पर्यावरण के साथ बाघों को बचाने में जुटा है एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर
किशोर और उनकी टीम ने सरकार से कहा है कि अगर बाघों का प्रजनन कराना है तो इसके 800 से 1 हजार किलोमीटर के क्षेत्र को मानव आवाजाही से दूर रखना होगा। इसके लिए ये लोग गांव वालों के अलावा सरकार के साथ मिलकर काम कर रहें हैं। ये जंगल में रहने वाले लोगों को समझाते हैं कि बफर एरिया में वो लोग लकड़ियां बीनने और पशुओं को चराने के लिए न जाएँ। इसके लिए इन्होंने इन लोगों को गैस का कनेक्शन दिलाने में मदद की है और पशुओं के लिए चारा जंगल से दूर उगाने के लिए कहा है।
वन्य-जीव और पर्यावरण के साथ इंसान के बीच संतुलन कैसे बनाया जा सकता है ये शायद किशोर रिठे से बेहतर कौन जान सकता है। बाघों के संरक्षण में जुटे किशोर कभी सॉफ्टवेयर इंजीनियर हुआ करते थे, लेकिन आज उनकी पहचान पर्यावरण प्रेमी के तौर पर है। साल 2001 में सतपुड़ा फॉउंडेशन की स्थापना करने वाले किशोर आज मध्य भारत के 25 हजार वर्ग किलोमीटर में काम कर रहे हैं। बाघों को बचा रहे हैं, जंगल में रहने वाले लोगों की शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ उनको रोज़गार से जोड़ने का काम कर रहे हैं।
पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर रहे किशोर रिठे कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों के लियए काम कर चुके हैं, लेकिन बाघों के संरक्षण का काम उन्होंने तब भी नहीं छोड़ा था जब वो नौकरी करते थे। किशोर के बताते हैं,
“जब मैं 18-19 साल का था तब मैंने नेशनल कंज़रवेशन सोसाइटी के लिए काम करना शुरू कर दिया था। ये सोसाइटी मेलघाट टाइगर रिजर्व में बाघों के संरक्षण के लिए काम करती थी। इस तरह साल 2000 तक मैंने इस सोसाइटी में काम किया। अपने इन 10 सालों के अनुभव के आधार पर मैंने महसूस किया कि अगर हमें बाघ को बचाना है, तो हमें जंगल और उसके आस पास रहने वाले लोगों के बीच रहकर ही काम करना होगा। इसके लिए सिर्फ मेलघाट के क्षेत्र में ही काम करने से कुछ नहीं होगा इसके लिए पूरे सतपुड़ा क्षेत्र पर काम करना होगा और ये काम एक संगठन से नहीं होगा इसके लिए एक बड़े सशक्त संगठन की जरूरत होगी।”
साल 2001 में उन्होंने ‘सतपुड़ा फाउंडेशन’ की स्थापना की। इसमें उन्होंने नागपुर और मुंबई में काम कर रहे अपने कुछ दोस्तों को भी अपने साथ जोड़ा।
किशोर बताते हैं कि सतपुड़ा का इलाका 25 हज़ार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। इस पूरे क्षेत्र में एक साथ अंदर तक नहीं पहुंचा जा सकता हैं, क्योंकि इस पूरे क्षेत्र में कई नेशनल पार्क और सेंचुरी हैं। साथ ही कुछ ऐसे भी क्षेत्र हैं, जो कि पार्क और सेंचुरी तो नहीं हैं लेकिन वहाँ पर बाघ रहते हैं।
किशोर कहते हैं कि- “ मैं और मेरी टीम ने ऐसे क्षेत्रों में काम किया, जहाँ पर की बाघ अब भी रहते हैं, उसके बाद हमने बफर एरिया में जो गांव हैं उनमें काम करने का सोचा। उसके बाद हमने सोचा की अगर हमारे पास फंड बचा तो हम टाइगर रिजर्व और जंगल के कांरिडोर का काम करेंगे।”
‘सतपुड़ा फाउंडेशन’ पिछले 15 सालों के दौरान मंगला जिले में पड़ने वाला कान्हा रिजर्व पार्क के हिस्से, मध्य प्रदेश के सिवनी जिले के पेंच नेशनल पार्क, चंद्रपुर में पड़ने वाले ताड़ोबा नेशनल पार्क और महाराष्ट्र के अमरावती के मेलघाट में काम कर रहे हैं। यहां पर काम करने वाली इनकी कोर टीम ने अपना एक मजबूत आधारभूत ढांचा तैयार किया है। यहाँ 115 गांवों तक इनका नेटवर्क फैला हुआ है। इसमें गांव में रहने वाली महिलाएँ, युवा और बच्चे इनके फाउंडेशन से जुड़े हैं। किशोर का कहना है इस काम में परेशानियाँ बहुत आती हैं, बावजूद इन 15 सालों में यहाँ पर बाघों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है।
अपने काम के बारे में इनका कहना है कि “बाघों की संख्या बढ़ाने के लिए सबसे पहले हमें इसके शिकार पर रोक लगानी होगी। इसके लिए हम लोग पॉलिसी मेकिंग बोर्ड में शामिल हुए। हम लोग नेशनल बोर्ड आंफ वाइल्ड लाइफ स्टेडिंग कमेटी और स्टेट वाइल्ड लाइफ के सदस्य हैं।”
किशोर और उनकी टीम ने सरकार से कहा है कि अगर बाघों का प्रजनन कराना है तो इसके 800 से 1 हजार किलोमीटर के क्षेत्र को मानव आवाजाही से दूर रखना होगा। इसके लिए ये लोग गांव वालों के अलावा सरकार के साथ मिलकर काम कर रहें हैं। ये जंगल में रहने वाले लोगों को समझाते हैं कि बफर एरिया में वो लोग लकड़ियां बीनने और पशुओं को चराने के लिए न जाएँ। इसके लिए इन्होंने इन लोगों को गैस का कनेक्शन दिलाने में मदद की है और पशुओं के लिए चारा जंगल से दूर उगाने के लिए कहा है।
‘सतपुड़ा फॉउंडेशन’ बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य पर भी काम कर रहा है। इनका कहना है जिन 115 गांवों में ये लोग काम कर रहे हैं वहां पर लगभग हर बच्चा स्कूल जाता है। शिक्षा के ज़रिये बच्चों को बताते हैं कि लोगों के लिये जंगल और वन्य जीव क्यों जरूरी हैं। ये बच्चों को बताते हैं कि अगर फसलों को जंगली जानवर नष्ट कर देते हैं तो ऐसे में अगर बाघ होगा तो ये जानवर अपने आप खत्म हो जाएंगे क्योंकि ये जानवर ही बाघों का भोजन हैं। किशोर का मानना है कि ये बात अगर वो सीधे उनके माता पिता से कहते हैं तो वे उनकी बात नहीं मानते लेकिन बच्चों की बात को वे लोग जल्दी समझते हैं।
‘सतपुड़ा फाउंडेशन’ 6 टाइगर रिजर्व क्षेत्रों में लोगों के स्वास्थ्य पर भी काम कर रहा है। इनकी 20 डाक्टरों की एक हेल्थ टीम है, जो हर हफ्ते करीब 350 लोगों को देखती है। साथ ही ये लोग गांव वालों का केस रिकॉर्ड भी रखते हैं इससे ये लोग गांव वालों का भरोसा जीतने में सफल हुए हैं, क्योंकि ये दूरदराज के एरिया हैं जहां तक अब तक स्वास्थ्य सुविधाएँ नहीं पहुंची हैं। इस सुविधा को ये मुफ्त में गांव वालों को देते हैं।
किशोर का कहना है कि इन एरिया में टाइगर संरक्षण का काम गांव वालों के सहयोग से सफलतापूर्वक चल रहा है। नवम्बर-दिसम्बर में ही यहां बच्चे सीमेंट की बोरियों में बालू भरके उससे छोटे छोटे करीब 150 चक डैम बनाकर पानी को रोकते हैं। इससे एक तो उनके पशुओं को पानी मिलता है दूसरा ये पानी उनके सिंचाई के भी काम आता हैं, जिससे उनके पशुओं को पानी और चारे के लिए जंगल में नहीं जाना पड़ता है। किशोर का कहना है कि इन क्षेत्रों का विकास करने के लिए सरकार इन टाइगर रिजर्व के पास रेल, सड़क, नहर और कॉरिडोर बनाने की सोच रही है। हमने राज्य और केंद्र दोनों सरकारों को कहा है कि वे पहले टाइगर क्षेत्र को बचाने के लिए बजट दे, क्योंकि उनको बचाना अकेले फॉरेस्ट डिपार्टमेंट और सेंचुरी के बस में नहीं हैं। उनकी इस बात को सरकार ने भी माना है।
किशोर और उनकी टीम ने प्रधानमंत्री के ‘मन की बात’ से प्रभावित होकर 115 गांवों में ‘गांव के मन की बात’ प्रोगाम को शुरू किया है। इसके तहत ये लोग गांव वालों को साफ सफाई के बारे में बताते हैं। ये लोग गांव वालों को बताते हैं कि उनके फेंके कूड़े से ही गांव में कुत्ते आते हैं जिन्हें खाने के लिए बाघ और चीता गांव में आते हैं और कभी कभी वो उनके पालतू जानवरों को भी उठा कर ले जाते हैं। इसके अलावा ये लोग नालियों से निकलने वाले पानी को सीवर में जाने से पहले ही ट्रीट कर देते हैं। ये पानी उनके सिचांई आदि के काम आ जाता है। सतपुड़ा फाउंड़ेशन सिर्फ शिक्षा और स्वास्थ्य पर ही नहीं बल्कि दूर दराज के गांव में रोजगार के साध भी उपलब्ध करा रहा है। इन्होंने महिलाओं को सिलाई, कढ़ाई व बैग बनाने की ट्रेनिंग दी है। इन महिलाओं का सामान नागपुर तक बिकने के लिए जाता है। जिससे इन महिलाओं को गांव में रहकर ही रोजगार मिला हुआ है।
वेबसाइट : www.satpuda.org