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दुनिया का पहला कृत्रिम जीन बनाने वाले डॉ. हरगोविंद खुराना पेड़ के नीचे पढ़कर वैज्ञानिक बने

डॉ. हरगोविंद खुराना को 1968 में मेडिसिन के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्‍मानित किया गया.

दुनिया का पहला कृत्रिम जीन बनाने वाले डॉ. हरगोविंद खुराना पेड़ के नीचे पढ़कर वैज्ञानिक बने

Wednesday November 09, 2022 , 5 min Read

आज हरगोविंद खुराना की  पुण्‍यतिथि है. वर्ष 2011 में 89 बरस की उम्र में अमेरिका के मैसाचुसेट्स में उनका निधन हुआ था. अभी पिछले साल ही हमने उनकी 100वीं जयंती मनाई थी और विज्ञान के इतिहास में उनके अतुलनीय योगदान को याद किया था.

हरगोविंद खुराना की बात करें तो समझ नहीं आता कि बातों का सिलसिला कहां से शुरू किया जाए. हरगोविंद खुराना आखिर कौन थे कि आज भी उनके काम के जिक्र के बगैर विज्ञान का कोई इतिहास पूरा नहीं हो सकता.

बायोटेक्नोलाजी की बुनियाद रखने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हरगोविंद खुराना, 1968 में मेडिसिन के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्‍मानित होने वाले हरगोविंद खुराना, दुनिया के पहले कृत्रिम जीन का निर्माण करने वाले हरगोविंद खुराना या डीएनए के रहस्यों को सामने लाने वाले हरगोविंद खुराना.  

उनकी कहानी में इतने सारे अध्‍याय हैं और हर अध्‍याय कम जरूरी नहीं. 9 जनवरी, 1922 को पंजाब के मुल्‍तान में एक छोटे से गांव रायपुर में हरगोविंद खुराना का जन्‍म हुआ. वह गांव अब पाकिस्‍तान में है. वह पांच भाई-बहनों में सबसे छोटे थे. अपनी आत्‍मकथा में वे लिखते हैं कि पिता मामूली पटवारी थे. घर में पैसे का हमेशा संकट रहता, लेकिन मेरे पिता का शिक्षा पर बहुत जोर रहता था. हमारा परिवार 100 लोगों के उस गांव में इकलौता शिक्षित परिवार था. गांव में एक ही स्‍कूल था और वो भी किसी इमारत में नहीं, बल्कि पेड़ के नीचे चलता था. डॉ. खुराना ने छठी कक्षा तक उस गांव के स्‍कूल में पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ाई की.    

उन्‍होंने मुल्‍तान के डीएवी हाईस्‍कूल से बाद की स्‍कूली शिक्षा पूरी की. फिर 1943 में उन्होंने लाहौर की पंजाब यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन पूरा किया और फिर यहीं से 1945 में पोस्टग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की. ब्रिटिश इंडिया में वे 1945 तक रहे. बाद में भारत सरकार की स्‍कॉलरशिप पर वे इंग्‍लैंड पढ़ने चले गए और लीवरपूल यूनिवर्सिटी में ऑर्गेनिक केमेस्‍ट्री में पीएचडी की शुरुआत की. सिर्फ तीन साल उन्‍होंने अपनी पीएचडी पूरी कर ली और 1948 में वे डॉक्‍टर हो गए. फिर पोस्‍ट डॉक्‍टरेट की पढ़ाई के लिए उन्‍हें स्विटजरलैंड से बुलावा आया, जहां स्‍कॉलरशिप पर अपने जमाने के दो नामी प्रोफसर और वैज्ञानिकों के साथ उन्‍होंने पोस्‍ट डॉक्‍टरेट रिसर्च की.

डॉ. खुराना के सिर्फ एकेडमिक रिकॉर्ड पर लिखने जाएं तो उपलब्धियों की इतनी लंबी सूची है कि कई पन्‍ने सिर्फ उसी से भरे जा सकते हैं.    

1952 में उन्‍हें एक नौकरी का ऑफर मिला और वे पहुंच गए कनाडा की यूनिवर्सिटी ब्रिटिश कोलंबिया. बायलॉजी के क्षेत्र में उनके महत्‍वपूर्ण रिसर्च की शुरुआत यहीं से हुई, जिसके कारण 16 साल बाद 1968 में उन्‍हें मेडिसिन के नोबेल पुरस्‍कार से सम्‍मानित किया गया.

1960 में डॉ. खुराना कनाडा से अमेरिका चले गए थे और वहां विस्कॉन्सिन यूनिवर्सिटी में पढ़ाने लगे थे. साथ ही उनकी रिसर्च का काम भी जारी था.  छह साल बाद 1966 में उन्हें अमेरिकन सिजिटनशिप मिल गई.

1968 में उन्‍हें जिस जेनेटिक कोड की खोज के लिए नोबेल दिया गया था, इस रिसर्च में उनके साथ दो और वैज्ञानिक रॉबर्ट डब्ल्यू हॉली और मार्शल डब्ल्यू नीरेनबर्ग भी शामिल थे. तीनों को संयुक्त रूप से चिकित्सा का नोबेल दिया गया था.

नोबेल के बाद भी डॉ. खुराना की रिसर्च और विज्ञान के क्षेत्र में उनके अहम योगदान का सिलसिला रुका नहीं. नोबेले मिलने के चार साल बाद 1972 में उन्‍होंने पहले कृत्रिम जीन का निर्माण किया. यह एक तरह से बायोटेक्‍नोलॉजी की शुरुआत थी, जिसने जेनेटिक कोडिंग, जीन को आर्टिफिशियल तरीके से बदलने को मुमकिन बना दिया था.

हालांकि इस जेनेटिक कोडिंग और आर्टिफिशियल जीन निर्माण का क्षेत्र काफी‍ विवादों भरा रहा है. 25 साल पहले ऐसे दावे किए जा रहे थे और अमेरिका ने इस रिसर्च में अरबों डॉलर फूंके भी, जिसमें दावा किया जा रहा था कि मनुष्‍य के बीमारी पैदा करने वाले जीन को ज्‍यादा स्‍वस्‍थ कृत्रिम जीन से रिप्‍लेस किया जा सकता है, लेकिन 20 साल की लंबी रिसर्च के बाद भी इस क्षेत्र में कोई उल्‍लेखनीय सफलता नहीं मिली.   

डॉ. खुराना उन उंगलियों पर गिने जा सकने वाले चंद वैज्ञानिकों में से हैं, जिन्‍हें अमेरिका ने नेशनल एकेडमी ऑफ़ साइंस की सदस्यता प्रदान की थी. 89 साल की उम्र में अमेरिका के मैसाचूसेट्स में डॉ. खुराना का निधन हुआ, लेकिन अपने अंतिम समय तक वे साइंस रिसर्च के काम में लगे रहे.

उनकी बेटी जूलिया एलिजाबेथ ने अपने पिता के संस्‍मरण में लिखा है- विज्ञान उनका पहला प्रेम था. लंबे-लंबे घंटे अपनी लैब में वैज्ञानिक प्रयोगों में लगे रहने के बावजूद उन्‍हें जिस काम में सबसे ज्‍यादा खुशी मिलती थी, वो था विज्ञान के छात्रों और युवाओं के साथ काम करना, उन्‍हें पढ़ाना, उनका मार्गदर्शन करना. डॉ. खुराना जीवन के अंतिम दिनों तक छात्रों को गाइड करने और उनकी रिसर्च में योगदान देने का काम करते रहे. आज दुनिया भर की यूनिवर्सिटी, कॉलेज और साइंस रिसर्च इंस्‍टीट्यूट्स में ऐसे सैकड़ों प्रोफेसर और वैज्ञानिक हैं, जिन्‍होंने डॉ. खुराना के निर्देशन में रिसर्च की और जिनकी वैज्ञानिक समझ और यात्रा की नींव विज्ञान से प्रेम करने वाले इस प्रोफेसर ने रखी थी.


Edited by Manisha Pandey