका क्षेत्र की जैव विविधता पर असर का अध्ययन किया.
शिक्षाविदों और डॉक्टरों के परिवार से आने के कारण, विज्ञान की पढ़ाई न करने का उनके पास कोई विकल्प नहीं था. उनके लिए स्वाभाविक रूप से नई चीजें सीखने, तलाशने और सतर्क रहने में यह सहायक था. उन्होंने कहा, ‘मुझे अपने करियर के रूप में विज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक अनुसंधान की प्रक्रिया ने प्रेरित किया. मैं हमेशा ‘कैसे’, ‘क्या’ और ‘क्यों’ के सवालों से घिरी रहती हूं, और मुझे ज़्यादातर उनके जवाब विज्ञान में मिलते हैं.’
इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च, मोहाली से स्नातक की पढ़ाई करने के बाद, उन्होंने अपनी पीएच.डी. इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस बैंगलोर, में पारिस्थितिक अध्ययन केंद्र (सीईएस) से किया. उनके शोध हिमालयी ग्रे लंगूर की पारिस्थितिकी और जलवायु परिवर्तन परोक्ष रूप से प्रजातियों को कैसे प्रभावित करता है, विषय पर केंद्रित है.
अध्ययन के अनुसार, लंगूर वृक्ष-रेखा की ऊंचाई की सीमा के भीतर पाए जाते हैं. खलील ने चिंता जाहिर करते हुए कहा, ‘हालांकि, वृक्ष-रेखाएं विभिन्न इंसानी कारणों, उसकी गतिविधियों और बढ़ते तापमान से प्रभावित होती हैं. हम अनुमान लगाते हैं कि सिकुड़ते और अशांत आवासों के कारण लंगूरों ने कम ऊंचाई की खोज शुरू कर दी है. यह एक कारण हो सकता है कि कश्मीर में इंसानों और लगूरों का आमना सामना होने की घटना बढ़ने लगी है. 2017 तक ऐसे वाकए लगभग नगण्य थे. इंसानी रिहायसों की तरफ नीचे की ओर जानवरों के आने की यह गतिविधि शिकारी जानवरों की गतिविधियों को भी प्रभावित करेगी.’
युवा वैज्ञानिक ने हमें बताया कि लंगूर तेंदुओं जैसे बड़े मांसाहारियों के लिए एक मजबूत शिकार होते हैं. उन्होंने कहा ‘अगर उनकी आबादी उस क्षेत्र में बदल जाती है जहाँ उनका शिकारी मौजूद है, तो यह पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को परेशान कर सकता है.’
वन्यजीव प्रजातियों और उन पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के बारे में व्यापक जागरूकता पैदा करने के लिए, उन्होंने 2018 में एनजीओ वाइल्ड लाइफ कंसर्वेशन फाउन्डेशन (डब्ल्यूआरसीएफ) की स्थापना की.
उन्होंने कहा ‘वनस्पति और जीवों, पर्यावरण-स्थानों और उनके महत्व और उन पर गर्म तापमान के प्रभावों की शिक्षा देने के लिए, हम श्रीनगर और घाटी के अन्य जिलों के कई स्कूलों और कॉलेजों में जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करते हैं. हमारा मुख्य ध्यान ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों पर है, लेकिन हम शहर के छात्रों को भी शिक्षित करते हैं.’
इसके अतिरिक्त, डब्ल्यूआरसीएफ वर्तमान में क्षेत्र की आर्द्रभूमि (नम जमीन) पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पर काम कर रहा है. खलील ने कहा ‘कश्मीर के जलीय क्षेत्र की आर्द्रभूमि (नम भूमि) और हवाई कीट की दुनिया पर किए गये हमारे क्रॉस-सेक्शनल काम से हमें आर्द्रभूमि पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और उनके कम होने के कारणों को समझने में मदद मिलेगी. ओडोनेट्स के बारे में अध्ययन जो कि खुशालसर और गिलसर जैसे खतरे वाली आर्द्रभूमि के क्षेत्र में पैमाने पर ड्रैगनफ्लाई और डैमसेल फ्लाई जैसे कीड़े हैं, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडिया के साथ साझेदारी उसी को समझने की दिशा में एक कदम था.’
(यह लेख मूलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: (बाएं से) नशीमन अशरफ, महरीन खलील और उल्फत मजीद. तस्वीर - मेहरीन खलील और उल्फत मजीद और हिरा अज़मत