अन्ना ने पुलिसवाले को उसी के डंडे से इतना पीटा था कि उसके सिर पर आठ टाँके पड़ गए, जानिये क्यों तीन महीने तक अन्ना को भूमिगत रहना पड़ा था ...
अन्ना को उनके मामा अपने साथ मुंबई ले गये। मुंबई में अन्ना ने सातवीं तक पढ़ाई की। घर की विकट परिस्थिति और परिवार की आर्थिक तंगी की वजह से अन्ना को छोटी उम्र में ही नौकरी करनी पड़ी। अन्ना ने मुंबई में फूल, फूल की मालाएँ और गुच्छे बनाकर बेचना शुरू किया। फूलों का कारोबार करने के पीछे भी एक ख़ास वजह थी। अन्ना स्कूल से छुट्टी के बाद फूल की एक दुकान पर जाकर बैठते थे। वहाँ उन्होंने दूसरे मज़दूरों को काम करता हुआ देखकर फूल की मालाएँ और गुच्छे बनाना सीख लिया था। अन्ना ने देखा था कि दुकानदार ने फूलों की अपनी दुकान कर पांच मज़दूर लगाये थे और वो उनकी मेहनत का फायदा उठाता था। अन्ना को लगा कि खुद की दुकान खोलने में ही भलाई है और फायदा भी। अन्ना ने कहा, “फूलों का काम सात्विक है। भगवान् के गले में माला जाती है। ये भी एक वजह थी कि मैंने फूलों का काम शुरू किया था।”
मुंबई ने अन्ना के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाये थे। एक मायने में किसन बाबू राव हज़ारे मुंबई में ही पहली बार अन्ना हज़ारे बने थे। मुंबई में ही वे सामजिक कार्यकर्ता और आन्दोलनकारी बने। बड़ी बात तो ये है को किशोरावस्था में ही अन्ना ने अन्याय और अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठानी शुरू कर दी थी। उम्र में छोटे थे, लेकिन अन्याय और अत्याचार के ख़िलाफ़ उनके तेवर और आंदोलनकारी रवैये, नेतृत्व की क्षमता को देखकर पीड़ित लोग उनके पास मदद मांगने आने लगे थे।
अन्ना जहाँ फूल बेचते थे, वहाँ दूसरे मज़दूर और स्वरोज़गार फल, फूल, सब्जियाँ जैसे सामान भी बेचते थे। अन्ना अमूमन हर दिन देखते थे कि पुलिसवाले इन ग़रीब और निस्सहाय मज़दूरों से ‘हफ्ता’ वसूलते हैं। ‘हफ्ता’ न देने पर पुलिसवाले ज़ोर-ज़बरदस्ती करते थे। वर्दी के रौब में कई बार पुलिसवाले इन मज़दूरों और स्वरोज़गारों की पिटाई कर देते थे। अन्ना सख़्त थे, हफ्ता देने के ख़िलाफ़ थे, पुलिस वाले भी उनके तेवरों से वाकिफ़ थे। हफ्ता वसूली के ख़िलाफ़ अन्ना के विरोध को देखकर कई स्वरोज़गार मदद के लिए अन्ना के पास आने लगे। अन्ना पुलिसवालों को समझाते थे कि हफ्ता वसूली ग़लत बात है और ग़रीब लोगों को हफ्ते के नाम पर परेशान नहीं करना चाहिए। कुछ पुलिसवाले बात सुनते थे तो ज्यादातर नहीं सुनते थे। अन्ना कहते हैं, “उनके (पुलिसवालों के ) दिमाग पर इतना असर नहीं पड़ा क्योकि आदत पड़ गयी थी न।”
अन्ना किशोरावस्था में ही पुलिसवालों के हाथों शोषित और पीड़ित लोगों के नायक बन गए। किशोर थे, लेकिन किसन ‘अन्ना’ बन गए थे। अन्याय सहन करना और किसी के साथ अन्याय होता हुआ देखकर चुप रहना उनकी फितरत में ही नहीं था। खून गरम था, मन में जोश था, माँ की सिखायी वो बात याद थी कि जितनी मुमकिन हो सके लोगों की मदद करना, अन्ना अन्याय के खिलाफ लड़ाई के मुखिया बन गए।
इस लड़ाई के दौरान एक ऐसी घटना हुई, जिसने अन्ना को मुंबई छोड़ने पर मजबूर कर दिया। एक दिन एक पुलिसवाले ने एक फलवाले को हफ्ता न देने पर पीट दिया। पुलिस के हाथों पीटने वाला शख़्स अन्ना के पास आया। अन्ना पीड़ित को साथ लेकर उस पुलिसवाले के पास गए। जब अन्ना ने उस पुलिसवाले को एक ग़रीब व्यक्ति को तंग न करने की बात कही तब उस पुलिसवाले ने अन्ना से भी ऊँची आवाज़ में बोलने लगा। अन्ना के शब्दों में – मैं वहाँ गया और उस पुलिस वाले से पूछा .. अरे ! क्यों, क्यों तकलीफ़ देते हैं आप, ये ग़रीब लोग हैं। तो वो मुझपर भी गुरगुर करने लगा। उसके हाथ में एक डंडा था, वो डंडा मैंने खींचा और उससे उसको इतना पीटा कि उसके सिर में आठ टाँके पड़ गए।”
यकीन करना मुश्किल हैं अहिंसा और शांति के दूत माने जाने वाले अन्ना हज़ारे ने एक पुलिसवाले को लहूलुहान कर दिया था। पुलिस के डंडे से ही पुलिसवाले को पीट दिया था। गांधीवादी विचारधारा में विश्वास रखने वाले अन्ना ने उस घटना की यादें ताज़ा करते हुए कहा, “ वास्तव में हिंसा हो गयी थी, लेकिन उस टाइम पर गाँधीजी मेरे जीवन में नहीं थे। मैं तो छत्रपति शिवाजी को देख रहा था। उनके हिसाब से तो राजा या पटेल ग़लती करता है तो उसका हाथ काटना चाहिए।”
पुलिसवाले की पिटाई करने पर अन्ना के खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट निकाला गया। गिरफ्तारी से बचने के लिए अन्ना भूमिगत हो गए। पुलिस को चकमा देने के लिए वे अलग-अलग समय पर अलग-अलग जगह रहने लगे। अन्ना ने बताया, “ दो-तीन महीने तक मैं भूमिगत रहा, मेरी फूल की दूकान का बहुत नुकसान हो गया। फल बेचने वाले ये लोग कोई मेरे रिश्तेदार नहीं थे – लेकिन अत्याचार के खिलाफ लड़ना मेरा कर्तव्य था – मैंने अपना कर्त्तव्य पूरा किया।”
अन्ना के मुताबिक उनके लिए भूमिगत वाले वो दिन बड़ी मुश्किल भरे थे। पुलिस से बचने के लिए वो कई बार रेलवे स्टेशन पर सोये थे। कभी इस दोस्त तो कभी उस दोस्त के घर रात गुज़ारी थी। उन्हें बहुत चौकन्ना रहना पड़ता था। पुलिसवाले को पीटा था इसी लिए सारे पुलिसवाले उन्हें हर हाल में पकड़ना चाहते थे। फूल की दुकान बंद थी, इसी वजह से रोज़ी-रोटी भी जुटाना मुश्किल हो गया था। अन्ना कहते हैं, “वे दिन बड़े खतरनाक थे। बहुत ख़तरा था और बहुत सारी दिक्कतें थीं, लेकिन पुलिस मुझे पकड़ नहीं पायी।”
अन्ना जब भूमिगत थे, तब उन्हें पता चला कि भारत सरकार ने युवाओं से सेना में भर्ती होने का आह्वान किया है। इस आह्वान पर अन्ना ने भी फैसला कर लिया कि वे सेना में भर्ती होंगे और सैनिक बनेंगे। अन्ना सेना में भर्ती भी हुए और इससे वे गिरफ्तारी से भी बच गए।
लेकिन... मुंबई ने उन्हें शोषित और पीड़ित लोगों का नायक बना दिया था। वे आंदोलनकारी और सामाजिक कार्यकर्ता बन चुके थे। पुलिसवाले की पिटाई और गिरफ्तारी का वारंट वाली घटना से पहले अन्ना ने मुंबई में किरायेदारों पर होने वाले ज़ुल्म के ख़िलाफ़ भी आन्दोलन शुरू किया था। उन दिनों मुंबई में कुछ गुंडे और बदमाश किरायेदारों के पास जाते थे और उन्हें मकान खाली करवा देने की धमकी देते हुए उनसे वसूली करते थे। जब अन्ना को इस अत्याचार के बारे में पता चला तब उन्होंने अपने कुछ साथियों और उनकी सोच से मेल रखने वाले लोगों के साथ मिलकर एक संगठन बनाया। अन्ना ने अपने साथियों के साथ जाकर किरायेदारों से वसूली करने वाले गुंडों को उन्हीं की ज़ुबान में धमकी दी कि अगर वसूली बंद नहीं की तो देख लेंगे। अन्ना की धमकी, उनका मिजाज़, उनके तेवर, उनकी आवाज़ इतनी दमदार थी कि बड़े-बड़े गुंडे घबरा गए। बड़े फ़ख्र के साथ अन्ना कहते हैं, “ मैंने बचपन में ही अत्याचार के ख़िलाफ़ लड़ाई शुरू की है। अन्याय के ख़िलाफ़ बचपन से ही लड़ता आया हूँ। मैं छोटा था, लेकिन उन गुंडों से कह दिया था कि गुंडागर्दी हमें भी आती है। इस बात से वे डर गए थे।”
.........................................