तीन दशकों में दस्तकारों की नई दुनिया बसा दी ‘दस्तकार’ ने...
ग्रामीण कलाकारों, विशेषकर महिलाओं को शिल्पकारी का उपयोग करते हुए अपने पैरों पर खड़ा होने में कर रही हैं मददजापान से ललित कला की पढ़ाई पूरी करने के बाद दिल्ली लौटीं लैला ने 1981 में रखी ‘दस्तकार’ की नींवगुजरात के कच्छ में ग्रामीण कलाकारों की परेशानी जानने के बाद उनके लिये कुछ करने का जागा जज्बा66 वर्ष की उम्र में भी उसी जोश और उमंग के साथ ले रही हैं काम का आनंद
‘‘चाहे आप किसी भारतीय महानगर में रह रहे हों या फिर विदेश में, किसी भी कारीगर या डिजाइनर के लिये ग्रामीण कलाकारों द्वारा तैयार की गई कलाकृतियों की गुणवत्ता पर सवाल उठाते हुए उसे घटिया साबित करना बेहद आसान काम है। एक तरफ तो हम अपने ऐतिहासिक युग की गौरवशाली कला और कलाकारों के बारे में बात करते नहीं थकते हैं वहीं दूसरी तरफ हम वर्तमान कलाकारों के काम में नुस्ख निकालते वक्त इस मौलिक बात को बिल्कुल नजरअंदाज कर देते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे कलाकारों के पास आजीविका कमाने के साधन मौजूद ही नहीं हैं, काम के लिये उपयुक्त वातावरण तो दूर की कौड़ी है।’’ यह कहना है पिछले तीन दशकों से भी अधिक समय से ग्रामीण कलाकारों के हुनर को दुनिया के सामने लाने के वाले ‘दस्तकार’ का संचालन कर रही लैला तैयबजी का। हाल ही में याॅरस्टोरी ने उनके साथ एक मुलाकात की और हस्तशिल्प को लेकर उनके और दूसरों की आम धारणा के बारे में विस्तार की।
दासरा द्वरा तैयार की गई रिपोर्ट ‘क्राफ्टिंग ए लाइवलीहुड’ के अनुसार ग्रामीण भारत के 7 मिलियन से भी अधिक कारीगर किसी न किसी रूप में शिल्प के काम से जुड़े हुए हैं ओर यह क्षेत्र देश में कृषि के बाद ग्रामीण अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा स्त्रोत है। इन क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं को आर्थिक मुख्यधारा में आने के लिये कड़ा संघर्ष करना पड़ता है और अगर बाजार तक उनकी पहुंच हो जाए तो वे शिल्पकला के माध्यम से सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता हासिल करने की ओर कदम बढ़ा सकती हैं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए ग्रामीण कारीगरों, विशेषकर महिलाओं को उनके पारंपरिक शिल्प कौशल का उपयोग रोजगार, आय सृजन और आर्थिक आत्मनिर्भरता के एक साधन के रूप में प्रयोग करने के लिये प्रोत्साहित करने हेतु वर्ष 1981 में ‘दस्तकार’ की स्थापना की गई। शिल्पाकरी की प्रख्यात विद्वान और ‘दस्तकार’ की अध्यक्ष लैला तैयबजी ने प्रारंभ से ही इस संगठन की प्रतिष्ठा को बनाये रखा है। शिल्प उद्योग में क्रांति की जनक कहलाने के अलावा लैला अपने रूढ़ीमुक्त रवैये के लिये भी जानी जाती हैं। उनकी मुखरता के अलावा सभी उनकी पहनावे की अनोखी शैली के दीवाने हैं और उन्होंने भारतीय साड़ी को एक नया रूप भी देने में सफलता पाई है।
‘‘एक ऐसा अनुभव जिसने मेरी जिंदगी ही बदल दी’’
लैला तैयबजी काॅलेज के दिनों से ही शिल्प और कला के क्षेत्र में दिलचस्पी दिखाने लगी थीं। जापान से ललित कला की अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वे वापस दिल्ली लौट आईं। दिल्ली आकर उन्हें अहसास हुआ कि उस समय फैशन, इंटीरियर डिजाइन, ग्राफिक डिजाइन और यहां तक कि मंच सज्जा तक के क्षेत्र में अवसरों और संसाधनों की बेहद कमी है जिस वजह से उस दौर में एक फ्रीलांस डिजायनर के तौर पर काम करना भी एक बेहद मुश्किल काम था। हालांकि पारंपरिक भारतीय हस्तशिल्प के साथ करना उन्हें बेहद पसंद रहा है लेकिन उनका कहना है कि गुजरात के कच्छ में मिले एक काम ने हमेशा के लिये उनकी जिंदगी ही बदल दी। वहां उनकी मुलाकात कुछ ग्रामीण कलाकारों से हुई और उन्हें उनकी समस्याओं से रूबरू होने का मौका मिला। याद करते हुए लैला बताती हैं, ‘‘एक ऐसी स्थिति में जब उन कलाकारों के पास अपने शिल्प के लिये कोई बाजार ही मौजूद नहीं है, हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे काम करें? हमें इनके द्वारा किये जा रहे बेहतरीन काम को दुनिया के सामने लाने में इनका समर्थन करने का आवश्यकता थी। इसी वजह से मैंने लोगों को एकसाथ लाते हुए ‘दस्तकार’ शुरू करने का फैसला किया।
‘‘समस्या इतनी बड़ी है कि सरकार चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती’’
हस्तशिल्प के क्षेत्र में सहयोग और समर्थन के लिये सरकार की भूमिका के बारे में बात करते हुए लैला कहती हैं, ‘‘मुझे भी लगता है कि कई समस्याएं हैं, लेकिन सरकार चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती है। 23 मिलियन असंगठित कामगारों के साथ भारत एक विकासशील देश है और तुलनात्मक रूप से देखें तो यह संख्या दुनिया के किसी भी अन्य मुल्क के मुकाबले सबसे अधिक है। ऐसे मेें हमें इन कारीगरों की बेहतरी के लिये निवेश करना चाहिये।’’ उन्होंने इस क्षेत्र में फैबइंडिया जैसे नामचीन खिलाडि़यों की उपस्थिति का स्वागत और समर्थन किया क्योंकि इन्हें मालूम है कि ग्रामीण कलाकार अपनी कला के प्रदर्शन के लिये खुद स्टोर तो नहीं खोल सकते और फैबइंडिया जैसे खिलाड़ी इनके तैयार किये हुए सामानों को आसानी से दुनिया के सामने रख सकते हैं।
‘‘यह एक लिंग पक्षपाती उद्योग नहीं है’’
कारीगरी एक पारिवारिक गतिविधि है जिसमें कुछ विशेष काम सिर्फ पुरुषों द्वारा ही किये जाते हैं और कुछ विशेष काम करने में महिलाएं दक्ष होती हैं। यह बिल्कुल भी एक लिंग पक्षपाती उद्योग नहीं है। हस्तशिल्प के क्षेत्र में बीते कई वर्षों से काम कर रही लैला मानती हैं कि अवसरों के मामले में उन्हें महिला होने के नाते किसी भी तरह से भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा है। हालांकि वे इस बात को स्वीकारती हैं कि अगर उन्होंने एरोनाॅटिकल इंजीनियर या लड़ाकू पायलट बनने के फैसला किया होता तो स्थितिया अलग या बिल्कुल विपरीत हो सकती थीं।
‘‘मैं अभी 66 की हूँ और अब भी हर सुबह अपने बिस्तर से कूदकर बाहर निकलती हूूँ’’
अपनी प्रेरणा और अब भी रोजाना काम करने के जज्बे के बारे में बात करते हुए लैला कहती हैं, ‘‘मैं अब 66 वर्ष की हूँ और वस्तुतः रोज सुबह को मैं अपने बिस्तर से कूदकर काम के लिये निकलती हूँ। हो सकता है कि यह दोहरी संतुष्टि होः
- हर समय सुंदर कला ओर शिल्प के साथ काम करना।
- यह जानना कि आप अपने काम के माध्यम से किसी को आय का स्त्रोत देते हुए उसके जीवन को बदलने में सहयोग दे रहे हो।
अंत में लैला उभरती हुई महिला उद्यमियों और डिजायनरों को एक सलाह देती हैं, ‘‘अपनीे जीवन में जब कभी भी आप करियर को चुनने के या फिर कोई व्यवसाय शुरू करने में मोड़ पर हों तो एक बार शिल्प के बारे में जरूर विचार करियेगा। यह एक ऐसा अनुठा अवसर है जहां आपको बहुत अधिक प्रतिस्पर्धियों का साममना नहीं करना पड़ता और आपको दोहरी संतुष्टि प्राप्त होती है। इस काम के जरिये आप काम करने के अलावा किसी जरूरतमंद की सहायता भी कर रही होती हैं।’’